Image by Priyal Jain

सिर ढके तो मोर सी नहीं ढके तो ढोर सी।

कुछ मनचलों ने इसका चित्र सहित पोस्टर बना मन्दिर में पैर धोने वाली जगह टांग दिया है।

मेरी नज़र पहले जीन्स टॉप और बिना सर ढके साड़ी पहनी सर ढोर तन नारी पर पड़ी।

और मैं, खड़ी की खड़ी रह गयी।

मन्दिर के बाहर जब सर टेका था तब हवा के झोंके से मेरा दुपट्टा भी कुर्ते पर आन गिरा था।

5 मिनट तक बस उसे निहारती रही। जी नहीं! अपमानित नहीं, आहत अनुभव कर रही थी।

जबसे मैंने लिबास के लिहाज़ का रिवाज़ सीखा है तब से सर ढक के मंदिर आना किसी सतीत्व का प्रदर्शन नहीं, ईश्वर के प्रति सम्मान की एक नैसर्गिक क्रिया रही है।

न मालूम उस निर्विकल्प, निर्विकार, निर्लिप्त परमात्मा के प्रति इतनी श्रद्धा इस आत्मा में कहाँ से आई?

लेकिन आज तक मात्र एक ही नौजवान को सफेद टोपी पहन मन्दिर आते देखा है। वो कहते है न हेलीस कॉमेट।

मन किया पेन से लिख दूं-

सर ढके तो कुँवर सा, न ढके तो सूअर सा।

हाँ तो उनका क्या जो भगवान का अभिषेक-पूजा करते समय भी सर नहीं ढकते, इस प्रकार लंगोट धोती पहनते हैं मानो अंग प्रदर्शन का फैशन शो यही कर रहे हो। और प्रवचन सुनते समय भी किसी बाला को तब तक देखते रहते हैं जब तक निगाहें कोर तक नहीं पहुँच जाती।

पर याद आया, अगर किसी ने लिखते देख लिया तो "कितनी संस्कारी कन्या है, जवाब तो कभी देती ही नहीं है" की छवि का क्या होगा?

हमारे ईश्वर से अधिक निर्लिप्त और कौन होगा? उन्हें क्या नारी क्या पुरुष क्या बूढ़ा क्या जवान?

लेकिन जनाब ये तो आपके जनाना हैं जो सिर्फ स्त्रियों पर लागू होते हैं। और क्या, पुरुष को उस ईश्वर के प्रति सम्मान तो तब जागेगा न जब वे मन्दिर आती स्त्रियों के त्रिया चरित का चिंतन छोड़ेंगे।

जैसे तैसे मैं भीतर प्रवेश की। विचारों की उधेड़बुन में सर अभी भी ढका नहीं है।

आज भगवान को जितने इत्मीनान से देखती हूँ उतने ही ध्यान से सबके सर देख रही हूँ। लगभग सभी स्त्रियों का सर ढका है और लगभग सभी पुरुषों का नहीं। जिनके नहीं ढके हैं उनमें से कुछ नई बहुएं 5 मीटर मोटे कपड़े में लिपटी (जिनकी आदत उन्हें अभी पड़ी नहीं है) थाकि सी बार बार गिरते पल्लू को बार बार ढक रहीं हैं। कुछ दादियां मीरा सी ऐसी मन मस्त मगन भक्ति कर रही हैं कि उन्हें भान ही नहीं कि उनका सर ढका नहीं है। चल रही हूँ, चलते चलते एक नन्हीं सी जान से तन टकराया। अरे इसका भी तो सर नहीं ढका। मतलब ये भी ढोर?

कहीं यही गौमाता के प्रति मेरे अप्रतिम प्रेम का कारण तो नहीं!

उसे देख रही हूँ। भगवान को देख रही हूँ। आते जाते सर देख रही हूँ कि अचानक नज़र रुकी, एक दादाजी अपनी लाठी थामे ओम ओम पुकारे जा रहे थे। उन्हें देख मन में प्रसन्नता का ऐसा अंकुर फूटा कि हृदय लहलहा उठा।

उसके बाद एक नन्हा मुन्ना देखा, प्रवचन देते पण्डित को देखा, पूजा में मगन एक भाव विभोर किशोर को देखा। लगा ईश्वर बनने के पहले ईश्वर ऐसे ही दिखते होंगे।

ये वो चन्द चेहरे थे जिन्हें बहुमत के आवेश में मैंने भुला दिया था। अब दीख पड़ते हैं। ना ना सर इनमे से किसी का न ढका था, पर सच कहूँ तो इन्हें किसी के सर से कोई मतलब ही नहीं था। कभी कभी सम्मान भीतर से आता है, हृदय की भीत को तर कर देता है।

खैर, बहुमत तो इनका था नहीं। बस, फिर क्या?

बार बार ऐसे मनचलों का चेहरा देख जी मिचलाने लगा। परिक्रमा लगाते हुए लगा कहीं यही चक्कर खाकर न गिर जाऊँ वरना उठकर कहूंगी क्या?

आदमी औरत पर अपने चित्त दोलायमान होने का

इल्ज़ाम जितनी आसानी से लगा सकता है क्या औरत उसके बदले "कानून बनाने के पहले स्वयं उसपर चलना सीखो" इतना भी कह सकती है?

यदि तुलसी का हवाला देकर सबला को ताड़नयोग्य बनाने में ही पुरूष का पौरुष है तो पहले स्वयं तुलसी क्यों नहीं बनते? सीता चाहते हो तो स्वयं श्री राम क्यों नहीं बनते?

इन अनसुलझी गुत्थियों में खोई मैं दर्शन कर पूजा करने बैठी।

ये क्या? शांत, निराकुल, स्वयम्भू वह परमात्मा कैसा लवलीन है। न मालूम हाथों ने सर को कब ढक दिया और मन ने कहा हे ईश्वर इस संसार को क्या कहूँ? बस तुम सम बन जाऊँ अर्धनारीश्वर।

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