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कितना इटलाती है आज यह सरसों रानी, कार्तिक के माह में जब जन्मी थी, तो थोड़ी सहमी सी रहती थी, ना जाने क्यों यह डरी हुई रहती थी| आज देखो कैसे यह पूरी बखरी में घूमती रहती है, सबके पास जा-जा कर बताती है वो समय नज़दीक आया जब मेरे हाथ पीले होंगे और डोली में तुम सबको रुला कर चली जाऊँगी, कभी तुम्हें मैं खेतों में लहराती यादों में नज़र आऊँगी, तो कभी मैं तुम्हें अपनी खुशबू से महका जाऊँगी| चैत्र के माह में चार चाँद लगाती सरसो रानी होली के रंगो के साथ चली जाती है| फाल्गुन और चैत्र के मध्य में अपनी सौंदर्यता बिखेरती है बसंत ऋतू, जहाँ मौसम सुहावना हो जाता है| पेड़ों में नए पत्ते आने लगते हैं और पेड़ों के रंग प्रतिदिन बदलने लगते हैं, कभी वह हल्के हरे होते हैं और कुछ दिन उपरांत वह गाढ़े हरे हो जाते हैं जैसे किसी चित्रकार को रंग का ज़्यादा ज्ञान ना होने के कारण वह प्रत्येक दिन चित्रकारी के रंग बदल रहा हो| आम के पेड़ बौरों से लद जाते हैं राग रंग और उत्सव मनाने के लिए यह ऋतू सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है इसलिए हम इसे ऋतुराज भी कहते हैं |

बसंत ऋतु और उसके मध्य में बिखरे त्यौहार दोनों ही मेरे मस्तिष्क और मन को अत्यंत लुभाते हैं| आज होलिका दहन के पावन अवसर पर नगर में धूम मची है कोई पंडाल सजा रहा है तो कोई पीले एवं नारंगी गेंदों से पूरा नगर सजा रहा है, बड़े बुजुर्ग बच्चों को होलिका दहन का महत्व समझा रहें हैं तथा उन्हें नारायण की भक्ति में लीन रहने की सीख दे रहें हैं| बालको ने तो अभी से पानी की होली खेलना आरंभ कर दिया है| चारों ओर से मिष्ठान की महक आ रही है जो स्वाद की लालच बड़ा रही है, देवी का लोक रंगोंलियो एवं फूलों से सजाया जा रहा है|

इन सबके बीच कहीं कुछ अनिष्ट की महक भी आ रही है कदाचित यह एक सप्ताह पूर्व घटित क्रिया की प्रतिक्रिया है, जो सब कुछ अच्छा होने की आशा करती है परन्तु नकारात्मक ऊर्जा को महसूस कर सकती है| सप्ताह पूर्व नगर में सबको आश्चर्यचकित कर देने वाली लहर चली थी, मन में अभी भी कहीं आशंका है, कि वह लहर किसी दरवाजे में ना कैद हो और खिड़कियों के खुलने पर पुनः किसी युद्ध का आगाज हो जाए|

कहा जाता है कि पड़ोसी आपके परिवार की तरह होते हैं, यहाँ पर भी कुछ ऐसा ही था पिछले बीते बीस वर्षों से दोनों पड़ोसी घनिष्ठ मित्र थे| लोगवार इनकी मित्रता की मिसाल दिया करते थे, राजपूतों और ठाकुरों दोनों ही गहरे बंधु थे| वर्षों से समंजस प्रेम, आपसी समझ, एक दूसरे के प्रति भरोसा और समर्पण यह दोनों ही परिवार में पूर्ण था| परन्तु एक तूफान ने प्रेम, संबंध, समझ और भरोसा के धागों को भूरी तरह से तोड़ दिया|

ठाकुर की बेटी और राजपूत का बेटा दोनों बचपन से ही एक दूसरे को प्रेम करते थे तथा अपने प्रेम को विवाह के पवित्र बंधन में पिरोना चाहते थे, और अपने परिवार की जाति अलग होने के कारण| उन्हें भाग कर विवाह के बारे में सोचना उचित लगा, उन्हें लगा जब हम विवाह कर के वापस आएंगे तो सब इस विवाह को मान्य कर लेंगे परंतु हम जैसा सोचते हैं आवश्यक तो नहीं की वैसा ही हो| परिस्थितियाँ कभी इतनी प्रतिकूल हो जाती हैं कि हमें समझ नहीं आता, कि क्या करना उचित होगा|

प्रेम वह वर्षा है जिसकी शीतल बूंदों में हम सब भीगना चाहते हैं परन्तु कभी भीग नहीं पाते कदाचित इसलिए क्योंकि हमें प्रेम का सही अर्थ पता ही नहीं होता है| हमारा यह मानना होता है कि हम जिससे प्रेम करते हैं वह सदैव हमारे समीप रहना चाहिए, जिस प्रकार से हम उस व्यक्ति को प्रेम करते हैं उसी प्रकार से वह भी हमें प्रेम करने के लिए बाध्य है, वह हमारे साथ रहने के लिए बाध्य है| अगर आपके लिए प्रेम की यही परिभाषा है तो कदाचित आप गलत हैं, प्रेम वह नहीं जो आपको बाध्य कर दे, प्रेम वो जो आपको मुक्त कर दे, प्रेम वह नहीं जो अपेक्षा के द्वारा संबंध बनाए, प्रेम वह जो त्याग में स्वयं को समर्पित कर दे, प्रेम वह नहीं जो आपको आपसे दूर ले जाए, प्रेम वह जो आपको स्वयं से मिलवाएं| हमनें अपने अनुसार प्रेम की परिभाषाएं बदल दी हैं|

बेतवा के किनारे रोज प्रेम की एक जैसी परिभाषाएं उमड़ती हैं हर दिन कोई ना कोई प्रेमी-प्रेमिका के कई किरदार निभाते हैं कभी वह हीर-रांझा बनते हैं तो कभी रोमियो-जूलीट बनते हैं तो कभी शिरीन-फरहाद बनते हैं परन्तु कभी कोई शिव और सती नहीं बनता| जिसमें प्रेम की प्राप्ति हेतु देह का त्याग है, स्वयं की खोज हेतु बिछोह है, जिसमें बिना बोले समझ है, जिसमें स्वयं की शक्ति से मिलाप है, जिसमें आजीवन इंतज़ार है जिसमें निश्छल भाव है, जिसमें करुणा है, जिसमें त्याग है, जिसमें तप है, जिसमें समर्पण है, जिसमें ब्रह्माण्ड की अटूट शक्ति है और जिसमें अर्धनागेश्वर है|

आज हम ने प्रेम को पसंद, मोह, अपेक्षा और तकरार जैसे शब्दों में सीमित कर दिया है| अक्सर लकड़पन के सुहाने सफर में हम किसी को पसंद करतें हैं और यह व्याख्या करते हैं कि उस से प्रेम है, अगर वह व्यक्ति आपके प्रेम को स्वीकार करता है, तो आप साल भर एक सुनहरा और खिला जीवन जीते हैं परन्तु जैसे ही आपकी तृष्णा शांत होती है आपका प्रेम भी समाप्त हो जाता है और आप दूसरे ही पल किसी और व्यक्ति से प्रेम करने लगते हैं | क्या वास्तिविक में यह प्रेम है? या फिर आपके आकर्षण और पसंद का कोई मेल है और कहीं उस व्यक्ति ने आपके प्रेम को अस्वीकार कर दिया तो आपके अंदर का अहम टूट जाता है और प्रतिशोध, आक्रोश की भावना का जन्म होता है या भावना आपसे उस व्यक्ति के लिए अनिष्ट कार्य करवाती है जिससे आप प्रेम करते थे, क्या किसी व्यक्ति का अहित सोचना प्रेम है या यह अहम और आकर्षण का कोई मेल है?

प्रेम सदैव दो तरफा होता है प्रेम कभी एकतरफा होता ही नहीं प्रेम प्रथम स्वयं से होता है, और फिर किसी अन्य व्यक्ति से| अगर आप स्वयं से प्रेम नहीं करते और दूसरी व्यक्ति से प्रेम करने का दावा करते हैं तो वह प्रेम नहीं वह मोह है सदैव माता पिता अपनी संतान के जीवन में खुशियाँ लाने के लिए हजारों कष्टों से जूझते हैं वह अपने बारे में सोचते ही नहीं | वह स्वयं को निर्बल बना लेते हैं स्वयं को पीड़ा देते हैं स्वयं को अपने बच्चों के उज्जवल भविष्य के लिए तपाना क्या प्रेम है या फिर यह ममता और मोह का अनोखा खेल है?

हमारे जीवन में हम बहुत से रिश्ते मिलते हैं कुछ हमें जन्म से मिलते हैं और कुछ हम स्वयं बनाते हैं ना जाने यह रिश्ते प्रेम की छांव से निकलकर कब अपेक्षा की चिलचिलाती धूप में चले जाते हैं| हम सब में एक विकार है, जिसके चलते हम किसी से वास्तविक प्रेम नहीं कर पाते| हमारे परिवार जनों को हम से यह आशा रहती है कि वह हमें प्रेम करते हैं इसलिए हम उनकी प्रत्येक इच्छा को पूर्ण करने हेतु बाध्य हैं और जब यह आशाएं, इच्छाएं पूरी नहीं होती कदाचित क्योंकि अपेक्षा की नियति खंडित होना ही है तो हमारे मन ग्लानि एवं शोक से भर जाता है और हम क्रोध जिसी भावना के घेरे में आ जाते हैं क्या आपको लगता है कि प्रेम क्रोध और गिलानी के भाव को जन्म देता है? प्रेम को समझना है तो सर्व प्रथम स्वयं को समझें तत्पश्चात किसी अन्य को|

जब दोनों परिवारों को अपने गुप्तचरों से सुचना मिली कि ठाकुरों की सुता और राजपूतों का वंश, एक साथ भाग गए हैं तब पूरे नगर में युद्ध का आगाज़ हो गया| जो परिवार कल तक एक दूसरे का घनिष्ठ मित्र था, आज वह परम शत्रु बन गए और दोनों ने यह दवा किया कि वह एक दूसरे के बच्चों को दूसरे लोक पहुँचा देंगे| पूरे नगर में दोनों परिवारों की बहुत हँसी हुई, सबका यही कहना था और मित्रता रखें, रोज़ का आना जाना रहता था बच्चों का, सयाने समाने बच्चे थे थोड़ा तो ध्यान देना चाहिए था परिवार को, थोड़ा तो संभल कर चलना चाहिए था| चलो, पिता नहीं ध्यान दे पाया क्योंकि वह तो बाहर रहता था परन्तु माता तो ध्यान दे सकती वह तो पूरे दिन घर में रहती थी, उसकी आँखों से कैसे चूक हो गई| समाज के प्रत्येक व्यक्ति ने माँ को दोषी करार कर दिया|

मातायों का ह्रदय बहुत कोमल होता है, जहाँ पितायों के सम्मान पे बात आ गई थी| वह किसी भी हाल में दोनों बच्चों को खोज कर अपना अपना फैसला सुनाना चाहते थे, वहीं दोनों माताएँ अभी भी अपनी संतानों की चिंता में व्याकुल थी| ईश्वर से यही विनती करती कि दोनों लौट आएँ तो उन दोनों का विवाह अवश्य करवा देंगे| पिछले सात दिनों से रोज़ दोनों ज़मींदारों के यहाँ बैठक लगती और उन दोनों को ढूंढेंने का आदेश दिया जाता और ढूंढ कर वापस लाने पर मुँह माँगा ईनाम सुनिश्चित किया जाता|

वंश की माँ को अपने पुत्र पर गर्व था, आज वह सब मिट्टी में मिल गया था, सब यही कहते थे कि "एक लौता लड़का था तुम उसे भी ना संभाल पाई" उन्हें तो जैसे सदमा लग गया था| पूरे परिवार को संदेह है कि वह अपने पुत्र से प्रतिदिन मिलने जाती हैं परन्तु कल जब वह अपने वंश को साथ ले कर आईं तो पता चला ठाकुरों ने अपनी सुता को खोज कर किसी और से विवाह कर दिया है और पुत्र अपनी प्रेमिका के विराह के क्षणो को सह नहीं पाया| आक्रोश में वंश ने अपनी प्रेमिका से बिछड़ने का उत्तर दाई अपनी जननी को ठहरा दिया|

बिना इक्षा के घर लाये जाने पर, चार दीवारों के अंदर बहुत तमाशा हुआ, तथा गाँव वालों ने आवाज़ द्वारा घटना का अनुमान लगाया पूरे नगर में युद्ध का संक्षिप्त वर्णन किया|

वह चीखते हुए अपनी माँ से बोला, "तुमने मेरे लिए क्या किया है,जो इस तरह से अपना हक जमा कर मेरे जीवन का निर्णय ले रही हो?"

जिसने अपने पुत्र की खुशियों के लिए तप किया, बलिदान दिया, त्याग किया | वही पुत्र आज पूछता है कि तुमने मेरे लिए किया क्या है? हम मानते हैं कि संतान का अपनी माँ पर अधिकार है परंतु उसके प्रेम पर प्रश्नचिन्ह लगाने का अधिकार उसे किसने दिया? उसकी त्याग को स्वार्थ का नाम देने का अधिकार उसे किसने दिया?मैं पूछती हूँ किसने उसे अधिकार दिया अपनी जननी पर उंगली उठाने का?

सिर्फ पुत्र दोषी ठहराता तो कदाचित ममता चाची सह लेती परन्तु यहाँ एक व्यक्ति पर आठों दिशायों से वाणों की वर्षा होने लगी| सास कहती कि तुझमें कमी है इसलिए तुझे तेरे पुत्र के बारे में कुछ नहीं पता, पति कहता कि तुम्हारे लाड़-दुलार की वजह से वह बिगड़ गया, देवर कहता संस्कार ही अच्छे नहीं दिए गए, देवरानी कहती परिवार की पगड़ी उछाल कर बड़ा नाम रोशन किया है आपके पुत्र ने|

क्या आपने कभी पीपल के वृक्ष को ध्यान से देखा है, उसे जीवित रहने के लिए मात्र अंजुली भर जल और कुछ करने पर्याप्त होती हैं ठीक उसी प्रकार एक स्त्री के अस्तित्व को जीवित रखने के लिए अंजुली भर प्रेम और कुछ किरणें मान सम्मान की पर्याप्त होती हैं | जब एक बार वह वृक्ष अपनी जड़ें बना ले, उसके पश्चात कोई आंधी,कोई तूफान उस विशाल वृक्ष को हिला नहीं सकता | जब तक उसकी जड़ों में दीमक ना लग जाए, ठीक इसी प्रकार एक बार जब स्त्री का अस्तित्व स्थापित हो जाता है उसके पश्चात कोई भी उससे उसकी खुशियाँ नहीं छीन सकता| संतान के दुष्कर्म ही एकमात्र वह दीमक हैं जो स्त्री के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगा देते हैं?

अचनाक कहीं से शोक नाद की ध्वनि आ रही है , हो सकता यह मेरा भ्रम हो क्योंकि काफ़ी देर से मुझे कुछ अनिष्ट होने की आशंका सता रही थी, कुछ औरतों से घर का कीबाड़ खटकाया और आवाज़ लगाई, " बाई, देखो ममता ने क्या कर लिया, विष पी कर जान दे दी उसने, बाई आओ जल्दी| परिवार जन को संभालना मुश्किल हो रहा है|" तथा खुसूर-पुसूर करती और दादी को अपने साथ ले कर आगे बड़ गई| वही हुआ जिसका मुझे संदेह था, आखिरकार उन्होंने अपनी समस्यायों का एक समाधन ढूंढ लिया तथा अपनी इक्षा से अपनी देह त्याग दी|

साँझ ढलने लगी है सब अहिस्ता-अहिस्ता रंग मंच पर दर्शाये गए शोक नाटक में अपनी प्रतिभा निभा कर घर को वापस जाने लगे हैं| नाटक के बाद तालियों की गूंज कि जगह कुछ खुसूर-पुसूर की भिन-भिनाहट है, कुछ स्त्रियाँ इस उंदा नाटक के कुछ पहलू पर अपनी विशेष टिप्पणियाँ दे रही हैं जो कल तक रंग मंच की नायिका का पात्र निभाती स्त्री के विषय में कुछ विशेष राय रखती थी कि उसे आग लगा कर मर जाना चाहिए आज वही कह रही है, हाय यह क्या किया इसने, हमनें तो बहुत समझाया था कि जो भी बेटे ने किया तुम उसका दोष स्वयं को कदापि मत देना, वह अभी नासमझ है कुछ दिन के उपरांत समझ जायेगा| पर ना जाने कौन उसे सिखाता रहा और उसने यह अनर्थ कर दिया, मेरा जी तो इसी चिंता में मरा जाता है कि बिन माँ की बच्ची का क्या होगा? नायिका की पुत्री की चिंता में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे कर वह स्त्रियाँ पुनः किसी मुर्दे के किस्से सुनाने में लग जाती है|

बड़ी विडंबना है इस संसार की, आज किसी का एक चेहरा रह ही नहीं गया है, सब अपने चेहरे पर अनेक प्रकार के मुखौटे पहने हुए हैं, परिस्थितियों और मनुष्यों के अनुसार यह मुखौटे बदलते जाते हैं| अब तो ऐसा लगता है कि संसार में कुछ वास्तविक और सत्य रह ही नहीं गया है चारों ओर बस ढ़कोसले, आडंबर और असत्य छाए हैं| क्या हमने कभी विचार किया कि इन ढ़कोसलो, आडंबरो और असत्यतायों के चलते हम भीतर से कितने खोखले हो गए हैं? अब तो हम में स्वयं का कुछ बचा ही नहीं है| क्या हम वही मनुष्य है? जिसकी कल्पना हम ने अपने बालपन में की थी या फिर हम बदल गए हैं जो कायरता, मूर्खता और अमानवता हम दिखा रहे हैं या हम में उत्पन्न हो गई है क्या इसी की कल्पना हमने अपने बालपन में की थी? सत्य और वास्तविकता मुझसे कई बेहतर आप जानते हैं|

अब आप कहेंगे यह तो सृष्टि का नियम है कि किसी का इस दुनियाँ में आगमन होता है तो किसी का दुनियाँ से गमन होता है फिर किसी के शोक में शरीख होने में या परिवार के दुख में शामिल होने में आमानवता कैसे? अमानवता विरह में साथ देने में कदापि नहीं है| अमानवता है उस शोक का दिखावा करने में, अमानवता है अपने ढोंग के अश्रु दिखा कर हक़ीक़त में किसी उभरते को फिर संताप के सागर में धकेल देने में| आप शोक प्रकट करने के लिए किसी भी रूप से विवश नहीं हैं तो फिर क्यों इस स्वांग के लिए आप स्वयं को बाध्य कर लेते हैं, मृतक के घर में प्रवेश करते ही बिना दुख की भावना के साथ आप घूँघट की आड़ में आर्त्तनाद करते हुए परिवार जनो को पुनः विरह से भर देते हैं| क्या यह अमानवता नहीं है?

मुझे समझ ही नहीं आता यह बिना महसूस किए शोक प्रकट कर के आप संसार को क्या दिखाना चाहते हैं कि आप मृतक के परिवार से अत्यधिक प्रेम करते हैं अगर आप वास्तविक में उनसे या उनके परिवार जन से तनिक भी प्रेम करते हैं, तो आप को यह दिखावा करने के लिए बाध्य नहीं होना पड़ता| यदि आप प्रेम नहीं करते हैं तो क्या आप शोक के भागी होते हैं? जब किसी से प्रेम ही नहीं तो उसने खोने का शोक कैसा? वास्तविक में शोक की भावना है ही नहीं तो यह स्वांग कैसा? क्या यह ज़रूरी है कि हम शोक दिखाए, क्या सहानुभूति से काम नहीं चल सकता, बिना कुख्यात किए क्या दुख में अनुकम्पा नहीं दर्शाई जा सकती?

घर में सन्नाटा पसरा हुआ था, किसी भी प्रकार की कोई हलचल नहीं थी| सभी एक एक कर शोक सभा से प्रस्थान कर चुके थे, अब सब को एक दूसरा मुद्दा मिल गया था चर्चा के लिए तथा अपनी अपनी राय देने के लिए और परिवार जनों को थोड़ा संतोष था कि अब घर में लड़ाई-झगड़े बंद आज से| सास के हाथ में फिर एक बार अपने जेष्ट पुत्र और उसके परिवार की सत्ता आ गई थी, देवरानी को अब घर के दो हिस्से होने का भय नहीं सतायेगा इसलिए वह मन ही मन प्रफुल्लित होती| बेटे को कोई आज से रोकेगा-टोकेगा नहीं, बार बार उसे किसी को कुछ बताने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी, बेटी जो चाहे वह कर सकती, बेचारी बिना माँ की हुई इसलिए परिवारजन थोड़ा अधिक स्नेह करते हुए उसे कल विदा कर देंगे, सब अपने अपने जीवन में पुनः लग जायगे किसी को कुछ फर्क नहीं पड़ेगा या फिर यूँ कहुँ वीराह में ह्रदय तब चीखेगा, जब बेटे को पिता से लष्टिका की चोट मिलेगी और मरहम लगाने वाला या बचाने वाला ईश्वर ना होगा, जब बेटी अपने ससुराल से आएगी तो उसे आलिंगन में भरने वाला कोई ना होगा, उसके सर पर हाथ फेर कर उसकी कुशलता पूछने वाला ईश्वर नहीं होगा, जब गठिया का दर्द घूटनों की सूजन बढ़ा देगा उस पर गर्म जल का ढार करने वाला ईश्वर ना होगा, जब अनुरागी से संग्राम होने पर मन भारी हो जायेगा तब दर्द बाटने वाला ईश्वर ना होगा| खैर किसको भविष्य की चिंता सताये, असली मज़ा तो अभी किसी मृतक के जाने पर संतोष करने में है, असली मज़ा तो चाबियों की छनकार सुनने में है, असली मज़ा तो खुल कर जीने में है|

आज सूर्य की किरण भी सूर्य के साथ अस्त हो गई| कल पुनः सूर्य उदय होगा परंतु अब यह किरण सूरज से पहले जाग कर कभी अपना धर्म नहीं निभाएगी| सब यह सोच रहे हैं कि उसे मुक्ति नहीं मिलेगी क्योंकि उसने आत्महत्या की है अपनी परिस्थितियों से हारकर, परंतु उसने देह त्यागी है प्रत्येक बार अपने अस्तित्व से लड़ते हुए, उसने अपने आप को अर्पित किया है अपनी माँ को, वह कोई हारी हुई नारी नहीं परंतु एक थकी हुई महिला थी, जो अपनी माँ की गोद में सिर रख कर सो गई है|

बसंत ऋतू सिर्फ खिले फूलों की नहीं है वह उन सूखी पत्तियों की भी है जो स्वयं को अर्पित कर देती है दूसरों को स्थापित कर देने के लिए|

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