यह संसार
नियंता की रची एक अद्भुत लीला है,
जहां छाया, प्रकाश से अधिक ठोस प्रतीत होती है।
जहां भ्रम और सत्य का ऐसा मेल है
कि दृष्टि को भी विश्वास नहीं होता,
कौन असली है, कौन प्रतिबिंब?
कौन सत्य है, कौन कल्पना?
यह जीवन एक विराट रंगमंच है,
जहां आत्मा, अभिनय करते-करते
अपने मूल स्वरूप को ही भूल बैठी है।
वह किरदार में इतनी रच-बस गई है,
कि उसे अपनी दिव्यता की स्मृति तक नहीं।
विधाता ने ऐसा मायाजाल बुना है,
जिसमें आत्मा जो अमर है,
क्षणिक रिश्तों, नामों और रूपों में उलझकर
अपने सत्य से मुँह मोड़ बैठी है।
यहां सभी संबंध
माता, पिता, भाई, बहन, मित्र
सभी एक क्षणिक संयोग मात्र हैं।
यह शरीर, जिसे हम अपना कहते हैं,
वह भी एक ऋण है प्रकृति का,
जिसे समय चुकता कर ही देता है।
हम इन संबंधों में सुख ढूंढते हैं,
पर जैसे ही काल की एक लहर आती है,
जैसे ही नियति का स्पर्श होता है,
वो सब जो ‘अपने’ थे,
एक-एक करके बिछड़ जाते हैं।
तो प्रश्न यही है
जब सब अस्थाई है,
तो स्थायी क्या है?
क्या है जो मृत्यु की सीमाओं से परे है?
उत्तर मौन में है।
उत्तर उसी आत्मा में है
जो इस शरीर में बसी है,
जो इस जगत की सैर पर आई है
अपने परम स्रोत परमेश्वर से संबंध निभाने।
यही संबंध अनादि है,
यही नाता अविनाशी है।
बाकी सब एक सपना है,
सपना जो सच लगता है
पर जागते ही विलीन हो जाता है।
तो जागो!
इस चेतना की नींद से उठो।
पहचानो खुद को
नहीं, वो नहीं जो दर्पण में दिखता है,
बल्कि वो, जो तुम्हारी आंखों से देख रहा है।
वो चेतन, वो आत्मा जो शाश्वत है।
सत्य की खोज आत्म-ज्ञान से शुरू होती है।
और वही ज्ञान, जीवन का अंतिम सत्य है।