उत्तराखंड राज्य के, उत्तरकाशी जिले के सिलक्यारा में गत 12 नवंबर को 'चारधाम यात्रा आल वेदर रोड परियोजना' के तहत बन रही सुरंग में हुए भू-स्खलन से वहां फंसे 41 श्रमिकों को 17 दिनों तक चले 'भगीरथ प्रयासों' के बाद अंततोगत्वा 28 नवंबर की शाम सुरक्षित बाहर निकाल लिया गया. उपर्युक्त पंक्तियाँ दिल को झकझोर देने वाली इस घटना पर एकदम सटीक बैठती हैं. यह कोई आम दुर्घटना नहीं थी. हमारे देश का ये अपनी तरह का पहला बड़ा 'रेस्क्यू ऑपरेशन' था. जिसमें प्रधानमंत्री कार्यालय से लेकर, राज्य सरकार और उसकी तमाम नौकरशाही, देश-विदेश से मंगाई गयी बड़ी-बड़ी मशीनरी, राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय आपदा प्रबंधन विभाग, सुरंग व खदान मामलों के देशी और विदेशी विशेषज्ञ और यहां तक कि भारतीय सेना को भी हस्तक्षेप करना पड़ा और अंततः यह असंभव सा लगने वाला महायज्ञ हमारे 'रैट होल माइनर्स' की पूर्णाहुति से निर्विघ्न संपन्न हो गया.

विभिन्न समाचार पत्रों और टी.वी. चैनल्स के माध्यम से इस दुर्घटना की एक-एक पल की जानकारी से सभी परिचित हैं इसलिए यहां एक अलग नज़रिये से इसकी चर्चा करने का प्रयास किया जा रहा है. सम्पूर्ण घटनाक्रम पर नज़र डालें तो हम पाएंगे कि संघर्ष त्रिकोणीय था, बल तीन तरफ से लग रहा था हालाँकि उसकी दिशा एक ही थी, केंद्र एक ही था. एक तरफ सुरंग के अंदर कैद असहाय और मजबूर श्रमिक जो हर हाल में बाहर निकलने को उद्यत थे, दूसरी तरफ बचाव कार्य में जुटे तमाम लोग जो किसी भी कीमत पर श्रमिकों की सुरक्षित निकासी के लिए प्रतिबद्ध थे और तीसरी तथा सबसे महत्वपूर्ण कड़ी श्रमिकों के परिजन के रूप में थी जो 'येन-केन-प्रकारेण' अपने प्रियजन की सुनिश्चित वापसी चाहते थे. 'सुरंग हादसे' में फंसे श्रमिक तो अपने जीविकोपार्जन के लिए मजदूरी कर रहे थे इसमें उनका क्या दोष? कमाई के अनेक साधनों में से एक जरिया यह भी है अपने परिवार के पालन-पोषण का. इसमें क्या गलत है? कोई समझाए ज़रा.

दीपावली अमावस को आती है परन्तु हमें इस अंधकार का एहसास तक नहीं होता क्योंकि इतना ज्यादा प्रकाश और रोशनी इस रात होती है लेकिन इस बार की अमावस इन श्रमिकों और उनके परिजनों लिए 17 दिन लंबी रही. हम कितना भी दावा कर लें, उनकी मानसिक और शारीरिक यंत्रणा का अंदाज़ा नहीं लगा सकते. एक-एक पल एक-एक युग के समान व्यतीत हो रहा होगा, हर गुजरते पल के साथ उम्मीदें भी घट-बढ़ रही होंगी. ये अत्यंत विचारणीय है कि उन सभी 41 श्रमिकों ने किस तरह अपनी जिजीविषा बनाये रखी? सब के सब एक समान मजबूत तो नहीं ही होंगे फिर किस ने, किस को, किस तरह ढांढस बंधाया होगा? 399 घंटे क्या करते हुए बिताये होंगे? क्या वे इस दुर्घटना के प्रारम्भ से ही इतने आशावादी थे कि उन्हें बचा लिया जायेगा? क्या कभी भी, किसी के भी मन में यह प्रश्न नहीं उठा कि अगर बचाव कार्य में सफलता नहीं मिली तो? ऐसे न जाने कितने ही सवाल हैं जो रह-रहकर मन में घुमड़ रहे हैं जिनके जवाब सिर्फ श्रमिकों से मिलकर ही पाए जा सकते हैं.

भोजन, जीवन का एक ऐसा सच है जो हमारी आवश्यकता भी है और कमज़ोरी भी. ऐसे में प्रारंभिक कुछ दिन तो श्रमिकों ने चने-मुरमुरे खाकर ही व्यतीत किये. चट्टानों से रिसते हुए पानी से प्यास बुझाई. कैसी बेचैनी भरा समय रहा होगा उन सभी का. नौंवे दिन कहीं जाकर ठोस खाना एवं फल उन तक पहुँच पाए. उसके बाद भी उनकी सुरंग से सुरक्षित निकासी में लगने वाले समय की अनिश्चितता को देखते हुए उन्हें संभलकर खाने को कहा गया. रात और दिन का अंदाज़ा लगाना मुश्किल था. पाइपों के सहारे जब बातचीत शुरू हुई तब जाकर उनके हौसलों को मजबूती मिली.

ऐसे कठिनतम हालात में सबसे अहम् होता है आपसी समझ, भरोसा और एकजुटता क्योंकि एक भी कमज़ोर पड़ती कड़ी आपके 'Struggle for Existence' के सारे प्रयासों पर पानी फेर सकती है. श्रमिकों ने इसका खूब ध्यान रखा और खाली बैठकर, कयासों में समय न गंवाकर अपने आपको व्यस्त रखने की कोशिशों में लगे रहे. बचाव दल से हुई बातचीत में श्रमिकों ने बताया कि उनमें से किसी के झोले में एक कॉपी और पेन मिल गया जिसके पन्ने फाड़कर कार्ड्स बनाये और उनसे खेलना शुरू किया. मलबे के बाद जहाँ श्रमिक फंसे हुए थे वहां सुरंग में लगभग डेढ़ से दो किलोमीटर जगह थी, वहां उन्होंने पकड़न-पकड़ाई खेलना और खूब घूमना-फिरना शुरू किया ताकि इतनी थकान हो जाए कि लेटते ही नींद आ जाये और चूँकि स्वस्थ रहना जरूरी था इसीलिए मिलकर योग भी शुरू किया. इतने दिनों में किसी का किसी से झगड़ा भी नहीं हुआ. आपसी प्रेम और सहयोग अपने उच्चतम स्तर पर था क्योंकि सभी का उद्देश्य एक था- 'चाहे जो हो जाए, सकुशल बाहर निकलना है'. प्रकृति भी ‘Survival of the Fittest’ के सिद्धांत पर कार्य करती है और हमारे श्रमिक अनजाने में ही उसका पालन कर रहे थे.

पहाड़ खोदते समय सिर्फ शारीरिक ताकत की ही नहीं बल्कि मानसिक मजबूती, धैर्य और साहस की भी परीक्षा होती है. श्रमिकों की जीवटता और जज़्बे को दिल से सलाम ! कोई 'प्रबंधन गुरु' अपने भाषणों से क्या सीख देगा जो इन कम पढ़े-लिखे (या हो सकता है कुछ इनमें अनपढ़ भी हों) श्रमिकों ने स्वयं जीकर सिखा दिया. ज़िंदगी तो हम सब को मिली है पर सही ढंग से जीना किसे आता है? 'राष्ट्रकवि' मैथिलीशरण गुप्त रचित ये पंक्तियाँ यहां सर्वथा उपयुक्त हैं कि – ‘दुःख, शोक जब जो आ पड़े, सो धैर्यपूर्वक सब सहो. होगी सफलता क्यों नहीं, कर्तव्य पथ पर दृढ रहो.' किसी भी विपत्ति से उबरने में हमारी स्वयं की सोच, हमारे भीतर का साहस और उस परमशक्ति के प्रति हमारा अटूट विश्वास ही हमारी मदद करते हैं.

समय काटने के लिए श्रमिकों का खेलकर अपने को व्यस्त रखना या अपने तन व मन को स्वस्थ और क्रियाशील बनाये रखने के लिए योग करना और घूमना, भूख मिटाने के लिए चने-मुरमुरे खाना या प्यास बुझाने के लिए चट्टानों से रिसते हुए पानी को पीना और अंत में जब सारी बड़ी-बड़ी मशीनें और तकनीक नाकाम हो गईं तब 'रेट-होल माइनर्स' द्वारा हाथ से ही पहाड़ को खोदते और मलबे को हटाते हुए सुरंग के अन्दर अंतिम कुछ मीटर का फ़ासला तय करना, जिससे श्रमिकों की सकुशल वापसी संभव हो पायी. उपर्युक्त सभी बातें इस ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं कि जीवित रहने के लिए हमारी आवश्यकताएं न केवल सीमित हैं वरन इस हेतु किसी बड़े ताम-झाम, संसाधन या तकनीक की जरूरत भी नहीं है. ईश्वर ने संसार में सभी प्राणियों की रचना इस प्रकार की है कि वो इस पृथ्वी पर अपना निर्वाह यथायोग्य कर सकें. मनुष्य हों या पशु-पक्षी सबके लिए समान प्राकृतिक संसाधन हैं- हवा, पानी, फल-फूल, सूर्य का प्रकाश. उसने किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं किया. प्रकृति से छेड़छाड़ शुरू करके गलतियां हमने ही की हैं तो ख़ामियाजा भी हमें ही भुगतना पड़ेगा. अब भी वक्त है कि हम संभल जाएँ क्योंकि अगर अभी नहीं तो फिर शायद कभी नहीं. कम-से-कम इस सुरंग हादसे से हमें इतना तो सबक लेना ही होगा.

.    .    .

Discus