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दृश्य देखकर मेरा मन खट्टा हो गया. परेशानी को दूर भगाने की कोशिश में लाइब्रेरी पहुंच गया. कोरे कागज को चितरने का मन हुआ. लेकिन कलम भी ना जाने मुझ से रूठ गई.
विचारों का आक्रमण मानसिक परेशानी बढा रहा था.. शांति के लिये कहानी सामयिक का सहारा लिया. लेकिन मन की व्यथा पीछा नहीं छोड़ रही थी.
अचानक फ़िल्म ' बस्ती और बाजार ' के क्लात्मक इश्तेहार ने मुझे आकर्षित किया.
' नये कलाकारों का क्रन्तिकारी सर्जन '
फ़िल्म देखने की धून सवार हो गई. और मैं तुरंत ' अप्सरा ' थियेटर पहुंच गया. टिकिट निकालकर फ़िल्म के पोस्टर देखने लग़ गया.
" कया वेश्या के जीवन के बारे में फ़िल्म बनाई गई हैं? एक सवाल मेरे दिमाग़ में खड़ा हुआ..
For adults फ़िल्म देखने के लिये काफी भीड़ जमा हुई थी. स्कूल जाने वाले ना जाने कितने लडके फ़िल्म ना देख पाने से हताश होकर फोटोस देखकर अफ़सोस व्यक्त कर रहे थे.
एक पुरुष स्त्री के खुले हुए ब्लाउज उतार रहा था.
ना जाने कितनी लोलुप आंखे वह नजारा घूर रही थी.
वेश्या की ही फ़िल्म थी.
नोटों की थप्पी ऊस बात का समर्थन दे रही थी.
फोटोस के काच में मुझे एक दृश्य दिखाई दिया. जिसे देखकर मेरे सारे बदन में ध्रुजारी की लहर सी दौड़ गई.
एक अंजान शख्स मेरी मा के पल्लू को खींच रहा था. दृश्य के आभास ने मुझे व्यथित कर दिया.
ऊस वक़्त कोलेजियन ग्रुप वहाँ मौजूद था. किसी ने खुश होकर फ़िल्म की तारीफ में कह दिया.
" बहुत ही मजा आयेगी! भारतीय फिल्मे भी काफी आगे बढ़ गई हैं.. वह होलीवुड की तरह कपड़े उतारने में सक्षम हो गया हैं. "
ऊन की मन : स्थिति देखकर मुझे बहुत ताजुब हुआ.
फ़िल्म शुरू होने में कुछ समय बाकी था.. समय पास करने के लिये मैं सौफे पर बैठ गया था.
और विचारों का सिलसिला जारी हो गया था..
उसी वक़्त एक सुटेड बूटेड वृद्ध शख्स एक युवा लड़की का हाथ पकडकर दाखिल हुआ. और मेरे विचारों को जोरदार ब्रेक सी लग़ गई.
विजातीय पात्रों का साथ होना न जाने कया कया सोचने पर मजबूर करता था. पोस्टर के प्रभाव से विचारों को बढ़ावा मिला.
" कौन होंगे?
" कया लड़की बाजारू हैं?
" कया बुढ़ापा गुजारने के लिये उन्होंने लड़की को ख़रीद लिया हैं?! "
मन में उभर रहे बालिश विचार ख़ुद मुझे शर्मिंदा कर रहे थे.
लेकिन यह दुनिया और ऊस के लोग तो हद बाहर मलिन और गंदे हैं.. इस विचार ने मेरे विचारों को जोरदार ब्रेक लगा दी.
भीड़ के साथ मैं होल में दाखिल हुआ.
डोर कीपर हमे सीट तक ले आया. मैं अपनी सीट पर बैठ गया. फिर भी विचारों की दौड़ जारी थी.
धीरी चाल वह दोनों मेरी बाजु में ही आकर बैठ गये.
पहली ही नज़र में फ़्रॉइड घूरकने लगा.
क्या शेठ साहेब अपनी स्टेनो सेक्रेटरी को लेकर फ़िल्म देखने आये थे?
कया वह ऊन की रखैल थी?
या घर संभालने वाली मेइड सर्वन्ट?
कुछ समज नहीं आ रहा था!!
कहीं वह ऊन की बेटी तो नहीं होगी?
इस सवाल पर मैने शर्मिंदगी महसूस की.
मन में क्या क्या ख्याल आ रहे थे!
भारतीय समाचार की रील पूरी होते ही सारी सीटे चपोचप भर गई. स्क्रीन पर सेंसर बोर्ड के प्रमाण पत्र दिखाया गया.. और विचारों उड़न छू हो गये.
शुरआत वाकई में क्लात्मक थी.
Should prostitution be banned?
मशहूर सामायिक में प्रकाशित लेख के टाइटल के साथ फ़िल्म की शुरुआत हुई थी.
टाइटल्स की वंजार रुक गई. लेकिन मेरे विचारों का कोई अंत नहीं था.
' भले वेश्या कलंकित हो, बदनाम हो लेकिन समाज की खानदान स्त्रीयो की सलामती के लिये ऊस की जरूरत हैं. "
बाजु में बैठे बुजुर्ग ने टिप्पणी की.
मानवी की गरीबी.. ऊस की समस्या पर बड़ी खूबी से कैमरा घूम रहा था.. गरीब परिवार.. दो वक़्त की रोटी की समस्या.. शिक्षण का सवाल.. ऊन की निसहाय हालत का तादश चितार ने मेरे भीतर हमदर्दी के भाव जागृत कर रहे थे.
विचारों पुन : जाग उठे थे : कया गरीबी का कभी अंत नहीं आयेगा? मुड़ी वादी लोगो की लालच का कोई अंत नहीं आयेगा?
हमदर्दी अभी सांस ही ले रही थी.
ऊस वक़्त फ़िल्म की ट्वीस्ट ने भारी सदमा दिया.
परिवार की छत्र छाया लुंट गई. घर के मुख्या पिताजी का देहांत हो गया. और परिवार निराधार हो गया.
उसी समय मेरा अतीत भी यकायक जीवंत हो गया.
मृतक पिताजी की छबि आंखो के सामने तैरने लगी. मा के करुणाद्र विलाप को याद क़र के आंखें भर आई. स्वस्थ होकर मैंने पड़दे की दुनिया पर अपना ध्यान केंद्रित किया.
डूबते जहाज को बचाने के लिये घर की बड़ी लड़की नौकरी करने को तैयार हो गई. मामूली पगार में घर का गुजारा करना मुश्किल साबित हुआ.
' टग ओफ वोर ' की स्थिति मेरे संवेदनशील दिल को छू गई. मजबूरी और विवशता ने ऊस की भीतर छिपी नारी का वध कर दिया.. और दूसरी नारी ने अवतार लिया.. यह देखकर मेरे मुंह से चीख सी निकल गई.
" ओह मा तु "
साथ में सवाल हुआ.
कया वृद्ध गृहस्थ कोई ऐसी ही मजबूरी को बगल में लेकर बैठा था?
नायिका का submission देखकर आंखे भर आई थी.
कया जिंदगी की मुश्किल पलो में नारी के लिये यही विकल्प बचा हैं? कया और कोई रास्ता नहीं?
भाड़ा ना भर सकने की स्थिति ने मकान मालिक ने जगह खाली करने का नोटिस दिया था. फी ना भर पाने की स्थिति में छोटे भाई बहन को स्कूल से निकाल दिया गया था. इस हालत में नायिका को बस्ती छोड़कर बाजार में बैठने की नौबत आई थी.
" कया पुरुष इसी तरह नारी का यौन शोषण करता रहेगा?"
एक रुदन कानों से टकराया था.. और विचारों की कड़ी टूट गई थी.
श्यामल लड़की ऊस वृद्ध के कंधे पर सिर रखकर विलाप क़र रही थी, कह रही थी.
" राज बाबू! जिंदगी की कठिनाईयों ने मुझे भी बाजार में बिठा दिया होता. आप ने मुझे बचा लिया.. मैं कितनी किस्मत वाली हूं. निर्लज्ज, लागणी विहिन दुनिया में मुझे एक पिता का सहारा मिल गया. मेरी डूबने वाली नैया पर लग़ गई.
ऊस की बात सुनकर मेरा मस्तक शर्म से झुक गया.
नायिका के खून से लथपथ कपड़े ने सब कुछ बता दिया.
वह मा बनने वाली थी.
उसे जाकारा मिलता हैं.
जिम्मेदार व्यकित को जैल हो जाती हैं. परिस्थिति की खबर पाते ही प्रेमी मुंह फिर लेता हैं. इस हालत में एक युवान ऊस का भाई बनकर उसे संभालता हैं..
देखकर मेरी आंखे ख़ुशी के कारण गीली हो गई थी
लेकिन आनंद ज्यादा टिक नहीं पाया. था. नायिका की हताशा उसे मौत की राह ले जाती हैं. बच्चे को जन्म देकर वह सदा के लिये सो जाती हैं.
It will not end until the end of poverty के निराशाजनक मेसेज के साथ पूर्ण हो गई.
एक अच्छी फ़िल्म देखने का आनंद हुआ.
" यार! पैसे बेकार गये.. नायिका के वस्त्र उतारने के समय केमेरा मुंह फेर गया. हमारी फिल्मों में अब भी लोगो को ठगने की प्रक्रिया जारी हैं. "
कोलेज स्टूडेंट्स की बातें सुनकर अफ़सोस हुआ.
वह मानव चेहरे दरवाजा की बाहर निकलता हुआ नज़र आया. युवती की आंखे भी फ़िल्म के प्रभाव में गीली हो गई थी. चित्र का प्रभाव और जिंदगी की वास्तविकता ऊन की आंखो में उभर रही थी.
मैंने ऊन के बारे में कया कया सोच लिया था.
ऐसा ही कुछ मैंने अपनी मा के बारे में सोच लिया था.
श्यामल नारी वोश रूम चली गई. और मैंने मौका देखकर ऊन की स्टिक ऊन के हाथों में पकड़ा दी. उन्होंने मेरा आभार माना. मैंने उन्हें निर्भयता से सवाल किया :
" अंकल! हाव डु यु फील अबाउट धीझ मुवी?"
" वेरी गुड.. बहुत बढ़िया विषय हैं! "
ऊस के बाद फ़िल्म के अंत के बारे में मैंने ऊन की राय जानने की कोशिश की. उन्होंने बड़े इत्मीनान से जवाब दिया :
" ज़ब तक मानवी अपनी भीतर छिपे राक्षस की कैद से मुकत नहीं होगा, तब तक इस स्थिति का कोई अंत नहीं आयेगा.. स्त्री की लाचारी, मजबूरी अक्सर उसे गलत राह ले जाती हैं.. इस समय किसी ना किसी को तो आगे आना जरुरी हैं. उसे रोकना अनिर्वाय हैं. सही पुरुष के बिना कोई भी स्त्री बजारू बन सकती हैं. "
इतना कहकर वह रुक गये. ऊन की नज़र वोश रूम की और स्थिर हुई. श्यामल नारी अपने कपडे ठीक करती हमारी ओर आ रही थी.
उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखकर कहां था.
" बेटा तुम्हारी मा भी किसी विवशता का शिकार हो गई है. ऊस को नफरत से नहीं देखना. घृणा करने से आदमी विनाश की राह निकल जाता हैं. "
इतना कहकर वह अपनी बेटी के कंधो का सहारा लेकर बाहर की ओर चल पड़े.
फ़िल्म का एक दृश्य देखकर मेरे मुंह से निकल गया था.
" ओह मा तु! "
जिस ने मेरा भेद खोल दिया था.
ऊन के भावुक शब्दों ने मेरी हताशा को भगा दिया था.
" सहारा ही स्त्री को बस्ती में रहने देता हैं.. यही बस्ती और बाजार के बीच का भेद हैं. "
मेरे दिमाग़ में विचारों का प्रचंड प्रपात उठकर शम गया था.
एक दृश्य को देखकर मैंने मा के बारे में कया सोच लिया था.
मैं तुरंत ही घर की ओर दौड़ लगाई. और मा की गोद में सिर रखकर रोने लग़ गया.
" मा मुझे माफ करना. गुस्से में आकर मैंने तेरे बारे में क्या कया सोच लिया. तुम्हे वेश्या कहकर तेरे दिल के टुकड़े टुकड़े कर दिये.. मा मैं ही तुम्हारा सहारा बनूंगा. मेरे दिल की बस्तीमें तु सदैव सलामत रहेगी. "