क्या मैं मुश्किल हूँ प्यार करने के लिए,
या बस समझा नहीं गया?
मैं खामोश आदमी हूँ —
जेब में कुछ नहीं,
सपनों की सिलवटों में रोटी का टुकड़ा छिपा है।
घर में चेहरों की भीड़ है,
पर नज़रें सब दीवारों में उलझी रहती हैं।
माँ अब कम बोलती है,
पिता की आवाज़ में उम्मीद नहीं, हिसाब झलकता है।
और वो —
जिसे मैंने सबसे गहरे हिस्से में जगह दी थी,
कहती है, “तुम बदल गए हो।”
कैसे बताऊँ उसे —
मैं बदला नहीं,
बस टूटता गया उन बातों में
जहाँ उसकी आँखें मुझे देखती थीं,
पर समझती नहीं।
लोग कहते हैं,
मैं बात कम करता हूँ,
पर शब्दों से ज़्यादा तो मेरी चुप्पी बोलती है।
बस कोई सुनने वाला नहीं।
कभी किसी ने पूछा नहीं,
कि मैं क्यों टाल देता हूँ मुस्कुराना,
क्यों नहीं रखता आइने में आँखें टिकाकर नज़र।
शायद डरता हूँ —
कि वहाँ कोई चेहरा नहीं मिलेगा
जिसे पहचान सकूँ।
मेरे पास कुछ नहीं है देने को,
सिवाय उस सच्चाई के
जो अक्सर लोगों को असहज कर देती है।
मैंने कोशिश की थी,
किसी को अपना दुःख सौंप दूँ
किसी मुस्कान में लपेटकर —
पर वो लौट आया,
“थोड़ा भारी है” कहकर।
अब बस यही सोचता हूँ,
क्या मैं वाकई कठिन हूँ?
या शायद,
इस दुनिया की भाषा ही कुछ और है,
और मैं किसी पुराने शब्दकोश में फँसा हुआ आदमी हूँ।
क्या मैं मुश्किल हूँ प्यार करने के लिए,
या बस, समझा नहीं गया?