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कई दशकों बाद, बच्चों की ज़िद के चलते इस बरस दशहरे के दिन 'रावण दहन' के लिए शहर के दशहरा मैदान में जाना हुआ। यूँ तो शहर में छोटे-बड़े मिलाकर 60-65 जगहों पर' रावण दहन' होता है पर ये वाला 'रावण' 108 फ़ीट ऊंचा था और इसे शहर के सबसे 'ऊंचे रावण' होने का गौरव प्रदान किया गया था (मेरे ख़्याल से शायद उसमें बुराइयां भी ऊँचाई के अनुपात में ही होंगी ???)। 'रावण दहन' का समय रात 8 बजे निर्धारित था, उस हिसाब से हमलोग पौने आठ बजे के लगभग आयोजन स्थल पर पहुँच गए, अच्छी-खासी भीड़ जमा थी, किन्तु जैसा हमेशा होता है कि आयोजन समिति इस तरह के अवसर का पूरा लाभ उठाना चाहती है और इसी वजह से ऐसे सार्वजनिक कार्यक्रमों में जिस चीज़ को हमेशा न्यूनतम महत्त्व दिया जाता है वह है - समय। छुटभैये नेता टाइप के लोगों को भाषणबाज़ी करने का इससे अच्छा अवसर कहाँ मिलता जब इतनी भारी संख्या में लोग उन्हें सुनें (मन-मारकर ही सही)। आयोजकों के रिश्तेदारों, पड़ोसियों, बच्चों सभी में अपना-अपना टेलैंट दिखाने की होड़ सी मची हुई थी , कसर थी तो बाहर से भी दो-चार गायक एवं हास्य कलाकार बुला लिए गए थे , चूँकि उन्हें पेमेंट देकर बुलाया गया था तो उनको तो सुनना ही था। कुल मिलाकर भीड़ के पीछे खड़े हुए रावण, कुम्भकर्ण और मेघनाद के पुतलों को अपनी बारी आने के लिए अभी काफी इंतज़ार करना था।
बच्चे तो हंसी-ठट्टे में लग गए पर मुझे समझ आ गया कि डेढ़-दो घंटे से पहले 'रावण दहन' होने से रहा अतः मौके की नज़ाकत को समझते हुए मैंने एक लम्बी सांस ली और रिलैक्स होकर मैदान के चारों और एक सरसरी निगाह डाली। भीड़ में ज्यादातर लोग आस-पास के छोटे कस्बों से आये हुए लग रहे थे क्योंकि शहर के तथाकथित बुद्धिजीवी और आधुनिक वर्ग तो ऐसे आयोजनों में शिरकत करने से रहा (उनके पास ऐसे फ़िज़ूल कामों के लिए समयाभाव जो है)। छोटे-छोटे बच्चे हाथों में लाल-नीले-सुनहरे रंग के बांस से बने हुए धनुष-बाण और गदा लिए हुए ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो श्रीराम की सेना इनके बिना लंका पर चढ़ाई नहीं कर सकेगी। मैदान के बाहर छोटे-छोटे हाथ-ठेले, रेहड़ी वाले खड़े थे किसी पर मूंगफली और पॉपकॉर्न भूंजे जा रहे थे, तो कहीं पानी-पूरी वाला बिना रुके लोगों को गोल-गप्पे दिए जा रहा था। चूड़ी, बिंदी और अन्य सजावटी सामान के ठेले भी गांव से आयी हुई महिलाओं के बीच आकर्षण का केंद्र बने हुए थे। दो-चार गैस के गुब्बारे वाले भी थे जो ऐसे अभिभावकों के आस-पास ही मंडरा रहे थे जो बच्चों के साथ थे। प्लास्टिक के खिलौने, डमरू, बाजा, बांसुरी और भी इसी तरह की न जाने क्या-क्या वस्तुओं की छोटी-बड़ी अनेकों दुकानें एक दिन में ही वहां जम गयी थीं।
मैं सहसा ही अपने बचपन में चली गयी। देवी विसर्जन का वो शानदार जुलूस, ढोल-नगाड़े बजाते हुए लोग, शेर का मुखौटा लगाकर शरीर पर काली-पीली धारियां उकेरे हुए, झूमकर नृत्य करते हुए भक्त, हज़ारों नर-नारियों का हुज़ूम, अपने हाथों में मूंगफली और चिक्की के पैकेट पकडे हुए हम बच्चे कैसे मुंह खोले उन्हें देखकर अचंभित होते थे। चहुंओर उल्लास और उमंग का वातावरण बिखरा होता था सब उस पल को भरपूर जी लेना चाहते थे। आपसी प्रेम, सौहार्द और सहयोग अपने चरम पर होता था। तभी मैदान में हुई आतिशबाज़ी की धूम-धाम ने मुझे वर्तमान में वापस ला दिया।
मुझे लगा बदला तो अभी भी कुछ नहीं है वही त्यौहार, वही लोग, वही आनंद और उत्सव का वातावरण फिर... फिर क्या चीज़ मिसिंग है ? शायद अपनी महत्वाकांक्षाओं और अनावश्यक ज़रूरतों को पूरा करने और दिखावे के चक्कर में हम स्वयं ही अपने दुश्मन बन बैठे हैं। आगे बढ़ने और तरक्की करने का तात्पर्य यह तो कदापि नहीं है कि हम अपने रीति-रिवाज़ों और परम्पराओं को दरकिनार कर दें। जो बड़ी-बड़ी खुशियां , छोटी-छोटी बातों से हमें यूँ ही मिल जाया करतीं हमने उन्हें अनदेखा कर दिया और अपनी 8 से 8 की मशीनी ज़िन्दगी जीने में लगे रहे। पहले परीक्षाओं में, फिर नौकरी में होने वाली गला-काट प्रतिस्पर्धा को जायज़ ठहराते हुए हमने अपने ही पैरों में बेड़ियाँ जकड़ लीं और जिस आरामदायक और ठाट की ज़िन्दगी को पाने के लिए इतनी भाग-दौड़ करते रहे उसे भोगने का वक्त और हिम्मत दोनों ही नहीं रही।
तीज-त्यौहार तो हमेशा से ऐसे ही आते रहें हैं , कोई भी धर्म, कोई भी सम्प्रदाय के आप हो उससे फर्क नहीं पड़ता; फर्क पड़ता है तो अपनी सोच बदलने से। हमने उत्सवों को सोशल मीडिया पर बधाई देने, फोटो पोस्ट करने तक सीमित कर दिया है। हमारी संस्कृति में इन त्यौहारों का जो असली सत्व यानि एसेंस है हमने उसे ही विस्मृत कर दिया। पड़ोसियों और रिश्तेदारों से बिना किसी प्रयोजन के प्रत्यक्ष मिलना-जुलना, यूँ ही उनकी कुशल-क्षेम पूछना हम न जाने कब से भुला बैठे हैं।
जड़ों से जुड़ा रहना हमेशा सुखद एवं कल्याणकारी ही होता है चाहे वो पेड़-पौधे हों या मनुष्य। हालाँकि यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है किन्तु वर्तमान समय में हमें इसके लिए अनावश्यक प्रयास करने पड़ रहे हैं। हम अपने दुश्मन आप बने बैठे हैं। हमने दुनिया को दिखावे के लिए बनावटीपन का जो आवरण ओढ़ रखा था दरअसल अब हम उसे ही अपना वास्तविक चेहरा समझने लगे हैं । शनैः शनैः ये कब हम पर हावी होता गया हम स्वयं इससे अनभिज्ञ रहे । हम जानते हैं कि जब भी इसे भूलकर हम अपने प्रियजनों या दोस्तों के साथ छोटी-बड़ी खुशियों में शामिल हुए हैं हमें आनंद की प्राप्ति ही हुई है लेकिन हम डर जाते हैं, अपराध-बोध से ग्रस्त हो जाते हैं कि इस तरह नार्मल होकर व्यवहार करना ठीक नहीं है हमें अपने दिखावटी आवरण में ही रहना चाहिए। हमारे इस 'मानवोचित व्यवहार' से कहीं कोई हमें 'अंडर एस्टीमेट' न करने लगे।
जबकि हम सभी इस कटु सत्य से भलीभांति परिचित हैं कि भौतिक वस्तुएं व जबरन खुश रहने के लिए किये गए प्रयास कभी भी मानसिक शांति का कारक नहीं हो सकते। वे हमें जीवन पर्यन्त उलझाए रख सकते हैं लेकिन हमें वास्तविक ख़ुशी नहीं दे सकते क्योंकि 'मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है' यह वाक्य भले ही दशकों पुराना और घिसा-पिटा हो पर आज भी उतना ही प्रासंगिक है। समाज में रहते हुए एक-दूसरे से मिलना-जुलना, एक-दूसरे के काम आना, दुःख-दर्द को आपस में साझा करना यही मनुष्य-धर्म है। तभी तो हम मनुष्य अन्य प्राणियों से इतर हैं। समय-समय पर आने वाले तीज-त्यौहार हमारे जीवन में नए-नए रंग लेकर आते हैं, हममें नयी ऊर्जा का संचार करते हैं। कुछ समय के लिए ही सही पर हम अपने दुःख-दर्द, परेशानियों को भूलकर वास्तविक व आंतरिक आनंद का सुख तो उठा ही सकते हैं। हमने इस स्वाभाविक और स्वतः मिलने वाले सुख से वर्षों अपने आप को वंचित रखा पर अब और नहीं। हमें यह समझना होगा कि ये हमारे नैतिक और सामाजिक उत्थान में सहायक ही होते हैं इन्हें आडम्बर या पिछड़ापन समझना हमारी सबसे बड़ी भूल होगी। हमें अपने मूल, अपनी जड़ों की ओर लौटना ही होगा ताकि हम अपनी संस्कृति और परम्पराओं की अनमोल विरासत भावी पीढ़ी को सकुशल सौंप सकें जिससे वे भी जीवन को एक उत्सव की तरह जियें और उसका भरपूर आनंद उठायें।