कुछ दिन पहले शहर में लगे हुए एक 'नेशनल एक्सपो' में जाना हुआ. रविवार के कारण भीड़ कुछ ज्यादा थी अतः गाड़ी पार्किंग स्थल से दूर खड़ी करना पड़ी. एक्सपो के भव्य प्रवेश द्वार से अंदर जाते हुए मेरी नज़र बाएं तरफ खड़े एक 11-12 साल के दुबले-पतले, सांवले से बच्चे पर पड़ी, दिखने में निर्धन, उस बच्चे के चेहरे पर ग़जब का लावण्य था, आँखों में एक अजीब सी चमक थी, एक्सपो के द्वार पर खड़े हुए गार्ड्स से शायद उसकी बहस हो रही थी, उस बच्चे के हाथों में कुछ लाल-पीली चमकीली से वस्तुएं थीं जिन्हें दिखाकर वो गार्ड्स को कुछ समझाने का असफल प्रयास कर रहा था लेकिन वो उसे वहाँ से हटाना चाह रहे थे क्योंकि एक्सपो के उदघाटन के लिए मंत्री जी आने वाले थे. अंततोगत्वा जीत गार्ड्स की ही हुई और वो बच्चा गेट से दूर जाकर खड़ा हो गया. मेरे कदम बरबस उस बच्चे की तरफ मुड़ गए, पास जाकर जब उसके हाथों को देखा तो दंग रह गई, उसकी छोटी-छोटी पतली उँगलियों में धागे बंधे हुए थे और उन धागों से रंगीन चमकीले कपड़ों की बनी कठपुतलियां लटकी हुई थीं. मुझे पूरे माज़रे को समझते देर नहीं लगी, वो बच्चा एक्सपो के द्वार पर कठपुतली का प्रदर्शन करना चाह रहा था ताकि लोग उस खेल को देखें, सराहें और इसी बहाने शायद उसकी कुछ कमाई भी हो जाए. उन कठपुतलियों को देखकर मुझे बचपन याद आ गया, दशकों हो गए इन कठपुतलियों को देखे हुए. बचपन में कठपुतली का खेल शुद्ध मनोरंजन और मजे तक ही सीमित था. लेकिन बढ़ती उम्र के साथ यह जाना कि ये कितने ही परिवारों के जीविकोपार्जन का जरिया भी हैं. 'कठपुतली' !

 जी हाँ, मुझे लगा ‘An Art’ में आज कला की इसी लुप्तप्राय विधा के बारे में बात की जाए. गाना, बजाना, नाचना, खेलना, लिखना, बोलना, हँसाना, अभिनय करना, चित्रकारी, शिल्पकारी, बुनकरी और भी न जाने कितनी विधाएँ हैं जो 'The Art' के मापदंडों पर खरी उतरती हैं और जिन्हें सामाजिक तौर पर 'कला' के नाम से स्वीकृत किया गया है. 'कला' को शब्दों में नहीं बांधा जा सकता. कल्पनाओं, विचारों, रचनात्मकता का संसार इतना विशाल और अनोखा होता है कि उसका ओर-छोर पाना लगभग असंभव है. यही वजह है कि सम्पूर्ण विश्व में इतनी विविध कलाएं अपने विस्तृत रूप और गुणों के साथ परिलक्षित हैं. फिर बात अगर भारतीय लोक और पारम्परिक कलाओं की हो तो कहना ही क्या. 'कठपुतली' विश्व की प्राचीनतम कलाओं में से एक है. इसमें विभिन्न पात्रों जैसे मनुष्य, जानवर या अन्य कोई अमूर्त वस्तु की पुतलियों को लकड़ी अर्थात काष्ठ से बनाया जाता था इसीलिए इसका नाम कठपुतली पड़ा. यह एक अत्यंत समृद्ध एवं प्राचीन शैली है. पूर्व में श्रीलंका, इंडोनेशिया, म्यांमार, थाईलैंड से लेकर वर्तमान में रूस, चेक गणराज्य, जर्मनी, जापान, चीन और अमेरिका में भी इसका खासा प्रचार-प्रसार देखने को मिलता है. हमारे देश में इसका इतिहास लगभग 2000 वर्ष पुराना है. विश्व के अनेक विद्वानों और इतिहासकारों के मुताबिक़ इस कला की उत्पत्ति भारत में ही हुई. हमारे प्राचीन सांस्कृतिक ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है. संस्कृत व्याकरण के जनक 'पाणिनि' द्वारा रचित ग्रन्थ 'अष्टध्यायी' में भी 'पुतुल नाटक' का वर्णन है. सम्राट विक्रमादित्य से सम्बंधित 'सिंहासन बत्तीसी' की कहानी में भी बत्तीस 'पुतलियों' का ज़िक्र है. इस कला को विभिन्न पात्रों और कथाओं के माध्यम से रंगमंच पर प्रदर्शित किया जाता है. इसमें कलाकार किसी पौराणिक किवदंतियों, दन्तकथाओं या लोकगाथाओं का बड़े ही सुन्दर ढंग से, कठपुतलियों के हाव-भाव के माध्यम से प्रदर्शन करता है, चूँकि यह खेल या नृत्य रंगमंच पर ही प्रदर्शित किया जाता है अतः इसमें पार्श्व में बजने वाले वाद्य जैसे ढोल, मंजीरे, हारमोनियम, एकतारे के साथ कई बार कथा से सम्बंधित कुछ व्याख्या भी की जाती है. इसमें एक या अनेक व्यक्ति परदे के पीछे बैठकर अपनी अँगुलियों से, कठपुतली के विभिन्न अंगो में बारीकी से पिरोये हुए धागों को पकड़कर, नितांत एकाग्रता से सामंजस्य बिठाते हुए, कथावस्तु की मांग के अनुरूप कठपुतलियों का संचालन करता है. इसमें लचक और लोच महत्वपूर्ण है. दर्शकों को प्रभावित करने हेतु कठपुतलियों को बनाने में तेज, चटक, चमकीले रंगों और सजावट का प्रयोग किया जाता है. मूलतः यह 4 प्रकार से संचालित होती है- धागा कठपुतली (राजस्थान, उड़ीसा, कर्नाटक और तमिलनाडु), छाया कठपुतली (केरल, आंध्रप्रदेश,और महाराष्ट्र), दस्ताना कठपुतली (उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा) और छड़ कठपुतली (पश्चिम बंगाल, उड़ीसा). हमारे देश में राजस्थान के कलाकार इस क्षेत्र में अग्रणी हैं और उल्लेखनीय कार्य कर रहे हैं. 

सुदूर ग्रामीण परिवेश में रहने वाले लोगों को जागरूक करने के लिए और विभिन्न लाभकारी योजनाओं को उन तक पहुंचाने का यह एक सरल और सशक्त माध्यम है. कई बार लोक नायकों के चरित्रों का अमर चित्रण भी इस माध्यम से किया जाता है ताकि आम जन-मानस पर उनके कृतित्व और व्यक्तित्व का सही प्रभाव पड़ सके. कठपुतली कला को सम्पूर्ण विश्व में प्रचारित-प्रसारित करने, उसे सांस्कृतिक रूप से समृद्ध करने और उसके कलाकारों को उचित सम्मान प्रदान करने के उद्देश्य से वर्ष 2003 से 'विश्व कठपुतली दिवस' का आयोजन प्रतिवर्ष 21 मार्च को किया जाने लगा. जिसमें विभिन्न महोत्सवों, मेलों का आयोजन और विचारों का आदान-प्रदान किया जाता है जिससे इसके कलाकारों को एक वैश्विक मंच मिले, इस प्राचीनतम कला को समझने का अवसर मिले और उसमें आधुनिक तकनीक को समाविष्ट करते हुए उसे और समृद्ध व सुघड़ बनाया जा सके ताकि सदियों तलक यह कला जीवित रहे एवं उसके कलाकार फलते-फूलते रहें और फिर किसी 'टीकम भाट’ को, (उस बच्चे का यही नाम था) एक्सपो के बाहर नहीं बल्कि अंदर मंच पर, सम्मान के साथ अपनी कला के प्रदर्शन का मौका मिले. हकीकतन, ये सम्पूर्ण संसार एक रंगमंच ही है और हम सभी विभिन्न किरदारों को निभा रहे हैं. हम नियति के हाथ की कठपुतली हैं, हमारे जीवन के अदृश्य धागे उसके हाथ में है वो जैसे चाहे हमारे जीवन की धारा को मोड़ सकता है. हमें जो किरदार मिला है उसके अनुरूप सच्चाई और सदभाव से कर्म करें तो कठपुतली के नृत्य की ही तरह हम स्वयं आनंदित रहते हुए अपने आस-पास भी आनंद और उल्लास का माहौल बनाये रखेंगे जो वर्तमान समय और परिवेश की मांग भी है.

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