अकेलापन – एक रास्ते का
ये रास्ता, जो हर मुसाफ़िर का हमसफ़र है,
जो हर थके-हारे मुसाफ़िर का सफ़र है।
जो खुद बेघर है, पर सबको उनकी मंज़िल तक ले जाता है,
खुशियों से मिलवाता है,
ग़मों से छुपाता है,
पर खुद हर वक़्त तन्हा रहता है,
उसका कोई साथी नहीं, कोई रहनुमा नहीं।
दिन भर लोग गुज़रते हैं इस पर,
कोई हँसते हुए, कोई रोते हुए,
कोई उम्मीद लेकर, कोई थकान के साथ,
कोई तेज़ क़दमों से भागता,
तो कोई भारी क़दमों से ठहरता,
पर रास्ता सिर्फ़ देख सकता है,
किसी से कुछ कह नहीं सकता है।
शाम ढलती है, सूरज ढलता है,
पर रास्ते का दुख कोई नहीं समझ पाता है।
वो तो बस अपने दामन में
हर शाम की चुप्पी समेट लेता है,
हर मुसाफ़िर की परछाईं को
अपने सीने में दफ़ना लेता है।
लोग आते हैं, चले जाते हैं,
कोई रुक कर पूछता नहीं,
कि इस रास्ते का भी कोई सपना है क्या?
क्या इस रास्ते ने भी कभी किसी से प्यार किया?
क्या कभी किसी के क़दमों ने
इसे अपने होने का अहसास दिलाया?
या ये हमेशा सिर्फ़ धूल और धूप के बीच
ख़ुद को बिखेरता रहा?
क्या कभी किसी ने इसे अपनाया?
या बस इसे एक मोड़ समझ
अपनी मंज़िल की ओर बढ़ते गए?
वो तो सिर्फ़ चलता जाता है,
सबके सपनों को पूरा करता है,
पर खुद किसी का सपना बन नहीं पाता है।
जो राह है सबके दिलों की,
जो पथ है हर सफ़र का,
जो हमसफ़र है हर राही का,
पर खुद हर वक़्त अकेला है जो…

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