बुंदेलखंड की प्रसिद्ध सरिता छेज के तट पर बसा एक गाँव और उसमें रिश्तों की डोर को थामे, एक नामी, शिक्षित, सभ्य एवं ऐश्वर्यवान खानदान| ईट पाषाण से बना हुआ वह भव्य आलिशान महल, हवेली के ढांचे में डाला वह राजा-महाराजा का राजनिवास जैसे अपने आप में एक अलग ही आकृति रखता हो| भीतर की ओर रुख करते ही दो विशाल प्रस्तर खम्बे, जिन पर किसी महान चित्रकार ने अपनी जीविका टांकी थी, आवनूस का हष्ट-पुष्ट द्वार जिसके चारों कोने ताँबे की कारीगरी से लबा-लब थे, दिनों की मेहनत के बाद द्वार मध्य-प्रदेश से ढो कर लाया गया था|
अंदर का नज़ारा देखते ही, हर व्यक्ति की यही इच्छा होती कि बस जीवन इसी घर में कटे, ठीक उसी प्रकार की मनोदशा रहती, जिस प्रकार किसी राह चलते को उसका बसेरा मिल जाने पर उसकी दशा होती है| चार दालाने जिस पर सफ़ेद पत्थर बिछे हुऐ थे और लालिमा के रंगों से रंगोली सजी थी| दालानों में हर वस्तु आकर्षित ढंग से रखी हुई रहती, हर वह सुविधा उपलब्ध थी, जो ठाट - बाट के जीवन को आपकी प्रवित्त बना दे|
साम्राज्य के राजा के भांति शासन, प्रजा के लिए सम्पूर्ण समर्पण, उस घर की संस्कृति में था, और भला क्यों ना होता| उस खुशहाल हरियाली भरे गाँव की बाग़ डोर उस घर के मुखिया के हाथों में थी, क्योंकि बड़े ज़मींदार होने के साथ वे गाँव के मुखिया भी थे| परन्तु काल चक्र की विडंबना किसने जानी, वर्षो से उस ग्रह के वासी एक वंश की चाह में लाखों सपने बुनते और प्रत्येक बार वह कल्पना पुत्री के उद्धभव के साथ स्वर्ग सिधार जाती| दो पुत्रियों का जन्म हो चुका था, अब त्रिदेवओं का मुख किसी को देखने की इच्छा नहीं थी, बस सब यही प्राथना करते की इस बार पुत्र हो और वंश आगे बड़ जाए| इस घर की नीव एक और उद्धभव के बाद हिल जानी थी, प्रत्येक कार्य की एक सीमा होती है और आज वह सेतु टूट चुका था|
श्रावण मास की झड़ी जब एक बार लग जाती है, तब इंद्र देव को प्रसन्न करने के लिए लाखों उपाय अनिवार्य होते है इसके पश्चात ही वह झड़ी अपना रुख बदलती है| अब जब देवी को आमंत्रित कर के उनका स्वागत करना ही नहीं था, तब तो इंद्रराज का क्रोधित होना भी स्वाभाविक था| विश्व की खुशियों से घिरा वह गाँव आज चिंता और भय के सागर में अपार डुबकियाँ लगा रहा था| कोई दौड़ लगा कर, वर्षा की तुषार बूंदों से लिपटा हुआ डॉक्टर के पास जाता, तो कोई अलग-अलग दिशाओं में जा कर रास्ता बनाता उस गाँव से निकलने का, परन्तु वर्षा अधिक होने के कारण कुछ इंतिजाम ना हो पाता|
आस-पड़ोसी सब मुखियाजी के द्वार पर विराजमान थे, उसमें से एक औरत अपनी चुपी को तोड़ कर बोलती है - "काये तुम औरे ईतंई बैठी रों?, हम तो ना बैठ पे सो भीतर अटाई में जा रये"|
धीरे से बैठक का द्वार खुलता है और आवाज़ आती है-"काये अम्मा डॉक्टर साहब आये?"
वह महिला राजनिवास में प्रवेश करती है, घबराया और सहमा सा स्वर भीतर कोठरी से आता है,"नई अबे नई आये"
प्रश्नों की बौछार करते करते वह महिला मुखियाइन के समीप जा पहुँचती है|
उसे देखते ही मुखियाइन बिल्क कर रो पड़ती है और बोलती है, "जिज्जी हमें कछु समझ नई आ रयो, तुमहई कछु करो"|
इतने में पीछे से एक नाद कानो में सुनाई पड़ता है वेदना भरा संताप, जिसने वहाँ मौजूद प्रत्येक व्यक्ति के कलेवर को झिंझोड़ दिया| भूमि की गोद में पड़ी एक माँ प्रसव पीड़ा से बेसुध थी, कभी अपनी सास की ओर आशा पूर्ण दृष्टि से निहारती, तो कभी अपनी ध्वनि को तेज कर अपनी पीड़ा को बाहर निकाल देना चाहती| हर पल के साथ वह नाद और भी दिल दहलाने वाला होता जाता| रह-रह कर उसे यही ख्याल आता कि मेरी पुत्री सलामत हो, उसे कुछ ना हो और कोशिश करती कि पुत्रियों के उज्जवल भविष्य की कल्पना, इस पीड़ा से राहत दिला दे और कुछ क्षणों की राहत मिलती भी, परन्तु फिर नए सिरे से उस पीड़ा का आरंभ हो जाता| वह यही सोचती कि अगर आज मेरा जीवन साथी मेरे साथ होता, तो कदाचित इस पीड़ा का मुझे अधिक आभास ना होता, और वह अपनी प्रीत की याद में रो पड़ती|
दर्द, पीड़ा सिर्फ भौतिक नहीं होती, वह बौद्धिक भी होती है, जितनी पीड़ा हमें हमारा कलेवर नहीं देता उससे अधिक पीड़ा हमें हमारा ह्रदय दे जाता है| बौद्धिक पीड़ा जो हमें हमारी भावनाओं से मिलती है यह जो भावनायें होती है हमारा इन पर ज़ोर नहीं चलता, जब हम प्रसन्न होते हैं तो खुशी से अक्समात ही झूम ने लगते हैं| जब हमारे प्रियजन में से कोई पंचतत्वों में मिल जाता है तब हम संताप और शोक से भर जाते हैं, जब हम से कोई भूल हो जाती है उसका आभास होते ही हम ग्लानि से भर जाते हैं, कभी द्वेष से भर जाते हैं, तो कभी क्रोध से, तो कभी ईर्ष्या से| यह सारी भावनायें अस्थिर हैं, समय और परिस्थितियों के अनुकूल है| जिस प्रकार की परिस्थितियाँ होती हैं मनुष्य उसी प्रकार से कार्य करता है तथा उसके द्वारा किये गए कार्यों से धर्म एवं अधर्म की परिभाषा उभरती है|
जितना दुख: उसे प्रसव पीड़ा नहीं दे रही थी, उससे कई अधिक पीड़ा दायक उसके जीवन स्वामी की अनुपस्थित थी, और यह डर की अगर वह सलामत नहीं जी पाई तो? क्या उसके तीनों बच्चों को प्रेम मिलेगा? क्या उन बच्चों की दूसरी माँ आ जाएगी? सोचना स्वाभाविक था, एक माँ को अपने बच्चों से अधिक चिंता किसी की भी नहीं होती|
आँगन में एक जाल पड़ा था, जब वर्षा का जल एकत्रित हो कर जाल से निकलता तब ऐसा जान पड़ता की घर के आँगन में झरना बह रहा हो|
दालानों में ठांडी स्त्रियाँ ऊपर जाल से तांकती और आवाज़ लगती, "लला जाओ इसे शहर ले जाओ, कही कुछ ऊच-नीच ना हो जाए" परन्तु कुछ उत्तर प्राप्त होता ना देख कर आपस में ही खुसूर-पुसूर करने लगती हैं|
एक औरत उसमें से बोलती है, "आज से ज़्यादा लाचार और बेबस हमनें मुखिया जी खो कभाऊं नई देखो, कलिका की कॉल खा कर कै रये ऐसो धूर्त मोडा हमनें कबहु नई देखो"|
तीन माले की वह हवेली यह चाहती थी कि वह स्वयं एक अस्पताल में तब्दील हो जाए, परन्तु यह उतना ही असम्भव था जितना सुरज का पश्चिम से उदय होना| हर गुजरते क्षण के साथ एक व्यक्ति पहले मंज़िल पर जा कर उस व्यक्ति से गुज़ारिश करता, जो व्यक्ति उस गाँव का सबसे शिक्षित और भगवती की पूजा में लीन रहने वाला प्राणी था, जिसको लला कह के सम्बोधित किया गया है|
वहाँ उस व्यक्ति को अपनी छ: माह के गर्भ धारण की सहगामनि को अपने हाथों से भोजन खिलाते देख कर, सब लज्जा के मारे वहाँ से आकाश की ओर निहारते और प्रभु से सब अनुचित को उचित करने की विनती कर के चले जाते| हमारे समाज में यह आम बात है, किसी का कुछ भी बुरा हो परन्तु हमारे रंग में भंग नहीं पड़ना चाहिए| चाहे कोई जीवित रहे या उसके प्राण पखेरु स्वर्ग सिधार जाए हमें फर्क नहीं पड़ता| यूँ कहो की हम इतने अमानवीय बन जाना चाहते हैं कि मानवता भी शर्मा जाए| मानवता क्यों ना शर्माए, आपने कुछ कसर ही नहीं छोड़ी, अपने वंश के चलते ना जाने कितने गर्भपात्र करा दिए क्योंकि वह अंश था,वंश नहीं, आपको वंश का मोह है| जिन अंशों का अपने वध किया, जिन से अपने जीने का अधिकार छिना, क्या वह अधर्म नहीं? किसी निर्दोष शिशु की हत्या कर देना, किस हद तक उचित है एक वंश की चाह रखना| क्या उसकी कोई सीमा नहीं? सीमा होती है, जब तक आप किसी को अपनी इक्षाओं के पूर्ण हेतु बाध्य ना करे, उसे हानि ना पहुँचाये|
सारे प्रयत्न करके देख लिए थे, हर मुमकिन प्रयास कर लिया था, घर की बड़ी बहु को शहर के अस्पताल ले जाना का, परन्तु कोई समाधान नहीं निकला|
हताशा और निराशा से भरे स्वर बस यही कहते, "हे ईश्वर इस समस्या का समाधान मिल जाए, यह घने काले मंडराते बादल मेरी सरज़मी से निकल जाएँ"|
मुखियाइन ने एक बार फिर से चेष्टा की अपने लाल को मानाने की और कहा- "बेटा देख तेरी भौजी दर्द से करहा रई नई लेके जा रए सो भभूती ही दै दो"|
भभूती उस गाँव की सबसे प्रसिद्ध दवा थी, जो कोई वैद नहीं देता था देवी का परम् भक्त उनकी आराधना कर के हवन कुंड की राख़ देता था, जो रोगी को रोग मुक्त नहीं करती थी, परन्तु पीड़ा में राहत ज़रूर देती थी | मुखिया जी ने बहुत जतन किये परन्तु कोई हल नहीं मिला। वह तो बस इसी गहरी चिंता में थे, कि बहु को अस्पताल कैसे ले जाया जाए और उनकी परवरिश में कहाँ कमी रह गई जो आज उनका अनुज पुत्र इस राह पे चल दिया है| कितने बेबस लाचार थे वो, अपने आप को बार-बार समझाते, धीरज धराते की सब ठीक होगा, परन्तु कैसे? इसका किसी के पास कोई उत्तर नहीं था|
एकाएक उन्हें एक सुझाव आया कि "चार पहिया गाड़ी नहीं जा सकती परन्तु बैल गाड़ी तो हर परिस्थिति में कहीं भी चल सकती है, कब तक हाँथ पर हाँथ धर के बैठे रहेंगे, कभी ना कभी तो कोई विकल्प ढूंढना ही होगा, तो यही रास्ता उचित क्यों नहीं"|
जनाब यह 1993 की बात है, जब एम्बुलेंस को बुलाने के लिए सिर्फ एक नंबर डाइल नहीं करना पड़ता था, जब रास्ते एक दम सन्न नहीं होते थे, उबड-खबड रास्ता, ना कोई ठहरने योग्य बसेरा और ना ही कोई जल-पान की व्यवस्था बस यही सब रहता था|
यह बात मुखियाइन को नाग वार लगी और उन्होंने घूँघट की लम्बी आड में अपने पति से कहा-"हम कै दै रए, जे विचार उचित नई याँ गर्भवती बहु को तुम बैल गाडी में ले कर जाओगे? लगता है वर्षा के कारण तुम्हारी बुद्धि क्षीण हो गई है"
उन्हें किसी का भी उनसे इस स्वर में बात करना कदाचित गवारा नहीं था, फिर भी आज उन्होंने धीरज का घूंट पी कर सब सह लिया| नर्म वाणी के साथ बोले, "मेरे पास इसके अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है, होता तो मैं अवश्य खोज निकलता, बहु की हालत नाजुक है उन्हें किसी भी हालत में अस्पताल ले कर जाना होगा, हम वर्षा के थमने का इंतजार नहीं कर सकते हैं"
उनकी हर बात उनकी अर्धांगिनी के लिए आदेश थी, स्वयं उनके मुख से वाक्यों को सुनने के बाद उन्होंने सारे इंतज़ाम किये और साँझ होते-होते वे घर से निकल गए| सूर्य देव आज प्रत्येक मनुष्य के कर्मों को नारायण से अवगत करना के लिए प्रस्थान कर चुके थे| इंतज़ाम करते करते निशा का बाल रूप दिखने लगा था, मुखिया जी के साथ पूरा गाँव शहर की ओर दौड़ पड़ा, परन्तु उनका पुत्र नहीं अब तो कदाचित उन्होंने आशा ही त्याग दी थी उसके आने की| अस्पताल गाँव से पचास मील की दूरी पे था, चिंता के विषय अनेक थे परन्तु आशा और उम्मीद की किरण घने बदरा मे से लुका- छुपी खेलने लगी थी| रात्रि की वृद्ध अवस्था में अस्पताल में दाखिला सुनिश्चित हुआ, परन्तु अब कोई भी योग्य डॉक्टर यह प्रकरण अपने हाथ में लेने को सजय नहीं थे क्योंकि चौथा अस्त्रोपचार और उस पर इतनी देरी|
काफ़ी मिन्नतें करने के बाद, एक फ़रिश्ते की तरह एक डॉक्टर ने इस नामुमकिन काम को अपने हाथ में लिया, और सूर्य की पहली किरण धरती पे पड़ते ही, एक देवी का जन्म हुआ| सब चाहते थे कि वंश आगे बड़े, परन्तु मुखिया जी ने देवी का स्वागत करने का निश्चय कर लिया था, क्योंकि उनका कहना था कि युद्ध में जीत कर शक्ति ही आ सकती है |
जब मुखिया जी ने उसे देखा तो वे मंत्र-मुग्ध हो गए, और उस नन्ही सी जान को अपनी बांहों में भर कर बोले, "देवी क्षमा चाहता हूँ, अपने पुत्र द्वारा किये गए अनिष्ट कार्य के लिए|" अक्षि नीर से भरी हुई थी, और वे प्रश्नता के साथ बोले,"मैं आपका स्वागत करता हूँ|"