कोई भी रिश्ता पूजा जा सकता है बशर्ते अपनी गरिमा अगर बनाए रखा जाए। आमतौर पर लोग कहते हैं प्रेमिकाएं बदनाम रही हैं। तो हमारा मानना है कि बदनाम प्रेमिकाएं नहीं रही है मासुका रही हैं। प्रेम एक पवित्र बंधन है जिसे आमतौर पर समझना थोड़ा मुश्किल है। यूं तो आकर्षण को भी हम प्रेम का नाम दे देते हैं। जो कुछ पल साथ निभाता है फिर अपने अपने रास्ते और ना जा पाए अपने-अपने रास्ते तो एक दूसरे के रास्ते के कंकड़ बनने में लगे रहते हैं। सच्चा प्रेम तो वह है जहां खुशियां मायने रखती है। जहां प्रेमी के अथवा प्रेमिका के खुशी में खुश हो दुख में दुख हो उनके प्रेमी जन से बराबर का प्रेम हो। संघर्ष में साथ हो उनके कर्तव्य पर एक साथी के तौर पर साथ दिया जाए। अक्सर हम देखते हैं प्रेम को हासिल करना उद्देश्य होता। परंतु इन सब से परे हमारा मानना है की प्रेम तो वह है जो प्रेमी में इश्वर ढूंढ ले भक्ति बद्ध हो जाए।

अगर हम कृष्ण के जीवन में प्रेम देखें तो राधा, रुक्मिणी एवं मीरा को देख सकते हैं। सबका प्रेम अटूट रहा है। सब ने अपने-अपने तरीके से प्रेम किया। हम किसी की प्रेम को आंक नहीं सकते हैं। किसी को कम गलत या सही करार नहीं दे सकते हैं। सबकी अपनी अपनी अनुभूति है जो सुख राधा को मिला उसकी तुलना हम रुकमणी के सुख से नहीं कर सकते हैं और जो सम्मान मीरा को मिला वह हम राधा रानी के प्रेम में नहीं ढूंढ सकते हैं।

राधा और कृष्ण की प्रेम कथा भारतीय संस्कृति और धार्मिकता में एक विशेष स्थान रखती है। राधा कृष्ण का प्रेम एक अलौकिक प्रेम है, जो शारीरिक और सांसारिक प्रेम से परे है। यह प्रेम आध्यात्मिक और आत्मिक स्तर पर आधारित है, जो सभी सांसारिक बंधनों से मुक्त है। कृष्ण, जो कि भगवान विष्णु के अवतार माने जाते हैं, ने राधा के साथ अपने प्रेम संबंध के माध्यम से यह संदेश दिया कि प्रेम भगवान से जुड़ने का एक माध्यम है। राधा, जो कि कृष्ण की प्रियतम मानी जाती हैं, उनके साथ अपने प्रेम और भक्ति के माध्यम से आध्यात्मिक ऊँचाइयों को प्राप्त करती हैं। राधा का प्रेम कृष्ण के प्रति इतना प्रबल था कि वह स्वयं कृष्ण की पहचान का एक अभिन्न हिस्सा बन गईं। कृष्ण की लीला और उनके कार्यों में राधा की उपस्थिति उनकी शक्ति और उनके प्रेम की गहराई को दर्शाती है। राधा और कृष्ण का प्रेम संबंध संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए प्रेरणा का स्रोत है। यह प्रेम सांसारिक प्रेम से बिल्कुल अलग है, क्योंकि इसमें आत्मा की पवित्रता और उसकी इच्छा का स्थान प्रमुख है। राधा की भक्ति और कृष्ण के प्रति उनका समर्पण अद्वितीय है, जो इस प्रेम को असाधारण बनाता है। राधा का प्रेम कृष्ण के प्रति पूर्ण समर्पण का प्रतीक है, जिसमें उनके व्यक्तिगत अस्तित्व का कोई महत्व नहीं होता, बल्कि वे स्वयं को कृष्ण में ही विलीन कर देती हैं। राधा और कृष्ण का प्रेम संबंध मानवीय सीमाओं से परे है। यह प्रेम सभी प्रकार के भौतिक और सामाजिक बंधनों से ऊपर उठकर केवल आत्मा के मिलन पर आधारित है। उनके प्रेम की मधुरता और गहराई भारतीय साहित्य, कला, और संगीत में अनगिनत रूपों में अभिव्यक्त हुई है। अनेक संतों और कवियों ने राधा और कृष्ण के प्रेम को अपनी रचनाओं में गाया और उसे जन-जन तक पहुँचाया।गोपियों के साथ कृष्ण की रासलीला, जिसमें राधा का विशेष स्थान है, प्रेम की उस भावना को दर्शाता है जो किसी भी प्रकार की सीमाओं में बंधी नहीं है। यह प्रेम एक ऐसी स्थिति का प्रतीक है जहाँ आत्मा और परमात्मा का मिलन होता है। राधा की प्रेम भावना में कोई स्वार्थ नहीं है, उनका प्रेम केवल कृष्ण की आराधना में है। राधा और कृष्ण के इस दिव्य प्रेम ने मानव प्रेम को एक नई दृष्टि दी, जो न केवल भक्ति का प्रतीक है, बल्कि मोक्ष की प्राप्ति का भी मार्ग है। इस प्रकार, राधा और कृष्ण का मधुर संबंध भारतीय धार्मिकता और आध्यात्मिकता के सबसे महान प्रतीकों में से एक है। यह संबंध प्रेम, भक्ति, और समर्पण की पराकाष्ठा को दर्शाता है, जो समस्त संसार के लिए प्रेरणा और मार्गदर्शन का स्रोत है।

राधा, जो ब्रह्मांडीय प्रेम की देवी मानी जाती हैं, कृष्ण के प्रति अपने प्रेम और भक्ति के लिए प्रसिद्ध हैं। उनका प्रेम ऐसा है जो किसी भी सांसारिक बंधन से परे है और पूर्णत: आत्मिक स्तर पर आधारित है। राधा और कृष्ण का प्रेम भारतीय धार्मिक साहित्य, जैसे भगवद पुराण और गीत गोविंद में अद्वितीय रूप से वर्णित है। इन ग्रंथों में राधा और कृष्ण के प्रेम को एक दिव्य लीला के रूप में देखा गया है, जिसमें राधा की भक्ति और कृष्ण का प्रेम सर्वोच्च हैं। राधा और कृष्ण के संबंध को भारतीय समाज में अत्यंत सम्मानित किया जाता है। यह संबंध एक आदर्श के रूप में देखा जाता है, जो प्रेम और भक्ति के उच्चतम मानकों को स्थापित करता है। राधा का नाम कृष्ण से हमेशा जुड़ा रहता है, और दोनों का नाम एक साथ लिया जाता है। यह इस बात का प्रतीक है कि राधा का अस्तित्व कृष्ण के बिना अधूरा है, और कृष्ण का नाम राधा के बिना अधूरा है। इस प्रकार, राधा और कृष्ण एक दूसरे के पूरक माने जाते हैं, और उनके संबंध को सम्पूर्णता का प्रतीक माना जाता है। राधा कृष्ण के इस संबंध में इज्जत और आदर का एक और महत्वपूर्ण पहलू है उनका आध्यात्मिक अर्थ। राधा को शुद्ध आत्मा का प्रतीक माना जाता है, जो अपने प्रेम के माध्यम से भगवान तक पहुंचने का मार्ग दिखाती हैं। राधा और कृष्ण का प्रेम इस बात का प्रतीक है कि भगवान के प्रति भक्ति और प्रेम में कोई भौतिक या सामाजिक बाधा नहीं होती। इस प्रेम में आत्मा की पूर्ण स्वतंत्रता और भगवान के प्रति अनन्य प्रेम होता है।

राधा और कृष्ण के संबंध की इज्जत इसलिए भी की जाती है क्योंकि यह संबंध प्रेम, भक्ति, और आत्मिक एकता के उन उच्च आदर्शों का प्रतिनिधित्व करता है, जो भारतीय आध्यात्मिकता के मूल में हैं। यह संबंध हमें सिखाता है कि सच्चा प्रेम हमेशा निःस्वार्थ और समर्पित होता है, और यह प्रेम ही आत्मा को परमात्मा से जोड़ने का सबसे सशक्त माध्यम है। इस प्रकार, राधा और कृष्ण का संबंध भारतीय धार्मिकता और संस्कृति में एक आदर्श और सम्मानित स्थान रखता है।

रुक्मिणी का श्रीकृष्ण के प्रति अटूट प्रेम और भक्ति यह दर्शाता है कि जब किसी व्यक्ति का प्रेम और विश्वास सच्चा होता है, तो भगवान स्वयं उसकी रक्षा करने आते हैं। इस संबंध में, रुक्मिणी को 'पतिव्रता' के रूप में माना जाता है, जो अपने पति के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित होती हैं। द्वारका में रुक्मिणी का स्थान सबसे प्रमुख था, और उन्हें श्रीकृष्ण की प्रमुख पत्नी के रूप में माना जाता था। भगवान श्रीकृष्ण और रुक्मिणी का यह दिव्य संबंध धर्म, प्रेम और कर्तव्य का एक उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करता है। यह कथा सिखाती है कि सच्चा प्रेम और भक्ति कभी व्यर्थ नहीं जाते और भगवान अपने भक्तों की रक्षा और कल्याण के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। इस प्रकार, रुक्मिणी और श्रीकृष्ण का संबंध भारतीय संस्कृति और धर्म में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है, जिसे लोग श्रद्धा और भक्ति के साथ याद करते हैं।

मीरा का कृष्ण के प्रति प्रेम और समर्पण अद्वितीय था। उन्होंने कृष्ण को अपने पति और परम आराध्य मान लिया था, जो उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य बन गया। उनकी भक्ति और प्रेम ने उन्हें सांसारिक बंधनों से मुक्त कर दिया था। मीरा के जीवन का हर पहलू कृष्ण के प्रति समर्पित था। उन्होंने अपने काव्य में कृष्ण के साथ अपने गहरे भावनात्मक और आध्यात्मिक संबंध को व्यक्त किया है। उनके भजनों में कृष्ण के प्रति अटूट प्रेम, समर्पण और विरह का भाव मुखर रूप से प्रकट होता है। मीरा के जीवन में कई कठिनाइयाँ आईं। उनका विवाह मेवाड़ के राजा भोजराज से हुआ था, लेकिन उनके पति की अकाल मृत्यु के बाद, मीरा ने राजमहल की सुख-सुविधाओं को त्यागकर स्वयं को पूरी तरह से कृष्ण की भक्ति में लीन कर लिया। उनके इस समर्पण को परिवार और समाज ने हमेशा स्वीकार नहीं किया। उन्हें कई बार अपमान और तिरस्कार का सामना करना पड़ा, लेकिन मीरा की भक्ति और प्रेम में कोई कमी नहीं आई। उन्होंने कृष्ण को अपने जीवन का आधार मान लिया था और किसी भी परिस्थिति में उनका नाम लेना नहीं छोड़ा।मीरा के भजनों में कृष्ण के प्रति उनका अद्वितीय प्रेम, उनका वैराग्य, और सांसारिक मोह-माया से परे उनका दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से झलकता है। उनके भजन आज भी गाए जाते हैं और भक्ति संगीत में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। उनकी रचनाओं में मुख्य रूप से कृष्ण के प्रति प्रेम, संयोग-वियोग, और ईश्वर के प्रति समर्पण की भावना व्यक्त की गई है। मीरा की भक्ति ने समाज की रूढ़िवादिता और स्त्रियों की सामाजिक सीमाओं को चुनौती दी। उन्होंने अपने जीवन से यह सिद्ध किया कि सच्ची भक्ति किसी भी प्रकार के बंधनों से मुक्त होती है। उनका जीवन और उनके भजन आज भी भक्ति और प्रेम का उत्कृष्ट उदाहरण माने जाते हैं। उनकी कृष्ण भक्ति ने उन्हें जन-जन में अमर बना दिया है। मीरा बाई की रचनाएँ और उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि जब भक्ति और प्रेम अटूट हो, तो व्यक्ति हर प्रकार के कष्टों और बाधाओं को पार कर सकता है। उनका जीवन और काव्य सदियों से लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत बना हुआ है।

अतः हमने देखा की प्रेम जिस रूप में है उसी रूप में सफल हो सकता है। राधा ने पाने की इच्छा ना रखी, रुक्मणी ने सिर्फ अपना बनाने की इच्छा ना रखी और मीरा तो भक्ति में यूं लिन हुई की अपना सर्वस्य न्योछावर कर दिया। प्रेम को हवास की तौर पर ना ले कर अगर हम अपने अध्यात्म से में प्रेम की व्याख्या देखें और उसे जीवन में अपना ने की कोशिश करें।

हम तुझको क्या पाएंगे
और दूर भी तुमसे कहा जाएंगे
तुम जहा भी रहो हम चाहेंगे
राधा ना बनू
गर रुक्मिणी भी न बनू
तो मीरा बन तेरी रज में खो जाएंगे ।।

.    .    .

Discus