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विंध्याचल की घाटियों के घने वृक्षों में छिपा हुआ यह क्षेत्र, कैलाश नदी में उठती लहरों के साथ इतिहास की कुछ छवि दिखाता है| बुंदेलखंड के नगरों में आज भी बड़े ज़मींदार अपने पूर्वजों के हाथों से थपाए हुए हर्म्य में जीवन व्यतीत करना अपना सौभाग्य मानते हैं| यह हवेलियाँ ना उन्हें सिर्फ अपनों की स्मृतियों के मध्य रखती है तथा उन्हें प्रेरित करती है दृढ़ और संकल्प के आदर्शों पर चलने हेतु| आज के युग में बने बंगले, इन हवेलियों के समक्ष आज भी फीके लगते हैं हवेलियों की बनावट में राजघरानों के महलों की आकृति हुआ करती थी|

गाँव के पास एक सफ़ेद तीन मंज़िले की शानदार हवेली से ढुम-लकालका ढुम-लकालका के नगाड़े तथा गारियों की मधूर धुन सुनाई दे रही थी, ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे किसी का विवाह उत्सव मनाया जा रहा हो| जो भी व्यक्ति इन तरंगो की गीतिकाव्य में खो जाते उनके पाँव स्वतः ही उस हवेली के द्वार पर रुक जाते थे| तथा जिन्हें सिर्फ हर्ष और उल्लास की वजह मालूम करनी होती, वह भी उत्सुकता वश वहाँ पहुँच ही जाते और वहीं विराजमान हो कर रह जाते थे| ना जाने नारायण की कौनसी लीला वहाँ चल रही थी, जो सबका मन मोह लेती, और सभी वहीं नारायण भजन में लीन हो जाते थे|

ज्येष्ठ का आखिरी सप्ताह चल रहा था, जहाँ पूरे वर्ष छात्रों को किताबों के साथ मित्रता निभाने के पश्चात तनिक समय मिलता है अपने और अपनों से रिश्ता निभाने का| हवेली में कुछ दिनों से रौनक छाई हुई थी, पूरे दिन मिश्री में घुली आवाज़े आती रहती और परिवारजन अपनी चारों राजकुमारियों की बातें सुनते, उनके लाखों प्रश्नों का उत्तर देते, जब वह प्यार से कहती कि "दादी-दादा आप दोनों माता श्री और पिता श्री से बहुत अच्छे हो, आप कभी डांटते नहीं सिर्फ प्यार करते हो" और फिर चारों अपने दादा-दादी को बहुत दुलार करती, परिवारजनों का मन ठीक उसी प्रकार हर्षता जिस प्रकार राजा जनक अपनी तनूजायों के वचनों पर मंत्र मुग्ध और प्रफुल्लित हो जाते थे|

वह चारों अभी दस-पंद्रह वर्ष की बालिकाएं ही थी, गाँव की प्रेत्यक कन्याओं को गुड़ियों से खेलते देख कर, उन्हें भी इन हाथ की कटपुतलियों से खेलने की तीव्र इक्षा होती और एक दिन उनकी दादी ने चारों राजकुमारियों की यह इक्षा पूर्ण कर दी| घर में ही वामांगिनी की छवि की चार गुड़ियाँ ले आई तथा उनके वर को भी ले आई| अपनी चारों युवरानियों को उनके लिए लाई गई गुड़ियाँ दे कर बोली, "लो तुम भी सब की तरह इनका ब्याह रचा लो"|

वह चारों इत्यधिक आनंदित हुई तथा ढ़ोल, शहनाई, दावत, गीत के साथ अपनी एक गुड़िया का विवाह रचाया| उन चारों कन्याओं के इस खेल में दादी और माता सहित पूरा नगर शामिल हो गया, फिर क्या था विवाह के पूर्व की रस्में इस नाटक का एक हिस्सा बनती और पश्चात की परम्पराएं एक खेल| सब उसी प्रकार होता जैसे वास्तविक के विवाह में होता है, किसी प्रकार की कोई चूक ना दादी को पसंद आती और ना ही उनकी लाड़ली पोतियों को| इसलिए वहाँ उपस्तिथ सभी कन्याओं को आलता लगाया गया, और एक चुनार उड़ा दी गई, उन्हें भी गुड़ियों की तरह सजा दिया गया|

गोधूलि बेला के साथ वो पल भी आ गया, जहाँ खेल-खेल में ही सही परन्तु सबकी आँखे नम हो जानी थी| जी हाँ, आप बिलकुल सही समझे अलविदा का वो क्षण, बिछड़ाव का वो लम्हा, विदाई का वो समय| आप किसी भी नाम से सम्बोधित करें नाम बदलते हैं परन्तु उससे जुड़ी दर्द, पीड़ा तनिक भी नहीं बदलती| एक पुत्री को अपना पीहर छोड़ कर अपने ससुराल जाना होता है|

मस्ती-मज़ाक और विवाह का माहौल कब सन्नाटे में बदल गया पता ही नहीं चला| घर के अनुज पुत्र का विवाह मंडप में आगमन होते ही, वहाँ मौजूद प्रत्येक नगरवासी एक दम शांत हो गए, क्योंकि बड़े ज़मीदारों के पुत्रों के मुख पर थोड़ा रोब होता था तथा जब आप पूर्ण रूप से समृद्ध होते हैं तो थोड़ा अभिमान तो अनिवार्य होता है, जिस कारण नगरवासी त्रसित रहा करते थे| द्वार बैठक में शानदार गद्देदार आसान के साथ कांच तथा शागुन की मेज पड़ी रहती थी, जो अनुज पुत्र ने अपनी पहली कमाई से लाई थी परन्तु आज उन वस्तुयों को वहाँ ना पा कर वह थोड़े चिंतित और क्रोधित हुए कदाचित अधिक व्यवहारी आने के कारण उसे उठा कर अजिर में सूर्य देव की मध्य किरणों के साथ रख दिया गया था|

वह अपने भारी भारी कदमों से आगे की ओर बड़ते चले गए तनिक आश्चर्यचकित अवश्य थे सम्पूर्ण नगर को अपने घर में विराजमान देख कर| इतनी जनता को बेवजह अपने घर में देख कर क्रोध स्वतः ही उत्पन्न हो गया, अनुज पुत्र युद्धभूमि में शंख नाद करते आगे बड़े और बोले, "क्यों अम्मा, यह भीड़ कैसी कुछ हो रहा है क्या?"

उनकी आवाज़ सुनते ही चारों राजकुमारियाँ थोड़ी शांत और भयभीत हो गई क्योंकि उन्होंने अपने पिता श्री और काका श्री की आँखों में क्रोध की छवि स्पष्ट रूप से देखी हुई थी| वह सब उस स्थान को त्याग कर जाने को तत्पर्य हुई, कदाचित उन्हें बोध था कि उनका इस तरह गुड़ियों के साथ खेलना उनके गुरु को तनिक भी पसंद नहीं आएगा परन्तु क्यों का ज्ञाथ नहीं था| दादी को उनका इस तरह खेल को अधूरा छोड़ना जाना उचित नहीं लगा इसलिए उन्होंने खेल समापन का आग्रह किया और वह सब उस आग्रह को टाल ना पाई और पुनः डर के साथ विराजमान हो गई|

जैसे ही घर के अनुज पुत्र ने उनके पाँव में सुशोभित अलता का रंग देखा तथा उनके सर की ओढ़नी देखी वह क्रोध से लाल हो गया| अपने एक हाथ में दूल्हा-दुल्हन को क्रोध में उठा कर घर के बाहर बाड़ी में फेंक दिया| चारों राजकुमारियाँ उनकी माताएँ और दादीसा सभी लोग उनका गुस्सा शांत करने के लिए एक ओर दौड़े|

जब तक सभी वहाँ पहुँचते चारों राजकुमारियों के समक्ष, दूल्हा-दुल्हन के साथ प्रत्येक उस वस्तु को जला दिया गया था जो शहज़ादियों को अभला बनने की ओर प्रेरित करता | चारों यह समझने में असमर्थ थी यह कार्य क्यों किया जा रहा है इसके पीछे का उद्देश्य क्या है? उनके आग की लपटों में लिपटी गुड़ियों के साथ उनके कोमल गालों से फूँ-फूँ करते अश्रुओं की धारा निकल पड़ी| कदाचित अभी तक क्रोध और सीख की ज्वाला शांत नहीं हुई| अनुज पुत्र अपनी चारों राजकुमारियों का हाथ पकड़ कर गाँव के कुए पर ले गया और वहाँ अपनी पुत्रियों को लगे हुए आलता को पूर्ण रूप से मिटाने का आदेश दिया| ऐसा नहीं है कि किसी ने रोकने की चेष्टा नहीं की परन्तु अनुज पुत्र के लिए अपनी पुत्रियों की सोच और शिक्षा के मध्य किसी का हस्तक्षेप मान्य नहीं था| प्रत्येक गाँव वासी जो विवाह के खेल में उपस्थित थे वह भी इस सीख का हिस्सा बन रहें थे, परन्तु भौतिक रूप से किसी ने भी इस खेल की सीख से कुछ नहीं सीखा| सब अपने घर की ओर प्रस्थान कर चुके थे तथा अनुज पुत्र ने अपनी माँ, भाभी और अर्धांगिनी से विनम्र निवेदन किया कि वह घर चली जाए| अभी भी वह बालिकाएँ चढ़े आलता के रंग के साथ उस सोच को भी मिटा रही थी जो कहती है कि तुम लड़की हो इसलिए कुशल गृहणी बनना तुम्हारा धर्म है|

पिता चाहे कितना भी सख्त क्यों ना हो, वह ज़्यादा देर अपनी सुताओं से क्रोधित नहीं रह सकता| अनुज पुत्र ने अपनी चारों राजदुलारियों को अपने पास बुलाया और उन्हें दुलारते-पुचकारते हुए वह बोले, "राजकुमारियाँ रोती नहीं हैं, वह शाशन करती हैं सबके दिलों पे"|

भले ही यह वाक्य उन्हें ना समझ में आया हो परन्तु आपको और मुझे अवश्य समझ में आये होंगे|

बालपन से ही माता-पिता अपनी संतानों के मन एवं मस्तिष्क में एक सोच टांकते है जो उनका आने वाला भविष्य तय करती है वह सोच होती है संतान कि सीमाओं की, उनकी मर्यादाओं की, समाज में उनके दायरों की| यह सोच ठीक उसी प्रकार टांकी जाती है जिस प्रकार एक कारीगर महलों की दिवारों में जीविका टांकता है जिसमें यह स्पष्ट रहता है कि दिवारें टूट सकती हैं परन्तु वह आख्यािका नहीं मिट सकती है, जिस प्रकार एक सोच विकसित होने के उपरांत अस्तित्व तो खंडित हो सकता परन्तु सोच ना मिट सकती है और ना ही परिवर्तित की जा सकती है|

घर के अनुज पुत्र लखन ने घर की सुताओं के प्रज्ञा के कोनो में एक सोच टांकी दी थी| उनका यह मानना था कि स्वयं को समाज में स्थापित करने हेतु तथा उच्चकोटि की जीवन शैली अपनाने हेतु, पुत्रियों को अपने लक्ष्य पे एकाग्र होना चाहिए, उन्हें निडर, साहस, सत्य और कर्म जैसे विशिष्ट तत्वों का पालन करना चाहिए| वह चारों बेटियाँ आम बालाओं की तरह श्रृंगार को अपना अस्त्र नहीं बना सकती, अश्रु धारा को अपना शस्त्र नहीं बना सकती, वह एक कपड़े की थान में स्वयं को नहीं बांध सकती|

कदाचित गुरु को संदेह था कि स्त्री के गुणों में ढलने के पश्चात वे चारों स्वयं को समाज में स्थापित करने हेतु असमर्थ हो जाएगी, उनका यह सोचना था कि श्रृंगार करना, आईने में खुद को सवारना, केशों के साथ खेलना, प्रत्येक झड़पी पर रो देना, गलत लगने पर भी मौन रहना, उन्हें निर्बल बना देगा| स्त्री के समाज द्वार स्थापित किए गए गुण उन्हें उनके लक्ष्य से भटका देंगे, इसलिए वह नहीं चाहतें थे कि उनकी पुत्रियों में एक भी ऐसे गुण आने चाहिए जिससे वह किसी प्रकार की मिथ्या को आलिंगन में भर ले|

समय का पहिया एक बार फिर घूमता है और एक मुसाफ़िर हॉले से आ कर बोलता है वह पल आया है जिसमें तुम्हें और तुम्हारी सुता दोनों को दुविधा के टीले पर चढ़ाई करनी होगी| रेत का वह टीला जिस पर चढ़ कर फतेह हांसिल करनी होगी, जो दिखने में जितना आसान है करने में उतना ही कठिन| आज वह हवेली दुल्हन की तरह सजी थी और साथ ही में उसमें विराजमान थी इस घर की सबसे जेष्ट दुहिता वह भी ठीक उसी रूप में जिस रूप में उसकी गुड़ियाँ एक दिन सजी थी| ना जाने कितने प्रश्न उसके मन में पनप रहे थे, उसके मन के साथ साथ किसी के मन में उनसे ज़्यादा प्रश्न उमड़ रहे थे|

विवाह एक वो समय है जिस समय जितनी दुविधा में एक पुत्री होती है उतनी ही दुविधा में एक पिता होता है| खुशियाँ अपार थी परन्तु मन में दुविधा थी कि आवश्यक क्या है विवाह कर पति के घर को सवारना या फिर आपने घर की ज़िम्मेदारी उठाना?

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