न जाने कब मिलेगा वह सुकून ,वो आंतरिक शांति का अनुभव जिसे ढूंढने हम चल पड़े थे अपना बचपन छोड़कर स्कूलों में, कॉलेजों में और प्रवेश कर लिया ग्रहस्थ जीवन में; तो क्या वो तलाश पूरी हुई??? यह जानने से पहले बता देती हूं आखिर वो सुकून है कैसा ? इसका जो शुरुआती आभास है वह हमें अपने विद्यालय से मिलता है । विद्यालय में पढ़ते हुए हम एक ऐसे सुकून से रूबरू होते हैं और कल्पना करने लग जाते हैं कि यह जिंदगी यही थम जाए और हम अपने दोस्तों के साथ हमेशा के लिए एक दायरे में सिमट कर रह जाए ।उनके साथ हंसना, बोलना ,लड़ना झगड़ना, छोटी- छोटी सी बातों पर झगड़ कर फिर रूठना मनाना; परीक्षा में मदद के नाम पर नकल करवाना और अध्यापक के सामने झूठे बहाने बनाना ; बीमारी के नाटक करना और कई बार शिकायत करके दोस्त की ही पिटाई करवाना ।
इतनी सब शरारते व नौटंकी करते हुए भी रात को बिस्तर पर सुकून भरी नींद लेना। ना किसी की चिंता ना कोई फिकर ; ऐसी सुकून भरी नींद जिसके लिए हम अंत समय तक तरसते रहते हैं और असली खुशी तो तब होती है जब सुबह सुबह आंख खुलती है और आंतरिक शांति का अनुभव करते हुए स्कूल जाकर दोस्त को ऐसे गले मिलना जैसे कुछ हुआ ही ना हो। कमाल के दिन होते हैं वो; एक दोस्त की खातिर अपनी कक्षा तक को छोड़ देना और हद तो तब हो जाती थी जब दोस्त की खातिर पेपर भी खाली दे आना । सजा मिलने पर भी साथ ना छूटता था। विद्यार्थी जीवन का वह याराना अनमोल था जिसका कोई भी तोड़ ना कर पाया है ना कर पाएगा।
स्कूल से निकले जब जवानी में कदम रखते हैं और कॉलेज को पहुंच जाते हैं तो स्वाभाविक है थोड़ा बदलाव तो होगा ही। चुलबुल-पन जवानी में बदल जाता है यहां बात मान अपमान की हो जाती है वही दोस्त बिखरने से लगते हैं कुछ विषय की वजह से तो कुछ आर्थिक स्थिति की वजह से और कुछ अपने चुनिंदा क्षेत्रों में अग्रसर होने के लिए। फिर नए दोस्त जुड़ने लगते हैं पुराने छूटते चले जाते हैं लेकिन बात रही सुकून की तो वह भी बिखरने सा लगता है, छूटने सा लगता है रेत की तरह हाथों से। नए दोस्त जुड़ने लगते हैं उम्मीद शुरू हो जाती है फिर से उसी सुकून की। हां पूरी हो जाती है वह कई बार ,लेकिन ना-उम्मीद ही लौटते हैं अधिकतर, क्योंकि यह दुनिया ही मतलबी है, मतलब निकला कि फिर कोई नहीं पूछता। बस फिर उसी सुकून की तलाश में कुछ एक पथिक निकल पड़ते हैं भावी ग्रहस्थ जीवन की ओर,,, परंतु मुझे नहीं लगता इस पड़ाव पर आकर किसी को वह सुकून व आंतरिक शांति का आभास हो पाता है???? शायद नहीं! इसीलिए तो मेरे लेख का शीर्षक है सुकून की तलाश।। जो कि अभी तक जारी है।।।
"कहां मिलेगा ओ सुकून तु,
कुछ तो अपना पता दे।
गली में ढूंढूं या बागों में,
थोड़ा सा तो रास्ता दे।
क्या ऐसे ही मैं फिरती रहूंगी,
इस शहर के इन बाजारों में,
पल भर की तो राहत दे।
कहां मिलेगा और सुकून तु,
कुछ तो अपना पता दे"।।।