अलमारी के कोने में बैठी उदास,
धूल भरी आँखों में छिपे हैं एहसास।
सूनापन ओढ़े, ख़ामोश पड़ी,
एक वक़्त था, जब ये सबसे जुड़ी।
कभी गोद में झूलती, कहानियाँ सुनाती,
कभी तकिये के नीचे हौले से मुस्कुराती।
कभी छोटे हाथों में छुप जाया करती थी,
रातों को डर लगे तो सीने से लगती थी।
उसकी आँखों में बसता था सारा जहान,
छोटी उंगलियाँ उससे कहती थी अरमान।
कभी सिरहाने रख सोया जाता था,
कभी दुलार से गले लगाया जाता था।
पर वक़्त बदला, वो मासूमियत खो गई,
छोटी हथेलियाँ बड़ी हो गईं।
नए सपने, नई राहें, नई उलझनें,
और गुड़िया पीछे कहीं छूट गई।
अब वो अलमारी में धूल सहती है,
कोई पुकारे उसे, बस यही कहती है।
कभी जो साथ था हर लम्हे में,
अब गुमशुदा है किसी कोने में।
कभी-कभी पुराने दराज खुलते हैं,
कुछ बीती यादें आँखों से मिलते हैं।
पर नज़रें उस गुड़िया पर ठहरती नहीं,
कोई उसे फिर से बाहों में भरती नहीं।
वो समझती है, बचपन लौटता नहीं,
पर क्या प्यार भी कभी पुराना होता है?
क्या रिश्ता सिर्फ तब तक चलता है,
जब तक उसकी कोई ज़रूरत होती है?
पर फिर भी वो मुस्कुराती है,
आँसुओं को पलकों में छुपाती है।
शायद किसी दिन कोई याद करे,
फिर से उसे गोद में सहेज ले।
वो बस इतना चाहती है,
कोई एक बार उसे फिर से पुकारे।
कोई कहे, “तू मेरी प्यारी थी,”
बस एक बार उसे फिर से अपना माने।
क्योंकि वो सिर्फ एक गुड़िया नहीं,
वो बचपन की पहली दोस्त थी।
वो खिलौना नहीं, वो यादों का घर था,
जिसमें अनकहे अरमानों का सफर था।
तो कभी अलमारी खोलना,
हल्के से धूल झाड़ देना।
शायद वो आज भी वहीं बैठी हो,
तुम्हारे बचपन की बाहें थामे हुए…