बैंकाक के एक मंदिर में भगवान बुद्ध की सोने की एक मूर्ति है जो कि 9.8” ऊंची है और लगभग 5.5 टन की है, जिसका वर्तमान मूल्य अरबों में है. मेरी जानकारी के मुताबिक इस मूर्ति के पीछे की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है. कहते हैं कि इस मूर्ति का निर्माण करीब 1403 ईसवी में हुआ था और ये कई सदियों तक बौद्ध धर्मावलम्बियों के द्वारा पूजी जाती रही. लगभग 1757 ईसवी में बर्मी सेना ने थाईलैंड पर आक्रमण किया और चारों तरफ विनाशलीला फ़ैल गई, तब मठ में रहने वाले बौद्ध भिक्षुओं ने इस स्वर्ण मूर्ति को बर्मी आतताईयों से सुरक्षित रखने के लिए, इस पर मिट्टी का एक आवरण चढ़ा दिया जिससे इस सोने की मूर्ति पर उनकी नज़र नहीं पड़ी. इस आक्रमण के दौरान मठ के सभी भिक्षु मारे गए और 'गोल्डन बुद्ध' की ये मूर्ति अनचीन्ही, अनजानी ही रह गई. बाद में उस मठ को पुनर्स्थापित किया गया. लगभग 1956-57 के दरमियान जब बौद्ध भिक्षु इसी मिट्टी की मूर्ति को कहीं दूसरी जगह स्थापित कर रहे थे तो एक भिक्षु की नज़र इस मूर्ति पर आयी एक दरार पर पड़ी उसे भरने के लिए जब प्रयत्न किया गया तो अंदर से कुछ तेज़ चमकीली रोशनी दिखाई पड़ी जब उस हिस्से की मिट्टी को हटाकर देखा गया, तब जाकर ये खोज हुई कि ये मूर्ति तो शुद्ध सोने से निर्मित है. हममें से कई लोगों ने ये कहानी पहले भी पढ़ी या सुनी होगी लेकिन यहां इस कहानी को सुनाने का अभिप्राय सिर्फ इतना है कि हम मनुष्य भी अपना पूरा जीवन एक छद्म आवरण के तले व्यतीत कर देते हैं हमारा असल स्वरुप क्या है, हमें कैसे जीना चाहिए ये हमें पता ही नहीं चलता और जीवन पूर्ण हो जाता है. अतः ‘गोल्डन बुद्ध’ की इस मूर्ति की ही तरह हमारी ज़िन्दगी का उद्देश्य भी अपने आप की खोज कर उसे सही ढंग से पुनर्स्थापित करना होना चाहिए ताकि एक बेहतर और उज्जवल समाज की स्थापना में हम अपना योगदान दे सकें क्योंकि परमात्मा ने तो हमें स्निग्ध और आनंद से परिपूर्ण आत्मा के साथ ये जीवन सौंपा है परन्तु हमने इसे क्या से क्या बना दिया? हम कौन हैं? क्या हैं? और ये जीवन हमें क्यों मिला है? इसके जवाब हमें स्वयं ही तलाशने होंगे क्योंकि ये हमारे अवचेतन में दबे पड़े हैं, जरूरत है तो उन्हें झकझोर कर बाहर लाने की. मनुष्य जीवन एक बार ही मिलता है, उसे यूँ व्यर्थ नहीं जाने दे सकते. संत कबीर भी कह गए हैं कि "जो मैं ग्यान विचार न पाया, तो मैं यों ही जनम गंवाया". प्रेम, दया, करुणा, त्याग, आनंद. ये ऐसे गुण हैं जो हमें मनुष्य होने का एहसास कराते हैं, ये हमारी आत्मा के स्वाभाविक गुण हैं, इनसे हमारा जीवन प्रकाशवान बनता है, पर वर्तमान जीवन की भागम-भाग में आकंठ डूबे हुए हमने इन्हें अपने अंतर्मन में कहीं गहरे आवरण में ढंक दिया है, इस आवरण को उतारकर हमें अपने अंदर के 'गोल्डन बुद्ध' को जगाना है, उसे बाहर लाना है क्योंकि इसके बिना हमारा जीवन सार्थक नहीं होगा. अस्तु यक्ष प्रश्न ये है कि ये सब होगा कैसे? सीधी सी बात है इसके लिए हमें स्वयं पर काम करना होगा, ये थोड़ा मुश्किल जरूर होगा परन्तु असंभव बिलकुल नहीं. दरअसल हमने अपने मन के ऊपर समाज, परिवार और अपने स्वयं की आकाँक्षाओं और कुंठाओं की परत दर परत चढ़ा ली है, अब उनसे निजात पाना भी हमारी ही जिम्मेदारी है. धीरे-धीरे ही सही हमें इस पर काम करना ही होगा. एक-एक करके इन परतों को उतारना होगा जिससे ठीक 'गोल्डन बुद्ध' की मूर्ति की ही तरह हमें कोई रोशनी की किरण दिखाई दे ताकि हम उस दिशा में अग्रसर हों. जैसे-जैसे हम घृणा, द्वेष, अहंकार, भय और संशय रुपी मिट्टी को अपने दिलो-दिमाग से हटाते जाएंगे हमारे अंदर का 'गोल्डन बुद्ध' सामने आने लगेगा और हमारा मन-मस्तिष्क परिष्कृत होता जाएगा जो कि हमारा लक्ष्य है. हो सकता है कि हम स्वयं इतने परिपक्व या सक्षम न हों कि आत्मोत्थान की इस दिशा में अपने कदम बढ़ा सकें तो इस सद्कार्य में किसी बड़े-बुज़ुर्ग या शुभचिंतक का सहयोग भी लिया जा सकता है ये सर्वथा वांछनीय है. फलस्वरूप अपेक्षित परिणाम दृष्टव्य होगा. आप ये सोच सकते हैं कि इस सबसे क्या हासिल है? तर्क यह है कि इससे वर्तमान में समाज का जो नैतिक पतन हो रहा है, वो रुकेगा. प्रत्येक व्यक्ति के 'आत्मशुद्धि' के इस संकल्प से पूरे समाज का शुद्धिकरण होगा. आपसी वैमनस्य, भेद-भाव और ऊंच-नीच के स्थान पर प्रेम, भाईचारे, सौहाद्र और समानता का प्रचार-प्रसार होगा तभी ये दुनिया रहने लायक होगी साथ ही भविष्य की पीढ़ियों को धरोहर के रूप में हम कौनसी दुनिया देकर जाने वाले हैं ये भी हमारा ‘आज’ ही तय करेगा. अतः हम अपने अंतर्मन पर चढ़े हुए मिट्टी के इस आवरण को उतारकर, अंदर के 'गोल्डन बुद्ध' को जाग्रत करने का वास्तविक प्रयास करें, इसमें ही हमारा स्वयं का और समाज का कल्याण निहित है.