आजकल ग्रीन टूरिज़्म या हरित पर्यटन की चर्चा देश में ज़ोर-शोर से हो रही है क्योंकि इस वर्ष देश को G20 शिखर सम्मलेन की अध्यक्षता का अवसर मिला है और इस दौरान सरकार का फोकस ग्रीन टूरिज़्म को बढ़ावा देने पर है। ग्रीन टूरिज़्म क्या है? वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इसकी क्या उपयोगिता है? इसके लिए क्या तौर-तरीके अपनाये जाने चाहिए और इसमें हम आम नागरिक कैसे अपना योगदान दे सकते हैं? इस पर विस्तार से चर्चा करने के पहले मुझे अपना बचपन याद आ रहा है। 'ग्रीन टूरिज़्म ' शब्द ज़रूर नया है परन्तु इसकी मूलभूत अवधारणा दशकों पुरानी है और इसी से संदर्भित कुछ स्मृतियाँ आप लोगों के साथ शेयर करना चाहूंगी। हो सकता है आप में से कई पाठक स्वयं भी इन अनुभवों से गुज़रे हों।
बचपन में जब गर्मियों की या दशहरे-दीवाली की छुट्टियां हुआ करतीं थीं तो हम भाई-बहिन मिलकर अपने गाँव जाते थे जहां हमारे दादाजी रहते थे। जिन्हें हम ‘बब्बाजी’ बुलाते थे। मिट्टी, गोबर और लकड़ियों से बना हुआ घर, जिसमें बीचों-बीच बड़ा सा खुला दालान। उसके दो तरफ कमरे बने हुए थे, एक तरफ गायों के लिए सार बनी हुई थी और चौथी तरफ आम, अमरुद, नींबू, आंवले, बेर और बेलपत्र के 8-10 पेड़ों के साथ ही गुड़हल, कनेर, चमेली और अन्य फूलों के छोटे-बड़े पौधे भी लगे हुए थे। कुल मिलाकर अच्छी-खासी बग़िया थी। जिसके देख-रेख की पूरी जिम्मेदारी बब्बाजी की ही थी। किस पौधे को कितना पानी देना है, किसकी कटाई-छंटाई करनी है, किसको गोबर की खाद लगेगी, किस यत्न के करने से ज्यादा फूल और फल मिलेंगे, के साथ-साथ धूप, पानी और खाद की उचित मात्रा से फलों की मिठास को कैसे नियंत्रित किया जाए इससे सम्बंधित उनकी जानकारी देखकर अच्छे-अच्छे कृषि विशेषज्ञ भी दाँतों तले ऊँगली दबा लेते थे।
ये सब तो वो मैनेज करते रहते थे पर मसला तब खड़ा होता जब हम हुड़दंगी बच्चे एक-डेढ़ महीने के लिए वहाँ पहुँच जाते। उस समय मनोरंजन के लिए मोबाइल, टी वी, ऑनलाइन गेम्स जैसा तो कुछ था नहीं। तो हम सब शाम को मैदान में गिल्ली-डंडा, छुपन-छुपाई, पकड़ा-पकड़ी या टिप्पू खेलते या फिर किसी से साइकिल मांगकर उसे चला लिया करते थे लेकिन समस्या तो दोपहर की थी और इसलिए हम हुड़दंगे पूरी दोपहर बब्बाजी के बगीचे में ही डेरा डाले रहते थे । पेड़ों पर चढ़ना, उन पर रस्सी बांधकर झूला बनाना, डालियों पर बैठकर लड़ना-झगड़ना, उनकी छाँव में बैठकर अंताक्षरी खेलना, पके-अधपके फलों को निशाना बनाना, उन्हें तोड़ना फिर कुछ खाकर या बिना खाये ही छोड़ देना। उनपर बैठे पक्षियों को गुलेल से निशाना बनाकर उड़ा देना (ये बात और है कि निशाना कभी सही लगता ही नहीं था। ), सिंचाई के लिए लगे हैंडपंप को व्यर्थ ही चलाना और पानी फैलाना। कुल-मिलाकर हमारी सारी गतिविधियां बब्बाजी के बगीचे के आस-पास ही संचालित होती थीं और इन सब खुरापातों में हमारे रिश्ते के चाचा हमारी मदद किया करते थे जो हमउम्र ही थे।
बेचारे बब्बाजी ! हैरान-परेशान अपनी छड़ी लेकर हमारे पीछे दौड़ते, डांटते-चिल्लाते लेकिन हम पर कोई असर होने से रहा, कुछ देर की शांति के बाद फिर वही घोड़ी वही मैदान। रोज़ रात को खाने के बाद जब दालान में सबके बिस्तर लगते तब हम बच्चे दिनभर के अपने कृत्यों पर बब्बाजी से माफ़ी मांगते, अगले दिन उनके बताये नियमानुसार चलने का प्रॉमिस करते और तब कहीं जाकर उनकी जीवन जीने की कला सिखाती हुई, रसभरी, मनोरंजक ढंग से कही हुई कहानियां या फिर उनके स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े हुए किस्से सुनने को मिलते थे।
आज जब मैं स्मृतियों में गोते लगाती हूँ तो समझ आता है कि बचपन में उनकी दी हुई सीखें अवचेतन मन में गहरे पैठी हुई हैं। बब्बाजी हमें पेड़-पौधों का हमारे दैनिक जीवन में महत्त्व, उनसे मिलने वाली शुद्ध-निर्मल प्राणवायु, पशु-पक्षियों की उपयोगिता, फसलों के लिए पानी की आवश्यकता, विभिन्न ऋतुओं के निरंतर चलने वाले चक्र और इन सभी के संरक्षण के बारे में किस्सों-कहानियों के माध्यम से कितना कुछ बड़ी ही सहजता से बताया करते थे। वे हमेशा हमसे कहते - “तुम लोग शहरों से कुछ समय के लिए गाँव में आते हो तो यहाँ की ग्रामीण संस्कृति, परम्पराओं, रीति-रिवाज़ों, यहाँ के पर्यावरण, पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों का भरपूर आनंद उठाओ लेकिन बिना उन्हें नुकसान पहुँचाये; साथ ही इन सबको भविष्य के लिए कैसे सहेजकर रखा जाये ये स्थानीय लोगों को समझाओ तभी तुम्हारे शिक्षित होने का कोई अर्थ है। ध्यान रखो! जब भी किसी से मिलो या कहीं जाओ तो वहाँ अपनी उपयोगिता सिद्ध करो, कुछ ऐसा कर जाओ कि लोग तुम्हें हमेशा याद रखें । हमें मिला मनुष्य जन्म यूँ ही व्यर्थ नहीं जाना चाहिए । हमें अपनी विवेक-बुद्धि का सदुपयोग अपने पर्यावरण और अपने आस-पास की सजीव-निर्जीव वस्तुओं को सुरक्षित व संरक्षित रखने में करना चाहिए। “
ग्रीन टूरिज़्म की अवधारणा यही तो है। भारत इस साल G20 (जिस में 19 देश और यूरोपीय संघ शामिल हैं) की अध्यक्षता के दौरान हरित पर्यटन को बढ़ावा देने, नए पर्यटन स्थलों को खोलने और विदेशी बाजारों में प्रचार अभियान शुरू करने की योजना बना रहा है। देश इस दौरान 50 से ज्यादा पर्यटन स्थलों पर 200 से अधिक G20 बैठकों की मेज़बानी करेगा, जिसमें राजस्थान, गोवा और जम्मू-कश्मीर क्षेत्रों के प्रमुख पर्यटक आकर्षणों के साथ-साथ गुजरात में धोलावीरा के पुरातात्विक स्थल और अन्य ऐतिहासिक स्मारक भी शामिल हैं।
हरित पर्यटन को इको-पर्यटन या sustainable tourism के रूप में भी जाना जाता है. यह पर्यटन का एक ऐसा रूप है जो संरक्षण और sustainable practices को बढ़ावा देते हुए पर्यावरण और स्थानीय समुदायों पर भ्रमण या सरल शब्दों में कहा जाए तो लोगों के किसी प्राकृतिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक अथवा धार्मिक महत्त्व के स्थल पर घूमने-फिरने के नकारात्मक प्रभाव को कम करने पर केंद्रित है। हरित पर्यटन का प्राथमिक लक्ष्य यह सुनिश्चित करना है कि किसी स्थान के प्राकृतिक और सांस्कृतिक संसाधनों को यथासंभव, यथास्थिति बनाये रखते हुए भावी पीढ़ियों के आनंद, मनोरंजन एवं अन्वेषण के लिए संरक्षित किया जाए।
पर्यावरणीय मुद्दों के समाधान के लिए G20 के प्रयासों का पर्यटन उद्योग पर अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ सकता है। चूँकि देश कार्बन उत्सर्जन को कम करने और अधिक sustainable practices को अपनाने के लिए प्रतिबद्ध है अतः यह हरित पर्यटन के विकास को प्रभावित कर सकता है। इसके अतिरिक्त, G20 स्तर पर जलवायु परिवर्तन पर चर्चा और समझौते हरित पर्यटन प्रॅक्टिसेज़ के लिए एक सहायक वैश्विक वातावरण बना सकते हैं और पर्यावरणीय चुनौतियों से सामूहिक रूप से निपटने के लिए देशों के बीच सहयोग को प्रोत्साहित कर सकते हैं।
संक्षिप्त में यदि हम कहें तो, समझदारी व जिम्मेदारी के साथ किया गया भ्रमण न केवल उस स्थल और वहां के समुदाय पर सकारात्मक प्रभाव डालता है बल्कि हमारी ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं प्राकृतिक विरासतों को आने वाली पीढ़ियों के लिए सहेजकर हमें भी ज़िन्दगी भर के लिए आनंदपूर्ण मधुर स्मृतियों से भर देता है। तो अगली बार जब आप ऐसे किसी स्थल पर घूमने के लिए जाएँ तो इन बातों को ध्यान में रखें। आप पाएंगे कि आपका घूमने का मज़ा दोगुना हो गया क्योंकि आपने न केवल भ्रमण का आनंद लिया बल्कि एक जिम्मेदार नागरिक होने का फ़र्ज़ भी निभाया है ।