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आत्मज्ञान प्राप्त करना यह कोई प्रयत्न साध्य प्रक्रिया नही है।

इसमें साधक को मन की शुद्धि के प्रयत्न एवम ईश्वर प्राप्ति की प्रबल इच्छा होना ही एकमात्र तरीका है।

एक कहानी आप ने सुनी होगी। एक बार एक व्यक्ति से पूछा गया अगर आप जंगल से गुजर रहे हो और अचनाक शेर आपके सामने आएगा तो आप क्या करेंगे ? तब उसका जवाब था अरे भाई ऐसी स्थिति में मैं भला क्या कर सकता हूँ? जो करना वो तो शेर साहब करेंगे।

ईश्वर प्राप्ति के बारे भी यही कहानी प्रायः बताई जाती है। मूलतः ईश्वर प्राप्ति और आत्मज्ञान ये एक से ही हैं। ईश्वर प्राप्ति में मन की शान्ति ही सर्वाधिक महत्व रखती है। जो भक्त या साधक मन शुद्धि के लिए प्रयत्न करते हुए तीव्रता से ईश्वरप्राप्ति की कामना करता है ये कामना मन शुद्धि के पश्चात ईश्वर कृपा से स्वयम ही सिद्ध हो जाती है।

मनुष्य संसार में चार अवस्थाओं के द्वारा अपना जीवन व्यतीत करता है। ये हैं जागृत, स्वप्न, सुषुप्त व तुरीय।

मनुष्य को उसकी इंद्रियों (कान, नाक, आंख आदि) से जो बाहरी जगत का अनुभव होता है और उनके आधार पर जिन कर्मों को वह करता है। उसको जागृत अवस्था कहा जाता है।

स्वप्न अवस्था में व्यक्ति के ऊपर अनुभवों का लोभ अधिक बढ़ जाता है। स्वप्न अवस्था को जागृत अवस्था से ज्यादा शक्तिशाली माना गया है। कई बार जो अनुभव हमें बाहरी जगत में नहीं मिलते हैं। वे अनुभव मन स्मृति के माध्यम से कल्पनाओं में मिल जाते हैं। इसी को स्वप्न अवस्था कहा गया है।

सुषुप्त अवस्था अवचेतन मन को बताती है। सुषुप्त अवस्था गहरी नींद की अवस्था होती है। इस अवस्था में व्यक्ति स्वप्न और जागृत अवस्थाओं के बीच में होता है और नींद की गहराइयों में लीन हो जाता है।

तुरीय अवस्था ध्यान की चौथी अवस्था है। इस अवस्था में मन और मस्तिष्क में कुछ भी नहीं चलता। यह समाधि की वह अवस्था है जिसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। समाधि में आनंद और परमात्मा का आत्मा से मिलन होता है, जिसे सिर्फ़ समाधि में पहुंचा योगी ही महसूस कर सकता है।

हम कई प्रपंचों में उलझे रहते हैं, कहां मन को शांति मिलती है। ईश्वर प्राप्ति के लिए कहें या आत्म चेतना के लिए सतत प्रयास करना होता है। साधारण मनुष्य के लिए संभव ही नहीं है, लेकिन अपने आप को अपने व्यवहार को संतुलित करने में आत्मज्ञान महत्वपूर्ण है। जब हम आत्मज्ञान को समझते हैं अपने आप में परिवर्तन महसूस करते हैं।

वर्तमान में मानव भौतिकवादी जीवन व्यतीत कर रहा है । वह अपने आस-पास पाई जाने वाली और अपने तन की जरूरतों को पूर्ण करने वाली वस्तुओं को ही सत्य मान कर बैठा हुआ है । स्वामी जी ने सत्संग में कहा कि जो-जो भी हमें नज़र आ रहा है, वह एक न एक दिन नष्ट हो जाएगा।

यह सम्पूर्ण संसार कागज़ की नांव की तरह है, जो सदैव रहने वाला नहीं है ।

भगवान बुद्ध की कहानी से इसे हम समझने का प्रयास करते हैं।

ज्ञान की प्राप्ति..

सिद्धार्थ ने अपने प्रश्नों के उत्तर ढूंढना शुरू किया। समुचित ध्यान लगा पाने के बाद भी उन्हें इन प्रश्नों के उत्तर नहीं मिले फिर उन्होंने तपस्या भी की लेकिन अपने प्रश्नों के उत्तर नहीं मिले। इसके बाद कुछ और साथियों के साथ अधिक कठोर तपस्या प्रारंभ की। ऐसे करते हुए छः वर्ष व्यतीत हो गए। भूख से व्याकुल मृत्यु के निकट पहुंचकर बिना प्रश्नों के उत्तर पाए वह कुछ और करने के बारे में विचार करने लगे थे। एक गांव में भोजन की तलाश में निकल गए फिर वहां थोड़ा सा भोजन ग्रहण किया। इसके बाद वह कठोर तपस्या छोड़कर एक पीपल के पेड़ (जो अब बोधिवृक्ष के नाम से जाना जाता है) के नीचे प्रतिज्ञा करके बैठ गए कि वह सत्य जाने बिना उठेंगे नहीं। वह सारी रात बैठे रहे और माना जाता है यही वह क्षण था जब सुबह के समय उन्हें पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। उनकी अविजया नष्ट हो गई और उन्हें निर्वन यानि बोधि प्राप्त हुई और वे 35 वर्ष की आयु में बुद्ध बन गए।

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