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भारतीय संस्कृति ने हम स्त्रियों को हमेशा मान-सम्मान व प्रतिष्ठा के पद पर आसीन किया.... दुर्गा व काली मानकर हमें समय-समय पर पूजा भी जाता रहा है.....किसी महान कवि ने नारी को श्रद्धा कहा तो किसी ने, नारी को,सकल ताड़ना के अधिकारी माना....उफ्फ नारी को क्या-क्या नही समझा गया.....पर वो कभी नही माना गया,जो वो वाकई में है... एक साधारण सी स्त्री व उसके छोटे-मोटे सपनें, देवी नाम देकर,स्त्री को पढा दिया जाता धर्म व कर्म की बातें और बलि चढ़ जाती मन की बातें मन में ही.....एक बच्ची जन्म के साथ लक्ष्मी बनती...तो शादी के बाद अन्नपूर्णा बन जाती...सीता सा समर्पण उसे बचपन से ही जो सिखाया जाता..... धर्म-कर्म की बातों में वह भूल जाती कि उसकी क्षमता सीमित है.....वो अष्ट भुजाधारी नही.... बल्कि उसके पास सिर्फ दो हाथ है....पर देवी अवतार में उसे कुछ ध्यान ही नही रहता.... और एक के बाद एक लड़ाई लड़ती रहती.....आखिकार देवी जो है वह.... 

इन देवियों को क्यों नही याद आता कि उनके अंदर वास कर रही एक साधारण स्त्री की भी कुछ अपेक्षाएं है उनसे..... जिसे बाहरी खतरों से डर लगता है...जो सुकून से चाय के साथ अपना पसंदीदा धारावाहिक देखना पसंद करती है......जो बच्चों के साथ मैग्गी व सैंडविच में भी खुशी से चहक जाती.....जिसे पती का कंधा टिकने के लिए सबसे मजबूत लगता....जो अधेड़ावस्था में भी नए-पुराने गाने पर थिरकना चाहती है...जो बचाए हुए पैसे से कुछ सरप्राइज प्लान करना चाहती है...जिसे छोटी-छोटी बातें भी बहुत बड़ी लगती ..मुझे तो दिखाई देती हैं..... 

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देवी के अंदर धीरे-धीरे मर रही ऐसी स्त्री.....मुझे एलर्जी होती है उसकी चुप चीख से....पता नही किसी और को सुनाई देता भी है कि नही....इस स्त्री के पास देवियों की तरह दस भुजाएँ तो नही कि एक साथ सारे कार्य पूर्ण कर ले....सिर्फ दो ही तो हाथ है,पर इन दो हाथ से भी,वो दस-दस हाथ का काम आसानी से निपटाकर खुश हो, स्वयं पर घमंड करती.....ये वही साधारण स्त्री है,जो कंधे पर जरूरतों का थैला लटकाकर, पति का हाथ बटाने हेतु रोज घर से बाहर निकलती है..... जिंदगी के रेल में धक्का-मुक्की खाती इस स्त्री को देवी सा सम्मान नही चाहिए..... अगर सच में ही स्त्री हक में कुछ करना चाहते हो,तो सर्वप्रथम अपनी सोच बदल डालो....हमारे इर्द-गिर्द नजर आती ये साधारण स्त्रियां..... बस स्वाभिमान से जीना चाहिए है.....वो एलेक्सा की तरह सिर्फ इन्स्ट्रक्शन फॉलों करने के लिए नही बनी ...उनकी इच्छाओं का भी सम्मान होना चाहिए.....पर यह कैसे सम्भव होगा.....यह तभी होगा....जब स्त्री स्वयं को महत्व देगी....स्वयं से प्यार करेंगी... घर के सदस्यों के पीछे नही बल्कि उनके साथ खड़ी होगी एक मजबूत इरादे के साथ...और सबसे जरूरी बात....उसे ना कहना सीखना होगा.....वो सारी परम्पराएँ ,जो बेड़ियां बन पैरों को जकड़ रही है ना!उन्हें तोड़ देना ही अच्छा होगा...अपने लिए भी और आने वाली पीढ़ी के लिए भी.....अंतत, मैं तो,...मेरा क्या.....,मेरी तो जैसे-तैसे ....,ऐसी पंक्तियो पर पुनः विचार करें....

हम क्या है....से बेहतर यह सोचना होगा कि हम कर क्या सकते हैं....

याद रखें .....हम दुर्गा, काली नही..... बल्कि एक स्त्री है, जो अपने घर-परिवार को अच्छे से सम्भालने में सक्षम है... क्या हुआ जो हम एलेक्सा के जैसे इशारों पर नही नाचती.... पर उससे कहीं ज्यादा बिन बोले अपनों की बात उनके कहने से पहले करके रख देने मात्र से, हमारे सामने एलेक्सा भी टिक नही पाती.... और हम खुश हो जाती... हमें,,, हमारी छोटी-छोटी खुशियों के संग खुश रहने दीजिये.... और आप सभी भी सीता, दुर्गा, व काली जैसे सम्बोधन से सम्बोधित करना बंद कर दीजिये.....एक साधारण सी स्त्री को साधरण ही बने रहने दीजिए... यही उसकी असली खुशी है....

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