पहली बार मैं उस खूबसूरती से रुबरु हुई जिसकी तलाश थी हफ्तों से। जब से मैनें उस सिनेमा की नायिका को देखा, लगा कि बस यही होगी वो अप्सरा जिसने ब्रह्मा तक को हिला डाला था। पर जब डायन सी उसकी असली शक्ल देखी तो समझ में आया कि हिरोशिमा पर पहला परमाणु बम कैसे गिरा होगा।

उस समय तक मेरे कोमल हृदय ने बनावटी सौन्दर्य को समझा न था। अब मैं तलाश करती, कहाँ है वास्तविक सुंदरता? इतना तो तय था कि वो किसी स्त्री के पास ही मिलेगी। बस, फिर क्या था। झाडू लगाने वाली बाई से लेकर बर्तन वाली बाई तक सबके चेहरों का निरीक्षण करने की ठानी। पर ये लाज की देवियाँ तो शौचालय तक में अपना घूँघट न हटाती थी। आखिर, हम किसी को न देख पाए।

एक दिन आँगन में खेलते हुए मैंने एक सांवली सलोनी सी आकृति को बाल सुखाते हुए देखा। दुबले पतले तन को ढकने के लिए चारों तरफ से साड़ी का अतिक्रमण था, मानो होड़ लगी हो कि एक भी अंग का दर्शन न होने पाए। पर मानो उसके चेहरे ने ही कुछ जादू सा कर दिया। दूर से ही उस झाँकी को देखकर मैं जान गई कि सुंदरता यही है। पास आकर देखा तो माँ ने कहा "मैं बाल धोने क्या गई तुमने तो सारे गाँव की धूल सर चढ़ा ली। इसी तरह रहोगी तो मेरे जैसी काली हो जाओगी। जाओ नहा लो"| सच कहूँ तो उस दिन जीवन में पहली बार जाना कि सुंदरता क्या होती है!

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