आश्विनी शुक्ल पक्ष का द्वितीया दिन था अर्थात तपश्चारिणी की आराधना का दिन था, परिवार जनों ने माँ ब्रह्मचारिणी की उपासना कर उनसे विनती की थी कि वह गृह की जेष्ठ सुता को भगवान शिव जैसा योग्य वर प्रदान करने की कृपा करें| लगभग चार से पाँच साल मशक्कत करने के बाद घर की बड़ी बेटी के लिए एक रिश्ता आया था जिसके स्वीकारे जाने की पूर्ण रूप से आशा थी, घर-वर दोनों ही निर्धारित समय अनुसार देखे जा चुके थे| अब इंतज़ार था तो पुत्री कि परीक्षा के परिणाम का, इतने व्याकुल तो परिवारजन तब भी नहीं हुए थे जब पुत्री के बारहवी का नतीजा आना था|

व्याकुलता में बार-बार एक दूसरे से एक ही सवाल करतें, "क्या वर पक्ष की तरफ से कोई समाचार आया?" तथा प्रत्येक बार ना सुन कर पुनः अपने कर्यो में लीन हो जाते| उनके मन में अभी भी यह भय था कि कहीं यह रिश्ता भी मना ना कर दिया जाए, अगर कर दिया गया तो पुनः ढूढ़ने, देखने तथा मिलने की प्रक्रिया शुरू करनी होगी|

जब समाज अपने पुत्र के लिए एक बहू का चयन करने जाता है तो वह लड़की का रंग-रूप, कद-काठी, गुण-अवगुण इत्यादि बातों पर गौर करता है करना भी चाहिए क्योंकि हमे बहू नामक पद के लिए योग्य कन्या चाहिए होती है| कहीं-कहीं तो यह भी प्रचलन में है कि लड़की के प्रत्येक गुणों पर प्रश्नचिन्ह लगाये जाएंगे, जिसे हम तिज़ारत दुनियाँ में गुणवत्ता परीक्षण के नाम से संबोधित करते हैं| हम उस लड़की के बारे में कुछ नहीं जानते परंतु उसे अपनी नजरों और समझ के अनुसार एक श्रेणी में डाल देना उचित समझते हैं क्योंकि हमें अधिक सरल कार्य यही लगता है,ना की उस देखे जाने वाली कन्या के विचार को समझना, उसके सपनों की उड़ान भरने में उसकी सहायता करना| हम सब ने स्त्रियों के लिए कुछ विशेष श्रेणियाँ बना ली है जिसके अनुसार समाज में बहु नामक पद के लिए सुता का चयन किया जाता है |

गुण एवं अवगुण की बात हम बाद में करेंगे, सर्वप्रथम वह चाँद का मुखड़ा होना चाहिए परंतु चाँद के समक्ष उसमें दाग नहीं होना चाहिए, मुखड़े के साथ-साथ उसकी देह भी सोने की तरह चमकनी चाहिए, उसकी घनी काली ज़ुल्फे होनी चाहिए, उसका अभिनेत्री जैसा कलेवर होना चाहिए, वह बोलती थोड़ी कम होनी चाहिए पर जब भी बोले मीठा बोलनी चाहिए, अधिक पढ़ी-लिखी नहीं होनी चाहिए जो अधिक पढ़-लिख लेती हैं उनका दिमाग सातवें आसमान पर होता है | इन भौतिक गुणों के अनुसार बहू का चयन किया जाता है, इन सभी विशिष्टताओँ के साथ पिता के पास अच्छी गाढ़ी रकम होनी चाहिए उस पद पे नियुक्त हेतू |

एक दिन गुज़र गया था जब परिवारजन अपनी पुत्री को दिखा कर घर वापस आये थे, अब सब यही सोच रहे थे कि अगर हाँ होती तो कोई एक सूचना तो मिल ही जाती| अब माँ ब्रह्मचारिणी की इतनी उपसना की गई थी तो तय था कि फल अच्छा ही होना है| वर पक्ष की तरफ से इस रिश्ते के लिए मंज़ूरी दी गई तथा यह रिश्ता तय किया गया, सबको सुकून भरी राहत मिली कि योग्य घर और वर दोनों ही मिल गए तथा उस रिश्ते को पक्का किया गया| 'बधाई हो' शब्द की गूंज से आँगन खिल गया, परन्तु बड़ी सुता का मुख नहीं| उसे आशा थी कि कोई तो आ कर पूछेगा की क्या यह तुम्हें मंज़ूर है और वह ना कर देगी| यह एक कल्पना ही रह गई, ना कोई आया और ना वह किसी के पास गई|

बचपन से ही हम अपनी पुत्रियों को अपनी पलकों की छाँव में रखते है वह माँ की लाड़ली होती है और पिता की शहज़ादी| जब वह पहली बार अपनी तोतली आवाज से माँ और बाबा बोलती हैं तब हमारा जी चाहता है कि हम उस पल को यहीं कैद कर ले, हम सभी प्रिय जनों को उत्साह और आनंद से बताते हैं कि आज प्रथम बार हमारी पुत्री ने माँ-बाबा बोला | कदाचित यह बात हमें आज तक स्मरण होगी कि वह कौन सा क्षण था जिस पल हमारी बेटी ने हमें माता पिता बनने की उपाधि दी|

हम भी कितने अजीब होते हैं उसकी इस छोटे सी उपलब्धि पर कितने ज्यादा खुश हो जाते हैं और जैसे ही वह धीरे-धीरे बड़ी होती जाती है हम उसकी उपलब्धियों को अनदेखा करने लगते हैं हमें लगता है वह कुछ अलग नहीं कर रही| समाज में सभी यह करतें है स्थापित होने के लिए, उच्च कोटि की शिक्षा प्राप्त करतें है, प्रथम क्षेणी से उत्तीर्ण होते है मेहनत करतें है सफल होते है| ज़रा आप चारों ओर नज़रे फेर कर देखिये क्या यही मेहनत वंश भी करतें है स्वयं को समाज में स्थापित करने के लिए या फिर आपके अंश को ही अपनी काबिलियत सिद्ध करनी पड़ती है, अपने मान-सम्मान ही दुहाई देनी पड़ती है?

काश यह कहानी काल्पनिक होती, तो कदाचित स्त्रियों की हालत और उनकी मनोस्तिथि काफी सुधरी और बदली हुई होती| हम सिर्फ वंश और अंश के दलदल में नहीं फंसे हैं इसके अतिरिक्त भी बहुत सारे छुपे दलदल है जिनमें हम फंसे हुए हैं| महिलाओं की दुविधा यह है कि वह जो सोचती है वह वो कर नहीं पाती, समाज क्या कहेगा का भय उन्हें सदैव सताता है कौन सी वह बात है जो समाज को मान्य होगी, कौन सी वह बात है जो समाज को अमान्य होगी, कौन सी वह बात है जो हमारे पिता को अच्छी नहीं लगेगी, कौन सी बात है जो हमारी माता को नहीं अच्छी लगेगी, इन सब में वह यह भूल ही जाती है कि कौन सी बात है जो मुझे स्वयं को अच्छी लगेगी|

वह अपने ही घर के लिए बिना किसी पुरुष की इजाज़त लिए कोई कार्य नहीं कर सकती, कदाचित यह शास्त्रों में कहीं वर्जित होगा, क्योंकि हमारा समाज शास्त्र, वेद, पुराण की परिभाषायों से परिचित है | क्यों बड़े होने पर हम उस पुत्री को उतना मान सम्मान नहीं देते, जितना बालपन में उसे प्रेम देते थे? क्यों उसे स्वयं के अस्तित्व के लिए प्रत्येक पल एक युद्ध लड़ना पड़ता है?

कोई भी रिश्ता बिना लेन-देन के सम्पन्न हुआ है, जो इस बार होता| सास ने अपने बेटे के लिए बहु के पिता से व्यापार किया और फिर वही बेटा-बहु, एक दिन माता पिता बनकर पुनः अपनी कुमारी के लिए उसी व्यापार के दलदल में सोचते समझते कूद जाते है, ताकि उस रकम के बदले वो अपनी बेटी के लिए ता उम्र की खुशियाँ खरीद सके| क्या इस रकम के बदले उसने अपने माता पिता के बीच कभी नाराज़गी नहीं देखी, या झगड़ा नहीं देखा या कभी दुखी नहीं देखा? क्या दहेज ने उनकी खुशियों पर मोहर लगा दिया? नहीं

क्या खुशियाँ पैसे और गहने की मोहताज होती है या हो सकती है? मैंने तो टप्पर छाए हुए घरों के बच्चों को भी अखबार की नाव से खेलते खुश देखा है | खैर, व्यापारी ने अपना दाम लगा दिया, उसने अपने बेटे के लिए दूसरे पक्ष की पच्चीस साल की पूरी कमाई माँग ली| जब घर सम्पन्न हो, भरा-पूरा हो, किसी चीज की कमी ना हो, तो कोई भी रकम अदा करना कोई बड़ी बात नहीं होती है| पच्चीस साल की कमाई बहुत होती है,थोड़ी बहुत गुंजाइश ढूंढी गई ताकि तनिक ढील या छूट मिली जा सके|

देनदार की तरफ के सज्जन अपनी सभा में खड़े होते है और छूट की गुज़ारिश करते हुए, ये कहते है, "हम तो गरीब है, इतनी रकम कहाँ से लायेंगे|" इतना सम्पन्न खानदान है, बड़े ज़मींदार है उसके बावजूद भी लड़की वाले हमेशा खुद को गरीब मानते है, और शायद सदा मानते रहेंगे|

हम यह भी कह सकते है कि अपना अपमान सहने के लिए भी तैयार रहते है, हाथ जोड़कर सर झुकाकर| आखिर ऐसा क्यों? हम इक्कीसवी सदी में आ गए है लेकिन ये सोच शायद कभी बदलेगी ही नहीं क्योंकि कोई परिवर्तन चाहता ही नहीं| डरते है सब बदलाव से, समाज से, लोग क्या कहेंगे से| हमें अपनी संस्कृति आगे ले जानी है,किसी प्रकार की कुरीतियाँ नहीं|

मज़े की बात तो यह रहती है कि उस सभा के देनदार वाले पक्ष की ना ही पुरुष, ना ही महिलाएँ, ना ही वरिष्ठ, और ना ही समझदार व्यक्ति इस कृत्य को करने से रोकते है| सबको बस समाज की पड़ी होती है, लेकिन यह भूल जाते है कि जब होने वाली विवाहिता को खबर होगी, तो क्या वो कभी भी लेनदारों के साथ अच्छे संबंध बना पाएगी? वो क्या कभी भी उन लोगों को माफ़ कर पाएगी, जो सब उसके पिता के अपमान के साक्षी और कारण थे| वो सुता बदला ले ना ले, लेकिन वो इस ग्लानि से अवश्य ताउम्र भरी रहेगी कि उसके कारण उसके परिवार वालों को पग-पग पे अपमानित होना पड़ा| हम लड़कियों को शायद बदला की भावना डाली ही नहीं जाती| वो सुता रिश्ते में खुश रहे या ना रहे, लेकिन मन में इस दुख की कड़वाहट ज़रूर देखने को मिलेगी|

क्या रिश्ता कभी ज़मीन या प्रॉपर्टी से हो सकता है? अगर हाँ, तो फिर ज़मीनो से शादी होनी चाहिए, इंसानों से नहीं| और इंसानो से शादी होती है, तो ज़मीनो को बीच में नहीं आना चाहिए| समाज का यह कड़वा सत्य है, जिस पर हर एक लड़की का खून खोलता है, लेकिन वो सब परिवार के मान- सम्मान की बेड़ियों में जकड़ी हुई है|

विवाह की सभी रस्मों के मध्य एक रस्म होती है स्त्री को वस्तु बनाने की रस्म| अपने पुण्य प्राप्ति हेतू किसी जीवित कन्या को दान करने की रस्म जिसे सोच समझ कर सब मान्य कर लेते है परन्तु वह पुत्री मान्य नहीं कर पाती, जो समाज में अपना अस्तित्व खोजती है, वह स्त्री मान्य नहीं कर पाती जो शक्ति को अपना आराध्य मानती है, वह ममता मान्य नहीं कर पाती जो नौ माह अपनी कोख में अपनी पुत्री को रखती है| कदाचित समाज के दवाब में आ कर माता पिता उस पुत्री का दान कर देते है, अपने दाइत्वो का दान, अपने कर्तव्यों का दान, अपने अधिकारों का दान, अपने प्रेम का दान|

वह प्रत्येक वस्तु का दान कर देते है जो उनकी पुत्री से जुड़ी होती है, यह विचार करने योग्य बात है कि जब पुत्री का तथा उसकी वस्तु का दान कर दिया, फिर क्या किसी भी प्रकार से माता पिता का पुत्री की पीड़ा, विप्पतियों पे अधिकार होता है? यदि हाँ, तो कैसे जब भी हम किसी भी वस्तु का दान करतें है तो हमारा उस पर किसी प्रकार का कोई अधिकार नहीं शेष नहीं रहता| कदाचित इसलिए वर पक्ष अपना अधिकार उस स्त्री पर तब तक मानते है जब तक वह उनके मन अनुसार कार्य करती है और जिस दिन वह भूल से भी कोई भूल कर देती है उस दिन उसे इन वाक्यों का सामना अवश्य करना पड़ता है, "दूसरे घर की बेटी से उम्मीद भी क्या की जा सकती है" तब उसे आप के भी कुछ वाक्य याद आते है, "तुम तो पराया धन हो, तुम किसी और की अमानत हो"|

आपने क्या एक पल को भी विचार किया कि क्या बीतती होगी उस पल उस सोन चिरैया पर जिसको आपने खुशहाल जीवन के सपने दिखाए, क्या उन सपनों के चलते वह एक बंजारन ना बन गई, जिसका कोई घर नहीं, जिसका कोई अपना नहीं, जिसके दुख में कोई उसका साथी नहीं, जिसकी खुशियों में कोई शामिल होता नहीं| माता-पिता यह कहते है कि एक दिन तुम उड़ जाओगी, पर उसे क्या पता होता उड़ने के बाद उसका घर सदैव के लिए छीन जायेगा, वह किसी भी घर को अपना नहीं कह पाएगी| वह एक नए रिश्ते में बंध कर सारे पुराने रिश्ते खो देती | परम्पराएं आम की फल के भांति होती है जब वह नई होती है तब कैरी की तरह खट्टी और चटकारेदार होती है, जब समाज उन्हें स्वीकार करता है तब वह सबको मधुर स्वाद देती है परन्तु अधिक दिन जब वह बिना परिवर्तन के समाज में व्याप्त रहती है तब अधिक मिठास के कारण उनमें कीट लग जाते है और वह किसी योग्य नहीं रह जाती है|

क्या यह विचार करने योग्य बात नहीं है कि अपने आँचल से चुन कर एक माँ दुनियाँ की सारी खुशियाँ अपनी पुत्री को अर्पित देती है और पिता अपनी लकीरों की कामयाबी अपनी राजदुलारी को भेंट कर देता है फिर वही माँ-बाबा उस सुता की भावनाओं को समझने में इतनी असमर्थ क्यों? समाज के समक्ष इतने विवश क्यों?

आपके मान-सम्मान के चलते वह कालकूट ग्रहण कर लेती है और वह कालकूट अहिस्ता-अहिस्ता आपके और आपकी पुत्री के हरेभरे वृक्ष को जड़ से उखाड़ देता है| जिस पुत्री को आप पे अभिमान था, आज वह आपसे बात करना तक नहीं चाहती| जो पुत्री आपसे अत्यधिक प्रेम करती थी, अपने स्वाभिमान का त्याग कर वह आपके प्रेम की आहुति दे देती है| क्या आपने कभी विचार किया कि यह अधिकार, मान-सम्मान, स्वाभिमान जैसे बड़े बड़े शब्द आपकी नन्ही पुत्री के मस्तिष्क में आए कहाँ से? कदाचित उस समय जिस पल समाज ने अंश और वंश मे नापतोल किया और वंश का पलना भारी घोषित कर दिया, या फिर उस समय जिस क्षण दहेज़ पर ग्रह में महासंग्राम का शंखनाद हुआ, या फिर उस समय जिस पल कन्यादान पर चर्चा हुई और उसे वस्तु घोषित कर दान करने की बात छिड़ी, कौनसा था वो पल जिसने आपकी मासूम सुता को कालिका बनने के लिए प्रेरित किया|

सुता की बालपन की वह शीतल यादें उस समय प्रेम मांगती थी, परन्तु आज वह अधिकार मान-सम्मान, दर्जा मांगती है, प्रत्येक समय की अपनी माँग होती है | जब उस समय हम अपनी राजदुलारी की मांगे पूरी करतें थे तब हमनें क्यों विचार नहीं किया कि यह माँग पूर्ण करना उसकी आदत बन जायेगा, तब हमनें क्यों नहीं विचार किया कि आदत बदलने पर उसके मन में विरोध, आक्रोश और प्रतिशोध की भावनाओं का जन्म होगा| आज जब वह अपना अधिकार मांगती है अपने स्वाभिमान की बात करती है समाज मे अस्तित्व खोजती है तो क्यों हम उसके समक्ष उसका स्वाभिमान और अपना मान-सम्मान रख देतें है?

जब स्त्री और पुरुष को बराबरी का दर्जा मिला है, तो यह किस प्रकार का भेदभाव है, जिसमें लड़की वाले पक्ष को हमेशा सर झुकाकर और हाथ जोड़कर बात करनी होती है, और लड़के वाले पक्ष को सर उठाकर गर्व से? क्या लड़कियाँ पीतल की होती है? जिससे उनके परिवार वालों को शादी की इस पूरी प्रक्रिया में सिर्फ झुकना होता, अपने आप को कम समझना होता है? क्या सच लड़कियाँ अपने परिवार वालों को बिना वजह ही शर्मिंदगी महसूस करवाती है? जिससे उनके पूरे परिवार वाले सर गर्व से ऊपर भी उठा नहीं पाते?

खैर, शायद सच हम सब जानते है, बराबरी का दर्ज़ा की बात और वाकई में बराबरी का दर्ज़ा देना दोनों ही अलग बातें है| मान भी ले कि प्रत्येक वस्तु बराबरी की या बेहतर भी मिल जाती है लड़कियों को, लेकिन जब समाज में प्राथमिकता की बात आती है तो वास्तविकता भी साथ लाती है तब समाज यह कहता है, "यह लड़कियों का काम नहीं"| वे नहीं कहते कि उन्हें लड़के या लड़की के तराज़ू में तौलो| उन्हें बस इंसान समझो, ये कलम बिंदु हटाकर कि "तुम लड़की हो"| शायद जब बराबरी का स्वप्न सच हो जाए तो यह लेन-देन का कारोबार बंद हो जाए, इसके साथ माता-पिता का गर्व में उठा मस्तिष्क बेटी का दामन खुशियों से भर जाए|

इस विषय पर हमारी और आपकी चर्चा चलती रहेगी| कदाचित हम इन बहती भावनाओं से मुँह मोड़ रहे हैं, हमें भावनाओं को स्वीकार करना चाहिए तत्पश्चात उसे सुधारना चाहिए| क्या हम यही करते हैं?नहीं, हम ऐसा नहीं करतें हैं| हम अपनी भावनाओं को दबा देते हैं कुछ समय तक वह दबी रहती है फिर दवाब अधिक होने के कारण बाँध टूट जाता है तथा आपके मन और मस्तिष्क में इन भावनाओं का भूचाल आ जाता है, जिसमें आप और आपके संबंध दोनों ही बह जाते हैं| यदि हम समय से पूर्व ही इन भावनाओं को स्वीकार करें और इन्हें सुधारने की चेष्टा करें तों क्या स्वतः आपकी आधी समस्याएँ समाप्त नहीं हो जाएगी, स्वयं विचार कीजिये|

खुशियों का मोल निर्धारित कर दिया गया था, ओली, सगाई, तिलक तथा विवाह की रस्मों की कल्पना से परिवारजन का मुख गुलाब की कलियों की भांति खिल गया था, शहनाई और ढोलक की ताल पे सबके कदम थिरकने लगे थे| अब प्रश्न यह उठता है क्या यह सब कुशलता से समाप्त हो जायेगा, मोल अदा करने के पश्चात क्या दुहिता के दामन में खुशियाँ आएंगी? क्योंकि वैदेही राज ने अपनी सुता के लिए रघुवंशी और रघुकुल दोनों ही श्रेष्ठ चुने थे, और भेंट स्वरुप अपना सब अर्पण किया था परन्तु क्या जनक दुलारी सिया को, रघुवीर की अर्धांगिनी को, दशरथ की कुलवधु को फूलों से भरी क्यारी मिली, क्षितीजा की झोली में सिर्फ तप आया था जिसके लिए उनका श्रजन हुआ था, अर्थात खुशियों का कोई मोल नहीं होता|

.    .    .

Discus