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आई प्रकृति प्रिय मिलन को,

सुंदर महक संग लिया चमन को,
पूछ रही सखी तू कहाँ चली,
मिला जवाब प्रिय की आश लगी,
है एक नव तेरा दुल्हन-सा रूप,
देखने मे श्रृंगार लगे अनूप,
स्नान की इच्छा हुई तटनी के पास,
तरू पत्र है आज वस्त्र इसका खास,
आज भानु-सी बिंदिया दमक रही,
सुधाकर मांग टिका बन चमक रही,
अभी मेरा पूरा न हुआ श्रृंगार,
आगे कहती हूँ सारी बात,
सरोज पुष्प बनी कर्णमूल की शोभा,
अर्धचंद्र की है यही प्रभा,
लताएँ बनी मेरे करो का कंगन,
मेंहदी रची जैसे रंगोली भू पर,
पद मे नूपुर चपला की ही जैसी,
बिछुआ बनी सागर की मोती,
शिखा की सज्जा कर रहे तारेघट,
चल रही पूर्वा जैसे की अलमस्त,
अधर रंगे इंद्रधनुष के ही रंग,
सुंदर मुख मानो नवल दुल्हन,
सूरमा बनकर रजनी जो छाई,
उसपर कोई रंग उभर न पाई,
काढ़ी घूंघट ले दिया और बात्ती,
लगे सांवली भोर की भांति,
देखा जो पिय को सरोवर पार,
पद को स्पर्श कर किया सत्कार,
चारो ओर फैले हर्षोल्लास,
सार्थक हुआ प्रकृति का यौवन श्रृंगार।

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