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कोई भी लड़की तैयार होते वक्त अपनी चोटी बना रही होती है और वो ये सोचकर बाल खुले ही छोड़ देती है कि चार सहेलिया क्या कहेगी, अगर मैं आज भी इस तरह की चोटी ही डालूगी तो? एक औरत सिर पर पल्लू डालते हुए रूक गई, आज के जमाने में भी पल्लू रखूगी तो चार औरते क्या कहेगी सोचकर। वहीं एक युवा पार्टी में जाने के लिए तैयार हो रहा था और उसके पास कोई सूट ना था, तो वो उदार पर सूट ले आया बस ये सोचकर कि सूट नहीं पहनूँगा तो, चार लोगो के बीच मेरा क्या सम्मान रहेगा?
कोई साधारण कपड़े पहनते वक्त तो, कोई बाल बनाते वक्त, बस यहीं सोचता है फलाना लोग क्या कहेगे? कोई पार्टी में जाते वक्त तो, कोई खाने-पीने और अन्य शौक को लेकर यहीं सोचता है चार लोग क्या कहेगे? अगर किसी पढ़े लिखे युवा को कोई छोटा काम करने कह दो तो, वो यहीं कहता है लोग क्या कहेगे?
ये जो सोच है, ये जो सवाल है, चार लोग कहा कहेगे, फलाना लोग क्या कहेगे, ये ही तो दुनिया का सबसे भंयकर रोग है और वो भी एक ऐसा रोग, जिससे कोई नहीं बच पाया है। चाहे बच्चा हो या वृद्ध हो, अमीर हो या गरीब हो, औरत हो या आदमी हो, लड़का हो या लड़की हो। आजकल हर व्यक्ति अपने फैसले बस इसलिए बदल देता है, लोग क्या कहेगे सोचकर। और इसी के चलते हम अपना कितना बड़ा नुकसान कर रहे है, खुदको इस रोग के मुंह में धकेले जा रहे है, इस ओर हमारा ध्यान ही नहीं रहा है। या यू कहो कि हम सब अपनी जिन्दगी लोगो की शर्तो पर, लोगो के मुताबिक ही बस जबरदस्ती काट रहे है।
क्योंकि सही मायने में जीना तो उसे कहते है, जिससे हम वाकई खुश हो। बस लोगो को दिखाने के लिए या कोई हमारे बारे में क्या कहेगा सोचकर, अपने जीवन के फैसले लेना ये जीना नहीं, जिन्दगी को जबरदस्ती काटना ही होता है। और कई ना कई हर कोई इस बात को अन्दर ही अन्दर महसूस भी करता है कि उसे उस चीज से उस काम से खुशी नहीं होती है, जो वो सिर्फ दिखावे के लिए कर रहा है। फिर भी हम खुदको दूसरो के अनुसार ढालने में लग जाते है और अंत में पछतावे के अलावा हमारे पास कुछ शेष नहीं रहता है।
एक वृद्ध जिसे कांटे के चम्मच से खाना खाना नहीं आता, वो अगर अपने बच्चो के साथ किसी आलीशान पार्टी में चला गया और हाथ से खाना खाने लगा तो, उसके बच्चे उसे ऑंखे दिखाकर कहेगे आप ये क्या कर रहे है? सब लोग हमे ही देख रहे है और वे हमारा मजाक उड़ायेगे, इसीलिए आप कांटे के चम्मच से ही खाइए। चाहे इस बात से उस वृद्ध के हदय को कितनी भी ठेस पहुंचे, पर लोगो को दिखाने के लिए बच्चे अपने बड़ो की भावनाओ को ही ठेस पहुंचा देते है।
एक औरत अगर आज के जमाने के हिसाब से खुदको नहीं ढालती है और वो साडी वाडी पहनकर साधारण तरीके से तैयार हो गई तो, उसे भी उसका पति और बच्चे यहीं कहेगे जमाना अब बदल गया है और तुम क्या ये वहीं पुरानी साडी पहनकर बहन जी की तरह तैयार हो गई? तुमने देखा नहीं वो तुम्हारी सहेली कैसे तैयार होती है, उससे सीखो कुछ।
और वहीं एक लड़की पढ़ाई करके करियर बनाना चाहती है तो, तब उसे उसके घरवाले यहीं कहते है शादी की उम्र हो गई है, अब नहीं तो कब शादी करेगी? राजा की बेटी को भी शादी करके जाना पड़ता है, तू कब तक महारानी बनकर पड़ी रहेगी? तेरी सहेलियो को ही देख ले, सबकी शादी हो गई है। वो बाजू पड़ोसन की लड़की को ही देख ले, उसके तो दो दो बच्चे भी हो गये है।
ये जो लोग क्या कहेगे, समाज क्या कहेगा कह कहकर हम अपना और अपनो की भावनाओ को जिस तरह रौंद रह रहे है, इस तरह हम अपने ही जीवन और रिश्तो को बर्बाद कर रहे है। अक्सर लोगो से अपने हालातो की तुलना करना या लोगो की देखादेखी करना, भला कहां तक ठीक होता है? पर चाहे इस दौरान हमारी जिन्दगी नर्क ही क्यों ना बन जाए, फिर भी हम सबकुछ चुपचाप करते रहते है और इन सबका असर हमे एक भंयकर रोग के मुंह में डाल देता है।
अगर कोई लड़की के ससुराल वाले उसे परेशान करे, तब भी मॉं बाप उससे क्या कहते है अब वहीं तेरा घर है और तुझे सब सहना होगा। अगर तू ससुराल छोड़कर आ गई तो, लोग हमे ताने मार मारकर हमारा जीना हराम कर देगे।
चलिए ये बात हम एक उदाहरण लेकर समझते है। एक लड़का अपने चार दोस्तो को देखकर तंबाकू खाने लग गया बस यहीं सोचकर कि सब खाते है और मैं नहीं खाऊंगा तो मैं सबसे अलग पिछडा हुआ रह जाऊंगा। और उसका परिणाम ये हुआ कि उस लड़के का शरीर बाकी सब की तरह उस तंबाकू को हजम नहीं कर पाया और उसे कैंसर हो गया। अब उसे कैंसर का इलाज करवाने पैसो की जरूरत है और वो अपने उन्हीं चार दोस्तो से मदद मांगता है। पर उसका कोई दोस्त मदद नहीं करता, क्यों? क्योंकि वे सब और किसी नये लड़के को तंबाकू की आदत लगाने में बिजी है और पार्टी कर रहे है। अब उस लड़के को अहसास हुआ कि जिन चार दोस्तो को देखकर और जिनके कहने पर उसने तंबाकू खाने की आदत डाली, वहीं दोस्त उसके साथ नहीं है। और वो खुद को कोस रहा है कि काश मैं उनकी बातो में आया ही ना होता, तो आज मेरा ये हाल नहीं होता। पर अब उसके पास अफसोस करने के सिवाय कुछ नहीं रहा और वो मौत के मुंह में चला गया। उसके बाद भी उसके चार दोस्त कंधा देने भी नहीं आए, क्योंकि उन्हें इस बात से कोई फर्क ही नहीं पड़ता कि उनका दोस्त मरे या जिए।
ये आजकल की वास्तविकता है। जहां हम लोगो की बातो में आकर, लोगो के तरीके से अपने-आप को बदल देते है और अपना वास्तविक सुख चैन सब खो देते है। और फिर हमे इस बात का अहसास बहुत देर बाद होता है, तब सिवाय पछतावे के हमारे पास कुछ नहीं होता। और ये एक कडवा सच है कि आप जिन लोगो के बारे में सोच सोचकर अपनी ही जिन्दगी खराब कर लेते हो, उन चार लोगो को आपके मरने से भी कोई फर्क नहीं पड़ता। और पहले तो भी ऐसा था कि वो चार लोग आपको कंधा देने ही आ जाते थे, पर वर्तमान में तो शवो को बिना कंधे के भी श्मशान ले जा सकते है।
अब आप खुद सोचिए, विचार करिए, मतलबी दुनिया के बारे में जानकर भी अपने-आप को लोगो की उंगलुयो पर नचाते रहना कहां तक ठीक है? आज ऐसा कोई इंसान नहीं है, जिसके मन में किसी भी बात को लेकर ऐसा ख्याल या सोच ना आई हो कि मैं ये करूंगा या ये पहनूँगा तो, लोग क्या कहेगे? लोग क्या सोचेगे?
अगर आप वाकई इस भंयकर रोग से खुद को बचाना चाहते है तो, आज से ही ये सोचकर फैसले लेना बंद कर दीजिए कि लोग क्या बोलेगे, लोग क्या सोचेगे मेरे बारे में। बस सुनिए सबकी और करिए अपने मन की, अपनी अन्तरात्मा की। और एक बात याद रखिए लोगो का काम ही कहना है। आपने ये सुना ही होगा ना लोग अमरूद खरीदते वक्त भी पूछते है मीठे है क्या और फिर उसपर नमक लगाकर खाते है। इसलिए बस कोई ऐसा कार्य मत करिए, जिस कारण आप ईश्वर की नजर में गलत हो। अगर आपको कुछ समझ ना आए तो, ईश्वर के आगे बैठ जाइए और अपनी सारी समस्या उन्हें बताए और फिर शांत मन से फैसले ले। आपका मन, आपकी अन्तरात्मा से जो जवाब मिलेगा, वहीं ईश्वर की आवाज है और बस उसी पर अम्ल करिए। क्योंकि हमे एक ही जिन्दगी मिली है और उसे भी लोगो की शर्तो पर जिया तो, फिर क्या ही जिया?