हाथों पर चढ़ा मेहंदी का गहरा लाल रंग हथेली की रेखाओं को उभार लाया था. शादी के जोड़े में सजाई गई छोटी सी तारा अपनी कलाइयों में लगी चूड़ियों से खेल रही थी. माथे पर बिंदी और होंठों पर हल्की सी लाली और दोनों कानों में चांदी की बालियाँ लगा आज वो दुल्हन गुड़िया सी दिख रही थी. पूरा घर मेहमानों से भरा था, औरतें ढोलक बजा - बजा कर गाना गा रही थीं. तारा के बगल में १३ -१४ साल का सावला लड़का बैठा था. तारा ने एक लड्डू उसे पकड़ाते हुए पूछा, ‘‘आपका क्या नाम है?” ‘‘फुलेंदु” लड़के ने लड्डू लेते हुए मुस्करा कर जवाब दिया,तो नन्ही सी तारा को उसमें अपना एक नया दोस्त दिख गया. आज तारा और फुलेंदु का विवाह हो रहा था मगर उन दोनों के लिए यह दिन किसी त्यौहार सा था. जब उन्हें नये कपड़े पहनाए गए, खाने को मिठाई दी गई. अपने आस-पास चल रही रीति-रिवाजों की उन्हें कोई खबर नहीं थी. तारा के फुलेंदु के घर में आते ही दोनों की दोस्ती और गहराई. जहां-जहां फुलेंदु जाता तारा भी उसके पीछे चल पड़ती. दोनों की हंसी और चहचहाहट से पूरा घर गूंज उठता था. दोनों का ही खेलकूद में बचपन कब बीत गया पता ही नहीं चला. अपनी किशोरावस्था में पहुँच तारा फुलेंदु के हर काम मे उसका साथ देती , तब देश की स्वतंत्रता के लिए लोगों का आक्रोश बढ़ रहा था अंग्रेजों के द्वारा किये गए ज़ुल्म से हर भारतवासी परेशान था. पूरे देश की तरह फुलेंदु और तारा का पूरा गाँव भी गरीबी और लाचारी में दसा हुआ था. फुलेंदु में भारत को अंग्रेजों से छुड़ाने की चाह थी, हो भी क्यों ना, अंग्रेजों का कर चुकाने के लिए उसकी माँ को अपने गहने बेचने पड़े थे . घर मे खानें के लिए अनाज तक न था. मगर उस पर भी गोरी चमड़ी के ये फिरंगी नहीं रुके , उन्होंनें उनसे उनकी नदी के पास वाली छोटी सी ज़मीन तक ले ली. तभी से फुलेंदु ने सोच लिया था कि वो देश को गुलामी की जंजीरों से आज़ाद करवायेगा , वो हर भारतवासी को उसकी पहचान दिलवाएगा. उस दिन जब फुलेंदु घर आया, तो उसके चेहरे पर कई दिनों बाद ख़ुशी झलक रही थी, वो तारा को रसोई से बुलाते हुए बोला , ‘‘पता है तारा... अब हमारे देश का भी अपना तिरंगा होगा. मैं आज ही देख कर आया हूँ. तुम देख लेना.. अब कैसे पिंगाली जी द्वारा बनाया यह तिरंगा भारत के हर समुदाय को अंग्रेजों के खिलाफ एक जुट करेगा. हमारे तिरंगे को जब लहराते देखता हूँ , तो दिल को शांति मिलती है. लगता है जैसे मेरे अस्तित्व को नयी पहचान मिल गयी हो, एक क्रांतिकारी की पहचान”.
तारा फुलेंदु की आंखे पढ़ रही थीं, फुलेंदु की गहरी काली आँखों में एक उम्मीद थी एक नये कल की , एक नये भारत की, जो गुलामी और दुखों के काले साये से आज़ाद हों, तारा फुलेंदु के इस सपने को हकीकत का रूप देना चाहती थी, उसने क्षण-भर की भी देरी नहीं की और अगले दिन ही गाँव की हर औरत को अंग्रेजों के खिलाफ आवाज़ उठाने और हर आंदोलन में भाग लेने को कहा. ८ अगस्त,१९४२ में गाँधी जी ने अंग्रेजों के शासन को हटाने के लिए भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा की, तो बिहार के सारंग जिले के एक छोटे गाँव में बसे तारा रानी श्रीवास्तव और फुलेंदु बाबु ने भी गाँव के हर सदस्य को एक जुट कर पास के पुलिस स्टेशन पर भारत का तिरंगा लहराने का विचार किया. तारा ने सभी औरत का हौसला बढ़ाते हुए कहा, ‘‘अपनी एकता को अपनी ताकत बनाओ , अगर है जज्बा कुछ कर गुजरने का तो उन विदेशियों को अपने देश से भगाओ, कर दो उन्हें ढेर ऐसे कि फिर वो कभी उठ ना पाए, कमजोर दिलो को डरा वो फिर चैन से जी ना पाए” तारा को यू लोगों का मनोबल बढ़ाते देख फुलेंदु को अपनी तारा किसी देवी सी लग रही थी.
इतने बरसों का उनका प्रेम मानो आज फिर उम्मीदों की नई तरंगो को छू रहा था, बस उसका रूप अलग था. आज देश के हित के लिए उन्हें आगे आना था. सभी सेनानियों का समूह पुलिस थाने की ओर जाने लगा फुलेंदु ने तारा के हाथों में तिरंगा देते हुए कहा, ‘तुम्हे ही यह तिरंगा फहराना है, फहराओगी ना ? तारा की आँखों मे संतोष था और फुलेंदु के उस पर किये गए इतने बड़े भरोसे पर उसे गर्व महसूस हो रहा था. वो सभी लोगों के साथ मिल, आगे बढने लगे उनकी मंजिल के सामने अंग्रेज सिपाही थे, वो लाठियों के साथ उनपर बरस पड़े, मगर अपने लक्ष्य को पूरा करने आए लोग नहीं रुके तो अंग्रेजों के गुलाम बने सिपाहियों ने उन्हें तितर बितर करने के लिए उनपर गोलियों चलाना शुरू कर दिया, वो अन्धाधुंध गोलियां चला रहे थे और यह देख बहुत से लोग यहां वहाँ भागने लग गए लेकिन फुलेंदु आगे चला जा रहा था, ना उसे गोलियों की आवाज़ सूनाई दे रही थी, ना लाठियों की मार का कोई एहसास हो रहा था. उसे तो बस आज झंडे को लहराते हुए देखना था, अपने अस्तित्व को अपने सामने उजागर होते हुए देखना था. तभी एक गोली आकर फुलेंदु को लग गई, उसका पूरा शरीर लहुलुहान हो गया था मगर फिर भी वो धीरे- धीरे आगे बढ़ता जा रहा था. जैसे ही तारा की नज़र फुलेंदु पर पड़ी उसका दिल पल-भर के लिए रुक गया जैसे अनगिनत तीरों ने उसके दिल को एक साथ बांध लिया हो, वो फुलेंदु का नाम लेती सहसा उसकी ओर भागी फुलेंदु ज्यादा खून बहने से बेहोश सा हो गया था, तारा ने गिरते फुलेंदु को अपनी गोद मे ले लिया, तिरंगे पर कुछ रक्त फुलेंदु का लग गया, तारा की आँखे आँसुओं से भर आई, उसने अपनी साड़ी के पल्लू से कुछ कपड़ा काट फुलेंदु की गोली खायी चोट पर लगा दिया.
फुलेंदु ने अपनी दबी आवाज में कहा, ‘तारा ,मुझे तिरंगे को लहराते हुए देखना है, लहरा दो उसे, जाओ’. तारा सन्न सी कुछ देर वही बैठी रही और फिर फुलेंदु को वही छोड़ दौड़ती हुई तिरंगा फहराने निकली । कुछ सिपाहियों से हाथोंहाथ लड़ाई भी हुई मगर उन्हें पीछे ढकेलती हुई वह अंग्रेजों के घमंड का नाश करते हुए झंडा लहराने में सक्षम हुई. दूर से फुलेंदु ये सब देख रहा था उसके सूखे होठों पर मुस्कान बिखर गई. तारा वापस आई तो फुलेंदु जा चुका था, मगर उसके चहरे पर अपनी तारा की सफलता के लिए एक हल्की मुस्कान की लकीर थी. तारा फुलेंदु के शरीर से लिपट कर रोने लगी , किसी के लिए रोना और उसके ना होने पर उदास होना दोनों अलग बाते हैं। तारा की आँखे भले ही आँसुओं से भरी थी मगर वो टूटी नहीं थी, मन ही मन फुलेंदु को याद कर वो बोली , ‘मैंने तिरंगा लहरा दिया फुलेंदु , मैंने तुम्हारे अस्तित्व को पहचान दे दी’ .
आज ऐसे महान क्रांतिकारियों को फिर याद कर देश गौरवान्वित महसूस कर रहा है, जिन्होंने अपनी जान की परवाह न करते हुए देश की स्वतंत्रता में अपना योगदान दिया.