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"डॉक्टर भाईसाब, डॉक्टर भाईसाब!"
अरे कौन परेशान करने आ गया अभी तो आँख लगी थी|
"डॉक्टर भाईसाब, किबाड़ खोलो...कोई तो किबाड़ खोलो|"
मेरे झक्की सी खुली कि इतनी व्यथित स्वर किसका है ऐसा जान पड़ता है कि कोई जाना पहचाना है, मेरा जी जैसे शिथिल हो गया कि ना जाने क्या हुआ है|
मैं उस्निदा सा अपने घर के मुख्य किबाड़ के पास पहुँचा, मैंने अपनी आँखों पर ज़ोर लगाया, चारों तरफ घना अँधेरा छाया हुआ है ऐसा लगता है बिजली नहीं है| अब यह नई आफ़त क्या है? मैंने लालटेन कहाँ रखी दी थी? गृहस्वामिनी जी पीहर क्या चली जाती हैं, मैं तो आधा सिर्री हो जाता हूँ | इतने में पुनः आवाज़ आई," डॉक्टर भाई साहब..डॉ भाई साहब|" मैंने झटपट लालटेन को अकोटे पर टाँग कर साँकर खोली दी|
लालटेन की मद्दी रोशनी में देखा तो अपने ज़मींदार लाखन चाचा चिंतित अवस्था में खड़े थे, मैंने उद्विग्न भाव से उनके मुँह की तरफ देखा जिस पर गहरी चिंता की झुर्रियाँ साफ झलक रही थी| समय देखा तो रात के सवा बारह बजे थे|
लाखन चाचा ने विवर्णमुख और विस्फारित नेत्रों से बताया, "आज रात्रि को फिर उपद्रव मच गया है निशा को पुनः दर्द उठा है| इसलिए बिना बेरा कुबेरा देखे तुम्हें बुलाने चले आए|"
मैंने संकोच के साथ कहा, "क्या साँस लेने में तकलीफ है?"
प्रत्युत्तर में लाखन चाचा मुरझाते हुए बोले, "हाँ, तनिक शीघ्र चलो|"
उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा तथा इशारे में चलने को कहा ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार एक बालक अनजान के पास पहुँच घर लौटने की ज़िद करता है| उनकी पकड़ में बेबसी थी, उन्होंने आशावादी दृष्टि से मेरी ओर देखते हुए कहा, "तनिक शीघ्र करें|" उनकी इस अवस्था ने मुझे असहज कर दिया|
अपना सामान उठा मैं उनके साथ हो लिया| वैसे मैं अक्सर उन रास्तों पर चलता हूँ जो यामिनी के घने अँधकार में डूबे रहते हैं जिनकी नीरवता मन को दहला देती है| आज रास्ते की धूल में मेरे पैर उलझ रहे थे, परन्तु बेबसी में मेरा मन मंजिल की ओर बढ़ रहा था। लाखन चाचा की बेटी निशा की मुस्कराहट मेरी आँखों में ऐसी बसी हुई थी, जैसे कि एक फूल की पंखुड़ियाँ हवा में तैर रही थी | समय की धारा में मैं बहता जा रहा था, लेकिन निशा के लिए लाखन चाचा की चिंता मेरे दिल को दबोचे हुए थी|
आज मार्गशीष की आखिरी रात है, जब सर्द हवाएं धीरे-धीरे भूमि पर फैल रही हैं, आसमान में घने बदरा हो आए हैं, जैसे किसी बालक की कल्पना की उड़ान हो | रात का अंधकार, तुषार हवा और एक अजीब सा सन्नाटा, जो तुषार के आगमन की घोषणा कर रहे थे| लाखन चाचा के घर के बाहर का माहौल भी कुछ इसी तरह का था| बखरी के सिद्ध में अटाई में मिट्टी के तेल की छोटी से ढ़िबरी धीरे-धीरे जल रही थी जिससे मद्धम रोशनी पूरी बखरी में फैल रही थी|
अटाई में पसरा गहरा सन्नाटा पूर्व ही एक शोक की घोषणा कर रहा था| बगल में अम्मा और चाची बैठी थीं, जिनकी आँखों की चिंता एक दर्दनाक याद की छाया सी प्रतीत हो रही थी | उनके चेहरे पर पड़ी परवशता और निराशा उनकी आँखों में छुपी पीड़ा को रह रह कर उभार रही थी|
वही खाट पर निशा लेटी हुई थी, जो दर्द में कराह रही थी और उसकी आँखों के आँसू एक फूल की पंखुड़ियाँ कि भांति वृष्टि में भीगी हुई थी, उसकी साँसों में एक गहरा दीर्घ नि:श्वास था| मैंने उसे पीड़ा से राहत के लिए दवाई दी, जिससे उसे तनिक आराम मिल गया तथा नशा होने के कारण वह थोड़ी सो सी गई। उसकी साँसें धीमी और शांत हो गईं उसके साथ ही कमरे में शांति और सुकून का माहौल बन गया, जैसे कि एक शांत नदी के किनारे पर प्रकृति का सौंदर्य लहरहा रहा हो|
मैंने लाखन चाचा को सलाह दी कि भोर होते ही उन्हें शहर ले जाना चाहिए। यहाँ के अस्पताल में उपकरणों की कमी के कारण इलाज की उम्मीद धूमिल हो जाती है। चाचा का चेहरा अचानक से उदास और निराश हो गया, यह बात सुनकर उन्हें गहरा आघात लग गया| उनकी आँखें नीचे झुक गईं, और वे कुछ पलों के लिए चुपचाप बैठे रहे, जैसे वे अपने यादों की गहराइयों में डूबे हुए हों।
उनके चेहरे पर व्यथा की छाया पड़ रही थी जैसे नाविक की नाव जो तूफान में फंस गई हो, और अब आज उसके पास कोई रास्ता नहीं उस नईया को पार लगाने का |
अम्मा ने उन्हें धीरज दिलाते हुए कहा, "बेटा, सब ठीक हो जाएगा। तुम चिंता मत करो"| लाखन चाचा के चेहरे पर एक विडंबनापूर्ण मुस्कराहट आई, उनकी आँखों में एक गहरी उदासी और चिंता आई।
वह ठिठकते हुए हँसे और बोले, "सच अम्मा, सब ठीक हो जाएगा।" लेकिन उनकी आवाज में कमजोरी और लाचारी थी, जो उनकी भावनाओं को दर्शाती रही रही|
निशा हल्की सी सुटपटाई और चाचा ने उसके माथे को सहलाते हुए बोला, "बेटा, ज्यादा दर्द है क्या निशा?" लेकिन निशा कोई उत्तर नहीं दे सकी, वह उत्तर देती भी तो कैसे क्योंकि वह दवा के कारण बेहोश थी। वह बेहोशी में बार बार बुदबूदाती और उसकी साँसें तेज होतीं जाती।
उसकी ऐसी हालत देखकर लाखन चाचा का हृदय बिलक उठा। चाची उसके पाँव दबाने लगी कि कदाचित तनिक आराम मिले और वह सो जाए। चाची चिंता में बोली, "भाई साहब, उसे साँझ से ज्वर आया और बोली माँ बदन पिराता है... बस मैंने दवा दी तो तनिक साजी लगी बस ना जाने अब क्या हुआ...? पिछले तीन वर्ष से यही होता है, कोई मर्ज़ पकड़ नहीं आता, बस स्वतः ऐसे हो जाती है|"
मैंने दिलासा देते हुए कहा, " वो ठीक हो जाएगी| आप व्याकुल ना हों|"
लाखन चाचा की आँखों से अश्रुओं का सैलाब उमड़ आया जैसे किसी सरिता का बांध आज टूट गया हो। उनके स्वर आत्म-ग्लानि और विषाद में बिखर रहे थे| वह बोले, "पता है डॉक्टर भाई साहब, आज ऐसा लगता है कि मेरे कर्मों की बिवाई है।"
उनका यह आद्योपांत विवरण मेरे लिए जीवन का जटिल प्रश्न बन गया तथा मैं उसे समझने में असमर्थ रहा| वह मेरे प्रश्न रूपी भाव को भाँप गए और मुझे देखते हुए बोले, "सच ही तो कहा, आप ऐसे क्यों देख रहे हैं? लल्ला जैसा तपस्वी मिलना बड़ा कठिन है किन्तु तब मेरा अनैसर्भिक भाव मेरी युवा अवस्था से कई अधिक था जिस कारण मैं रसाधिक्य में कदम ना रख सका|"
वह श्रद्धा भाव से बोले, "आप नहीं जानते होंगे उन्हें| वह डॉक्टर दादा के घनिष्ट प्रियजन थे। लल्ला, उदार कलाविधि में निपुण थे और त्याग संभाषण तो जैसे उन्हें शाष्टांग प्रणाम करता हुआ घर की देहरी से जाता था|
उन्होंने अपने वात्सल्य भाव और ममत्व से मुझे और मेरे बड़े भाईसाहब को बाँध लिया था। उन्होंने अपनी एकलौती पुत्री से अधिक दुलार किया। बालपन में उनका संरक्षण हम दोनों के जीवन में उन्नति का करण बनता, वही हमारा लालन पालन करते| उनका समर्थन हमें पढ़ाई के लिए प्रोत्साहित कर नए गंतव्य के लिए सज करता।
मेरे बाबूजी घर के सबसे छोटे पुत्र थे और परिवार बड़ा था इसलिए मेरे और भाई साहब के हिस्से में सदैव सब कुछ रूखा सूखा ही आता था। ऐसा प्रतीत होता कि कोई पूछने वाला भी नहीं है बाबू जी अक्सर नौकरी के कारण गाँव से बाहर रहते थे तो हमें समय भी नहीं दे पाते थे जब भी आते तब हमनें उनका झुकाव परिवार की अन्य संतानों पर अधिक पाया|
यह लल्ला की अनुकम्पा ही थी कि हमें अधिकार के लिए लड़ना नहीं पड़ा यदापि उनका कोई दाइत्व नहीं बनता था हम लोगों के प्रति फिर भी परिवार के लिए उनकी सहजता और कर्तव्यनिष्ठा हम लोगों के प्रति उन्हें समर्पित कर देता|
हम लोग के प्रति उनका सेवाभाव और त्याग उनके महानुभाव चरित्र के दर्शन करवाता | उनके सह्रदय ने हमें सदैव के लिए उनका ऋणी कर दिया उन्होंने अपनी पुत्री का अधिकार भी हमें दे दिया या यूँ कहें हम दोनों से अधिक यह कहना बेहतर होगा कि वह मुझे दे दिया, वह मुझे विशेष रूप से स्नेह करते थे| बचपन की स्मृतियाँ मेरे मन में आज भी ताज़ा हैं। जब वह बाज़ार जाते थे, तो मेरे लिए सदैव कलाकंद, रबड़ी और अन्य सामग्री खाने को ले आते थे| उनके दुलार और स्नेह ने मेरे बचपन को खुशनुमा बना दिया था।
वह हमारे लिए परित्यक्त हो गए, वह हमारे साथ रहते थे क्योंकि उन्हें भय था कि कुछ आपसी मतभेद के कारण कहीं परिवार कुछ अनहोनी ना कर बैठे फिर हमें उसकी पीड़ा अजीवन भोगनी पड़े|"
लाखन चाचा की बातों ने मुझे कुछ सहम दिया| मैंने पास में जल रही ढ़िबरी की लौ बड़ा दी जिससे वहाँ का तापमान तनिक गर्म हो जाए | वह मुझे देखते हुए पुनः बोले, "डॉ साहब, लल्ला हम लोग के प्रति समर्पित थे|
उसके पश्चात लगभग कुछ दिन बाद मुझे ज्वर आने लगा, मरने की नौबत आ गई| बचने की कोई उम्मीद ना दिखाई देती थी, बीमारी के समय लल्ला ने दिन-रात एक क्षण भी विश्राम नहीं किया| उस समय बाबू जी का तबादला तालबेट हो गया था| मनुष्य की सामान्य ऊर्जा के सहारे प्रण से व्याकुलता के साथ द्वार पर आए हुए यमदूतों से निर्बाध युद्ध किया| अपने सम्पूर्ण स्नेह, समस्त ह्रदय, सेवा भाव से उन्होंने मेरी सेवा की| यम तो हारे हुए व्याघ्र के समान मुझे छोड़ कर चले गये|
उसके पश्चात जब बारह का नतीजा मेरे हक में ना आया, तब बाबूजी के क्रोध का ज्वालामुखी फट पड़ा और उन्होंने मेरी पढ़ाई बंद करने का फैसला ले लिया तथा जब बात ना बनी तो खर्चा देने से सिरे से इंकार कर दिया उन्हें मेरी तबियत एक काल्पनिक किस्सा लगी|
एक दिवस, लल्ला ने मेरे जीवन की सारी परेशानियों को एक ही झटके में दूर कर दिया। उन्होंने मुझे माह की फीस दे दी, और मेरे चेहरे पर एक नई उमंग की लहर दौड़ गई। लेकिन जब मेरे पिताजी को ख़बर मिली तो उन्होंने मेरी खूब खातिरदारी की| लल्ला ने उन्हें कड़ी फटकार लगाई और फिर मेरी पढ़ाई को पूरा करने के लिए, उन्होंने मुझे शहर भेज दिया, जहाँ मेरे रहने का इंतजाम किया गया था। तब तक, मेरे भाई साहब की सरकारी नौकरी लग गई थी, और वे मेरी पढ़ाई का खर्चा उठाने लगे थे। लेकिन रोजमर्रा का खर्चा लल्ला ही देखते थे।
एक दिन, जब भाई साहब छुट्टी पर आए, तो खानदान के ज्येष्ठ पुत्र ने उनके लिए मारिया लगवा दिए। खदाचित उनकी नौकरी हो गई थी, जिस वजह से सब उनसे ईर्ष्या करने लगे थे। जब भाई साहब ने सबकी अच्छी खबर ली और सच सामने आया, तो पिताजी ने कोई खास प्रतिक्रिया ना करता देखकर लल्ला थोड़े डर गए। उन्होंने एक अहम निर्णय लिया और अपनी पूर्ण संपत्ति मेरे और भाई साहब के नाम कर दी।
भाई साहब की सरकारी नौकरी थी, तो उन्होंने खेती में कुछ अधिक रुचि ना दिखाई। सो वो भी मेरी हो गई। आपने वो कहावत तो सुन ही होगी, "कनक कनक ते सौ गुने पाए तो बहुराए और ना पाए तो बहुराए" फिर क्या था? मैं सिररिया गया। करोड़ों की जमीन के आगे मेरी बुद्धि और विवेक जैसे सब शून्य हो गए।
इस बात को लगभग चार वर्ष बीत गया, और मुझे इस दौरान पता ही नहीं चला कि मैं कब उनका सम्मान करने की जगह उनका अपमान करने लगा, उनके त्याग समर्पण की सराहना करने की जगह, उनकी अवहेलना करने लगा। मैं कब अपनी पढ़ाई का घमंड उन्हें दिखाकर उन्हें गलत साबित करके मौन करवाने लगा? पता ही नहीं चला कि मैं कब उनकी दी हुई जमीन पर उन्हीं को रोब दिखाने लगा और सच बेवफाई तो मैंने उस दिन कर दी जिस दिन उन्हें मेरी सबसे ज्यादा आवश्यकता थी।
कुछ दिन पूर्व, जब मैं शहर से आया, तो मैंने देखा कि लल्ला अचेत अवस्था में दालान में खाट पर सो रहे थे। उनकी आँखें बंद थीं, और उनकी साँसें धीमी और गहरी थीं। मैंने उनके पास जाकर उन्हें पुकारा, लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। पूछने पर पता चला कि कुछ दिन से उन्हें ज्वर आ रहा है, और यहाँ के अस्पताल से वे दवाई ले रहे हैं पर कोई सुधार नहीं है। मैंने उनकी अवस्था में कोई भी खास रुचि नहीं दिखाई, मुझे लगा मामूली सा ज्वर है, जाते जाते चला ही जाएगा। लेकिन मेरे मन में एक अजीब सी अनुभूति हुई, जैसे कि मैं कुछ महत्वपूर्ण चूक रहा हूँ परन्तु मेरी बदअकली ने सारी मर्यादा तोड़ दी|
मुझे लगा कि आयुर्वेद की दवाइयाँ देर से असर दिखाती हैं| इसलिए, जब मैंने लल्ला को ज्वर से पीड़ित देखा, तो मुझे लगा कि यह एक मामूली बीमारी है, जो जल्द ही ठीक हो जाएगी। लेकिन, मेरे पिताजी ने मुझे कई बार कहा कि मैं लल्ला को शहर दिखा लाऊँ, ताकि वे जल्दी ठीक हो जाएँ। लेकिन, मैंने उनकी बात को नजरअंदाज कर दिया और अपने कामों में व्यस्त हो गया।
लल्ला दर्द में कराहते रहते थे, और मैं उनकी बीमारी की परवाह नहीं करता था। लेकिन, आज जब मैं अपने अतीत को याद करता हूँ, तो मुझे अपने उन निर्णयों का पछतावा होता है, जो मैंने लल्ला के साथ किए थे। मैंने अपने जीवन में कई बेवकूफियाँ की हैं, लेकिन लल्ला ने मेरी हर गलती को नादानी समझकर माफ कर दिया। लेकिन उस दिन, मैं उनके साथ इतनी बेरहमी से पेश आया|
वकील चाचा लल्ला के छोटे भाई थे, उनकी आँखों में एक अनोखी चमक थी, जब उन्होंने मुझे अपनी जमीन देने की पेशकश की। वह मुझे अपनी फसल दिखाने के लिए ले गए, और मैंने उनकी जमीन की उर्वरता को देखा। उन्होंने कहा, 'तुम मेरी जमीन पर खेती कर सकते हो, और सालाना मुझे कुछ रुपये दे सकते हो।'
मैं इस प्रस्ताव से सहमत हो गया, और उन्होंने मुझे अपनी जमीन दे दी। लेकिन मेरे पिताजी इस फैसले से नाराज थे। वह चाहते थे कि मैं वकालत शुरू करूँ और सरकारी नौकरी प्राप्त करूँ। लेकिन मैंने उनकी बात नहीं मानी।
उसी समय, वकील चाचा ने मुझसे कहा कि उन्हें शहर तक ले जाने में मदद करूँ। मैंने तय किया कि मैं अपनी दो पहिया वाहन से उन्हें शहर ले जाऊँगा। उस भीषण मेघ में माया अपना आँचल फैलाये मुझे घेर रही थी, और मैं सही रास्ते से भटक उसकी तरफ खींचा चला जा रहा था।
संध्या की धुंधलाई में, लल्ला की तबियत अचानक खराब हो गई। उनकी आँखें दर्द से भर गईं, और उनकी साँसें तेज हो गईं। उन्होंने मुझसे कहा, 'बेटा, मेरी तबियत बहुत खराब हो रही है। दर्द भी बहुत बढ़ रहा है। आयुर्वेद की दवा से कोई आराम नहीं मिल रहा है। चलो शहर दिखा लाओ मुझे, आज मैं बिलकुल भी स्वस्थ नहीं महसूस कर रहा हूँ।'
लेकिन मैंने उनकी बात को अनसुना कर दिया, और कहा, 'आज नहीं, कल चलेंगे।' उसी समय, उनकी बेटी के ससुराल से कुछ लोग आए, और उन्होंने बताया कि बेटी के घर में हाय-तौबा मच गया है। जमीन को लेकर कुछ कहासुनी हो गई, और उनकी पुत्री ने उन्हें अपना पिता मानने से मना कर दिया।
यह बात लल्ला को बहुत बुरी लगी, और उन्हें लगा कि उनकी अपनी ही पुत्री ने उन्हें धोखा दिया है। वहीं उन्हें पता चला कि अब उनके पास कोई सम्पति शेष नहीं रही। क्योंकि उनकी बीमारी के चलते, उनकी पुत्री मैदा ने दूसरे गाँव की पूरी सम्पति धोखे से अपने नाम करवा ली थी। यह दर्द और धोखा उनके लिए बहुत बड़ा था, जिसे वे सहन नहीं कर सके।
अगले दिन, लल्ला ने मुझसे फिर से कहा, 'बेटा, चलो मुझे दिखा लाओ। मैं अब और नहीं रुक सकता, मुझे शहर जाना है और डॉक्टर को दिखाना है। मेरी तबियत बहुत खराब हो रही है, मुझे लगता है कि मेरे पास समय कम है।' उनकी आवाज में दर्द और अनुरोध था, जिसे मैं नजरअंदाज करता चला गया।
दूसरे दिन से करीबन एक हफ्ता हो गया, लल्ला मुझसे रोज कहते रहे कि मैं उन्हें शहर ले जाऊँ, लेकिन मैं उन्हें रोज किसी ना किसी बहाने से मना करता रहा। मैं उनकी तबियत को जानते हुए भी उनकी बात नहीं मान रहा था, जिसका मुझे आज भी पछतावा है।
उसी दिन, वकील चाचा ने मुझसे कहा, 'मुझे शहर जाना है, मेरी कोर्ट में एक केस चल रहा है जिसका आज निर्णय है। मैं बहुत जरूरी मामले में शहर जाना चाहता हूँ, तुम मुझे ले जाओगे।' लेकिन मैंने फिर से उन्हें मना कर दिया, 'चाचा, मैं आज खेती का काम नहीं छोड़ सकता, फसलों को दवाई का छिड़काव करना है।'
वकील चाचा ने मुझे समझाया, 'बेटा, मेरा केस बहुत महत्वपूर्ण है, मैं आज ही शहर जाना चाहता हूँ। तुम मुझे ले जाओगे, मैं तुम्हारा एहसान कभी नहीं भूलूंगा।' लेकिन मैंने उनकी बात नहीं मानी।
उस दिन, वकील चाचा ने लल्ला को कहा कि वह मुझे खेती बटिया पे देने के अपने निर्णय पर अड़े रहेंगे, क्योंकि मैंने उनसे खुद यह बात पूछी थी और उन्होंने मुझे हाँ कर दिया था। लेकिन मैंने उनकी बात नहीं मानी, और लल्ला के साथ अनबन हो गई।
मेरी मति पर ऐसा भार हो गया था कि मैं उन्हें शहर नहीं ले गया। मैंने उन्हें उलटे-सीधे शब्द कहकर, 'लल्ला कौनसी तुम्हारी इतनी तबियत खराब जों आज नहीं गए तो कुछ हों जायेगा, तुम्हें कल ले चलूँगा' जैसे अवहेलना जनक शब्दों का प्रयोग कर उनका अपमान किया। यह मेरी सबसे बड़ी भूल थी, जिसे मैं आज भी पछताता हूँ।
उस समय, मैं अपनी जिद और लापरवाही के कारण लल्ला की तबियत की परवाह नहीं की, और उनकी बात को अनसुना कर दिया। लेकिन आज, जब मैं अपने अतीत को याद करता हूँ, तो मुझे एहसास होता है कि मैंने अपने पिता तुल्य चाचा के साथ बहुत बड़ा अन्याय किया है।
मेरी यह लापरवाही और अवहेलना उनके लिए एक गहरा आघात थी, जिसे वे सहन नहीं कर सके। लल्ला मेरे और भाई साहब के लिए मेरे पिता से भी बढ़कर थे, ईश्वर थे। उन्होंने हमारे लिए जो कुछ भी किया, वह मेरे पिता ने भी नहीं किया।
लेकिन मेरा व्यवहार उन्हें इतना आघात कर गया कि उनकी तबियत और भी खराब हो गई। मैंने उनकी भावनाओं को समझने की कोशिश नहीं की, और उनकी बात को अनसुना कर दिया। यह मेरी सबसे बड़ी भूल थी, जिसे मैं कभी नहीं भूल सकता।
आज, जब मैं अपने अतीत को याद करता हूँ, तो मुझे लगता है कि मैंने लल्ला के साथ बहुत बड़ा अन्याय किया है। मैंने उनकी भावनाओं को समझने की कोशिश नहीं की, और उनकी बात को अनसुना कर दिया। यह मेरी सबसे बड़ी त्रासदी है, जिसे मैं कभी नहीं भूल सकता।
मैंने उनकी आँखों में देखा, उनकी भावनाओं को समझने की कोशिश की, लेकिन मैंने उनकी तबियत की परवाह नहीं की। मैंने उनकी बात को अनसुना कर दिया, और उनके प्रति अपना कर्तव्य नहीं निभाया। मैंने उनके साथ अन्याय किया, और आज मुझे इसका पछतावा है।
मैं सोचता हूँ, क्या मैंने उनके प्रति अपना फर्ज निभाया? क्या मैंने उनकी भावनाओं को समझने की कोशिश की? नहीं, मैंने उनके साथ अन्याय किया, और आज मुझे इसका परिणाम भुगतना पड़ रहा है।
मेरी पुत्री की बीमारी मेरे पाप का परिणाम है, मेरे द्वारा किए गए अन्याय का फल। मैंने लल्ला के साथ जो किया, उसका परिणाम मुझे आज भी भुगतना पड़ रहा है।
मैं सोचता हूँ, क्या मैंने अपने जीवन में कुछ भी सीखा? क्या मैंने अपने अनुभवों से कुछ भी हासिल किया? नहीं, मैंने अपने जीवन में केवल अन्याय किया, और आज मुझे इसका पछतावा है।
उस दिन शहर से लौटने में रात हो गई| आकर देखा तो लल्ला कुछ अचेत अवस्था में अपनी खाट पर औंधे पड़े हुए थे। जब मैंने उन्हें पलट कर देखा, तो उनके मुँह से झाग निकल रहा था, गला रुंध रहा था, आँखे की पुतलियाँ ऊपर भाग रही थी।
तभी पिताजी को सूचित कराया और डॉक्टर दादा को बुलवाया|
डॉक्टर दादा आकर पहले तो बहुत देर तक कुछ समझ नहीं पाए फिर आखिर में नवज़ की जाँच पड़ताल के बाद बताया कि उन्होंने दवाई पी ली|
मैं अर्द्धमूर्छित सा धम से वहीं बैठ गया|
जिस प्रकार मालिक अपने घोड़े को चाबुक मारता है ठीक उसी प्रकार उनकी निगाहें मुझे चाबुक मार रही थीं|
जब तक बाबूजी वापस लौटे तो जीवन के साथ साथ लल्ला सारी यातनाओं का भी अवसान हो गया|
लाखन चाचा फिर गढ़ई से पानी पीकर कहने लगे, "ओह! लगता है इस बार बहुत तुषार पड़ेगी|"
यह कहते हुए वह वहीं बखरी में इधर-उधर घूमने लगे और पुनः आ कर बैठ गए| अम्मा और चाची भी नीचे दरी बिछा कर सो सी गई |
यह स्पष्ट हो गया, वे कहना नहीं चाहते थे मगर मानो वहाँ एक अलौकिक छाया थी जो उनसे सब बुलवा रही थी| उन्होंने फिर कहना शुरू किया -
"कुछ माह पश्चात जब मैं फसल की पहली रक्म ले कर लौट ही रहा था कि उसी वक़्त अँधेरे में बबूल के पेड़ पर जैसे ज्वाला उठी हो ; उसके बाद कृष्ण पक्ष के चाँद ने पेड़ों के ऊपर आकाश में आरोहण किया। चाँद की रोशनी में पेड़ों की छायाएँ डरावनी और भयानक लग रही थीं।
मैं हिम्मत बाँध खेत के पास जा पहुँचा, वहाँ सफ़ेद कुर्ता और धोती पहने कोई बैठा था। उसका चेहरा कुछ साफ नहीं दिख रहा था। उसने मुझे देख कर आवाज़ लगाई - "बेटा... बेटा....अरे! मेरा कलेजे का टुकड़ा... बेटा.."
उसकी आवाज़ में एक अजीब सी गहराई ने मेरे दिल को दहला दिया। मुझे मेरी ओर जैसे लल्ला आते दिखे, मैं सकबका गया और सब कुछ वहीं छोड़ कर घर भाग आया। मेरे पैरों में जैसे जान ही नहीं थी, और मेरा दिल रह रह कर तेज़ी से धड़क रहा था।
जब मैं घर पहुँचा, तो मैंने देखा कि मेरे घर के दरवाजे खुले हुए हैं । मुझे मेरे पीछे कोई नहीं दिखा लेकिन एक अजीब सी गंध ने मेरा पीछा किया, जो मुझे लल्ला की याद दिला रही थी उस समय मैं घर के भीतर का जा सका| कुछ समय बाद घर आया तो पता चला कि मैदा की संतान अब इस दुनिया में हो कर भी नहीं है उसे ना जाने क्या हो गया, पागल हो गया, कलेवर भी मिट्टी का हो गया| कुछ भी पता नहीं चला कि उसे क्या हुआ|
यह बहुत अचम्बे कि बात है लल्ला को गए सिर्फ 3 माह ही तो हुए थे|
पूरा गाँव कहने लगा पिता से गद्दारी का नतीजा है मैं भय से विस्फारित हो गया और निशा को अपने पास बुला पितृ बंधन करवा दिया| पंद्रह वर्ष तक मेरे साथ फिर कभी ऐसी घटना ना घटी|
ठीक पंद्रह वर्ष बाद पिता जी व्योम की ओर चले गए| उनके जाने का मुझे कुछ अधिक दुःख नहीं हुआ क्योंकि वह भाईसाहब की पुत्रियों पर अधिक मोह लुटाते थे| लल्ला के जाने के बाद मैं उनके लिए पराया हो गया वह भाई साहब के परिवार में पूर्ण रूप से रम गए थे, उन्हें मेरे परिवार की कोई चिंता ना सताती थी जिस कारण मैं भाई साहब से स्वतः ही दूर जाने लगा |
एक दिवस मैं अपने परिवार को भर्मण पर ले जाने के लिए सज हुआ जहाँ सूरज की पहली किरणें पहाड़ों की चोटियों पर पड़ती हैं, और वे सोने की तरह चमकने लगते हैं। हवा में पक्षियों के मधुर गीत गूंथते हैं, और पेड़ों की पत्तियाँ हल्की सी हवा में हिलती हैं।
परन्तु मेरे समक्ष सब कुछ बदलने लगा। बादल घिर आए, आकाश में एक गहरी छाया नज़र आने लगी, और पेड़ों की पत्तियाँ तेज़ गति से हिलने लगे | अचानक से एक भयानक तूफान आता प्रतीत हुआ, बिजली की कड़कड़ाहट, बारिश की बूंदें तेज़ गति से गिरने लगी, अचानक आकाश- व्यापी अंधकार को चीर कर फिर वही ध्वनि सुनाई पड़ी-
बेटा... बेटा....अरे! मेरा कलेजे का टुकड़ा... बेटा.. मैं भय से थर्रा गया|
उसी वक़्त उस जनमानव शून्य निसंग मरुभूमि में गंभीर स्वर में ना जाने कौन बोला, "बेटा... बेटा....अरे! मेरा कलेजे का टुकड़ा... बेटा.. "
मैं चौंक पड़ा, यह सिहर उठी और निशा मूर्छित हो कर गिर पड़ी | उसी वक़्त हम दोनों समझ गए कि यह शब्द किसी और के हो ही नहीं सकते |
भयवश हम दोनों घर आ गए और डॉक्टर को बुलाया उन्होंने कहा कि वह सुबह तक ठीक हो जाएगी| उस वक़्त अंधकार में ना जाने कौन मेरी खाट के पास खड़ा हो कर मानो मेरे माथे पर हाँथ फेरता हुआ बारम्बार कहने लगा, "बेटा... बेटा....अरे! मेरा कलेजे का टुकड़ा... बेटा.. "
मैंने शीघ्रता में बित्ती जलाई| उसी पल वह छाया मूर्ति विलीन हो गई| मेरी खाट को हिलाकर, मेरी पुत्री को देहला कर, मेरे कलेवर के रक्त को बर्फ कर के हाँ- मैं - हाँ -मैं- हाँ -मैं -हाँ- मैं -हाँ -मैं -हाँ- मैं - करते हुए नाद अंधकार पूर्ण रात्रि के विलुप्त होते चले गये|
बेतवा के पार करते हुए, इस भूमि को पार करते हुए क्षीण हो कर असीम दिशाओ की तरफ चले गए, धीरे धीरे वह मानो जन्म मरण से परे हो गए, इतने क्षीण स्वर मैंने पूर्व कभी नहीं सुने थे| अंत में जब नितांत असह्य हो गया तब मैंने सोचा ; बत्ती बुझाये बिना ना सो पाऊँगा| जैसे ही रोशने बुझाकर लेटा, वैसे ही मेरी खाट के पास मेरे कान के निकट, अँधेरे में वह अवरुद्ध स्वर फिर बोल उठा, "बेटा... बेटा....अरे! मेरा कलेजे का टुकड़ा... बेटा.. "
कहते हुए लाखन चाचा का रंग फीका पड़ गया, उनका गला रूँध गया। उनकी आँखें डरावनी और भयानक लग रही थीं, जैसे कि उन्हें कुछ दिखाई दे रहा था जो मुझे नहीं दिखाई दे रहा था।
मैंने उनको सहारा देते हुए कहा, "थोड़ा जल पी लीजिए|" लेकिन जैसे ही मैंने यह कहा, उसी वक़्त सहसा ढ़िबरी की बत्ती लुप लुप करती बुझ गई। कमरे में एक अजीब सी अंधेरी और डरावनी शांति छा गई।
चाचा की साँसें तेज़ हो गईं, और उनकी आँखें और भी डरावनी लगने लगीं। मैंने महसूस किया कि कमरे में कुछ अजीब और भयानक मौजूद है, जो हमें देख रहा है और हमारी हरकतों को नोट कर रहा है।
इस बात को तीन वर्ष बीत गए पर निशा की तबियत में कोई सुधार नहीं हुआ। वह अभी भी बिस्तर पर पड़ी हुई थी, और उसकी आँखें अभी भी डरावनी और भयानक लग रही थीं। मुझे लगता था कि वह कुछ देख रही है जो मुझे नहीं दिखाई दे रहा है, और वह कुछ महसूस कर रही है जो मुझे नहीं महसूस हो रहा है।
चाचा की आँखें भर आईं, और उनका गला रूँध गया। एक गहरी चिंता और फिक्र में उन्होंने कहा, "कभी-कभी ऐसे लगता है कि वो मेरी बात सुन सुन रहे होंगे, वो मेरी मुझे पीड़ा में यूँ देखकर बहुत दुखी होंगे या मुझे यूँ देख वह प्रसन्न होंगे।
मेरी पुत्री की तबियत खराब है, मैं नहीं जानता कि उसके साथ क्या हो रहा है| मैं तो यह तक नहीं जानता कि मैं उसके लिए क्या करूँ।"
लाखन चाचा लड़खड़ाते लड़खड़ाते आँगन में चले गए| मैं भी जाने को त्तपर हुआ कि अम्मा ने चाचा की बात का प्रतिउत्तर देते हुए कहा, " निशा की तबियत यूँ ही खराब नहीं होती, उसे अपने पिता के भय का भय सताता है पता नहीं ये ईश्वर की गति है या लल्ला का इक्षा।" उनकी आवाज़ में एक गहरी चिंता और फिक्र थी, जो उनके शब्दों से झलक रहा था।
सुबह की पहली किरण, जैसे एक सुनहरी पंखुड़ी खुलती है, आकाश में फैलती हुई। सन्नाटा की शांति धीरे-धीरे टूटने लगती है, जैसे एक सरोवर की सतह पर एक पत्थर फेंका जाता है।
मैं बाहर निकलता हूँ, और सूरज की पहली किरणें मेरी आंखों में चमकती हैं। बाहर का दृश्य एक सुंदर चित्र की तरह है, जिसमें सूरज की किरणें एक सुनहरी रंग की चादर बिछा रही हैं। सर्द हवाएं चलती हैं, जो मेरे चेहरे पर एक ठंडी और ताज़ी एहसास कराती हैं। लोग आने-जाने लगते हैं, जैसे एक नदी की धारा में पत्तियाँ तैरती हैं।
हफ्ते भर बाद मेरे पास ख़बर आई लाखन चाचा अभी तक घर नहीं आए हैं और फिर रात्रि में द्वार पर आहट हुई और किसी ने आवाज़ लगाते हुए कहा, "बेटा... बेटा|"