मानव मन की ताकत और दृढ़ता किसी भी शारीरिक चुनौती से बड़ी होती है। मनुष्य अगर चाहे तो अपनी कमजोरियों को पार करके असाधारण उपलब्धियाँ हासिल कर सकता है और अपनी मुश्किलों को भी अवसरों में बदल सकता है। जरूरत है तो सिर्फ दृढ़ इच्छाशक्ति और कठिन परिश्रम की और जब ये अद्भुत संयोग किसी मनुष्य में होता है तो वह अपनी शारीरिक सीमाओं को एक चुनौती के रूप में स्वीकार कर, अपनी पूरी क्षमता के साथ प्रदर्शन करता है और अपने जुनून और हिम्मत से ये संदेश देता है कि किसी भी प्रकार की बाधाओं को अपने सपने पूरे करने की राह में नहीं आने देना चाहिए।
आप सभी जानते ही हैं कि अभी 8th सितंबर को पेरिस में, पैरालंपिक खेलों का समापन हुआ। ये एक अत्यंत महत्वपूर्ण वैश्विक खेल आयोजन था जो 28 अगस्त 2024 से 8 सितंबर 2024 तक फ्रांस के पेरिस शहर में आयोजित किया गया। यह इवेंट पैरालंपिक खेलों का 17 वां संस्करण था, जिसमें विश्व भर से लगभग 170 देशों के 4,463 डिसेबिलिटी वाले एथलीट्स ने 22 खेलों की, 549 स्पर्धाओं में हिस्सा लिया।
मैं आप सभी सुधि पाठकों से पूछना चाहती हूँ कि हममें से कितने ऐसे लोग हैं जिन्हें ये जानकारी थी कि अभी पैरालंपिक्स चल रहे हैं? अगर टीवी या समाचार पत्रों के माध्यम से ये जानकारी थी भी, तो भारत की पदक तालिका में क्या स्थिति चल रही है ये कितनों को पता था? या किसको उत्सुकता थी ये जानने की किस खेल में कौन से खिलाड़ी ने पदक हासिल किया है? अपने दिल पर हाथ रखकर जवाब दीजिए। कुछ गिने-चुने लोगों को छोड़ दें तो देश का ज्यादातर तबका इस आयोजन से अनभिज्ञ था या कहिए इनके प्रति उदासीन था।
इन खेलों में भारत अपने शानदार प्रदर्शन के चलते पहली बार 29 पदकों के साथ पदक तालिका में 18 वां स्थान हासिल करने में कामयाब रहा। जिसमें 7 स्वर्ण, 9 रजत और 13 कांस्य पदक शामिल रहे। पेरिस 2024 पैरालंपिक में रिकॉर्ड 84 पैरा-एथलीटों ने भारत का प्रतिनिधित्व किया।
अब एक नजर इसी वर्ष जुलाई में, पेरिस में ही सम्पन्न हुए ओलंपिक खेलों के आंकड़ों पर अगर डालें तो इसमें 204 राष्ट्रों और टीमों के 10,714 एथलीटस, 32 खेलों की 329 स्पर्धाओं में शामिल हुए, इसमें भारत की ओर से 117 सदस्यीय खिलाड़ियों का दल सम्मिलित हुआ और जहाँ भारत ने मात्र 6 पदक जीते जिसमें स्वर्ण पदक एक भी नहीं शामिल नहीं था और पदक तालिका में भारत 71 वें स्थान पर रहा।
भारतीय संदर्भ में, पेरिस पैरालंपिक 2024 और पेरिस ओलंपिक 2024 की तुलना यदि की जाए तो इससे यह साबित होता है कि देश में दिव्यांगों का सशक्तिकरण उचित दिशा में हो रहा है। समाज का दृष्टिकोण उन्हें लेकर सकारात्मक एवं समानता का है, जो यह संदेश देता है कि प्रत्येक व्यक्ति के पास अद्वितीय क्षमताएँ हैं, आवश्यकता हर परिस्थिति में, उम्मीद और हौसला बनाए रखने की है। इस तुलनात्मक विश्लेषण का उद्देश्य यहाँ किसी को नीचा दिखाना या कमजोर साबित करना कतई नहीं है। मूल भाव सिर्फ इतना है कि हम सब ये बात अपने अंदर गहराई से बैठा लें कि कोई भी व्यक्ति जन्म से ही छोटा-बड़ा, ऊंचा-नीचा या कमजोर-शक्तिशाली नहीं होता है, जीवन में आने वाली परिस्थितियाँ और उस दौरान उसके द्वारा लिए गए निर्णय व किए गए कार्य ही उसे ऐसा बनाते हैं। समाज में सभी का योगदान और मूल्य समान है, भले ही उनकी शारीरिक स्थितियाँ भिन्न-भिन्न हों। असल जीत मेडल प्राप्त करने में नहीं बल्कि अपनी क्षमताओं और सीमाओं से परे जाकर प्रदर्शन करने में होती है।
ओलंपिक खेलों के इतिहास, उनके शनैः-शनैः हुए विकास के बारे में तो हम सभी काफी जानकारियाँ रखते हैं, उनके संबंध में काफी लिखा और पढ़ा जाता रहा है लेकिन पैरालंपिक खेलों से संबंधित जागरूकता उस स्तर पर नहीं है, कम से कम हमारे जन-साधारण में तो नहीं। आइए, सबसे पहले जानें कि इन खेलों की शुरुआत कब, कहाँ और कैसे हुई? दरअसल "पैरालंपिक" शब्द ग्रीक पूर्वसर्ग "पैरा" (जिसका अर्थ है बगल में या साथ-साथ में) और "ओलंपिक" शब्द से मिलकर बना है। जिसके मायने हुए कि पैरालंपिक खेल, ओलंपिक खेलों के समानांतर ही हैं और जो दर्शाता है कि दोनों आयोजन अलग-अलग होते हुए भी एक साथ किस तरह सफलतापूर्वक चल सकते हैं और चल रहे हैं।
आधुनिक पैरालंपिक खेलों की नींव सन 1948 में रखी गई थी, जब डॉ. लुडविग गुट्मन ने ब्रिटेन के स्टोक मांडविल अस्पताल में एक खेल प्रतियोगिता का आयोजन किया। इस प्रतियोगिता का उद्देश्य शारीरिक अक्षमता वाले सैनिकों की पुनर्वास प्रक्रिया को प्रोत्साहित करना था। पहले आधिकारिक ग्रीष्मकालीन पैरालंपिक खेल वर्ष 1960 में रोम, इटली में आयोजित किए गए। जिसने पैरालंपिक खेलों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता दिलाई। इसमें 23 देशों के खिलाड़ियों ने हिस्सा लिया। वर्ष 2012 आते-आते लंदन में आयोजित पैरालंपिक खेलों ने पेशेवर दृष्टिकोण अपना लिया था जिससे इस आयोजन को एक नई दिशा एवं गति मिली और इस दौरान इन्हें मीडिया कवरेज भी मिलना प्रारंभ हुआ एवं इसमें पूरे विश्व से, रिकॉर्ड संख्या में दर्शक भी शामिल हुए। भारत ने 1960 से इन खेलों में हिस्सा लेना प्रारंभ किया। हमारे कई पैरालंपिक खिलाड़ी ऐसे रहे जो समय-समय पर विभिन्न खेलों में विश्वस्तर पर शानदार प्रदर्शन करके देश का नाम रोशन करते रहे हैं।
अभी पिछले हफ्ते ही मैंने बच्चों की जिद पर हाल ही में रिलीज हुई फिल्म ‘चंदू चैंपियन’ देखी जो ऐसे ही एक पैरा एथलीट ‘मुरलीधर पेटकर’ के जीवन की सत्य घटना पर आधारित है। ओटीटी प्लेटफॉर्म पर तो ये फिल्म काफी समय से स्ट्रीम हो रही थी पर ध्यान आकर्षित नहीं कर पाई थी। एक तो फिल्म का हीरो, ओवर ऐक्टिंग करने की वजह से मुझे पसंद नहीं था, दूसरे फिल्म के प्रोमोज भी कहानी के बारे में कुछ जिज्ञासा नहीं जगा पाए थे और रही-सही कसर समीक्षकों और दर्शकों के ठंडे रिस्पॉन्स ने पूरी कर दी। आपको वास्तविकता बयान करूँ, तो इस फिल्म को देखने के बाद मुझे अपने-आप पर बड़ी शर्म और ग्लानि महसूस हुई। शर्म इस वजह से कि हम हमेशा वस्तुओं, व्यक्तियों, या घटनाओं को बिना जाने-समझे जजमेंटल हो जाते हैं और प्रायः हम गलत ही होते हैं फिर भी हम सुधरते नहीं हैं। ग्लानि इस वजह से कि किसी की मेहनत, उस कार्य के प्रति उसकी ईमानदारी और निष्ठा पर संदेह करते हुए हम सिर्फ अपने चश्मे से दुनिया को देखना पसंद करते हैं जो सर्वथा अनुचित है। ऐसी फिल्में, डॉक्यूमेंट्रीज़, बायोपिक्स ज्यादा से ज्यादा बनाई जानी चाहिए और इनका उचित प्रचार-प्रसार भी होना चाहिए। स्कूलों और कॉलेजों में इनका प्रदर्शन किया जाना चाहिए, इन्हें टैक्स-फ्री किया जाना चाहिए। सरकार को चाहिए कि इनकी उचित फन्डिंग करे ताकि देश व दुनिया, विशेषकर बच्चे इन ‘अनसंग हीरोज़’ के बारे में जाने और उनके जज्बे व जुनून से प्रेरित हों।
आज के समय में, पैरालंपिक खेल एक ऐसा प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय खेल आयोजन है, जो शारीरिक अक्षमता वाले एथलीटों की क्षमताओं एवं उपलब्धियों को दर्शाते हैं और खेलों में विविधता, प्रतिस्पर्धा, और समावेशिता को बढ़ावा देने के लिए ओलंपिक खेलों के समान ही महत्वपूर्ण वैश्विक मंच प्रदान करते हैं। साथ ही ये आयोजन समाज में इस सत्य को बड़ी मजबूती और दृढ़ता के साथ स्थापित करते हैं कि मनुष्य अगर ठान ले तो शारीरिक और मानसिक कमजोरियों के बावजूद, समर्पण और मेहनत से बड़ी से बड़ी उपलब्धियां हासिल की जा सकती हैं।
इन खिलाड़ियों से हमें सीख मिलती है कि अपनी शारीरिक और मानसिक चुनौतियों से निराश होकर इन्हें पराजय समझने के बजाय इन्हें अवसर के रूप में देखना चाहिए। यही सकारात्मकता एवं आत्म-संवेदनशीलता उन्हें मानसिक मजबूती प्रदान करती है और उन्हें अपनी कठिनाइयों का सामना करने और उत्कृष्टता की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित करती है।
ओलंपिक हो या पैरालंपिक, खेलों के माध्यम से खिलाड़ी अपने संघर्षों और सफलताओं की कहानियों से करोड़ों लोगों को प्रभावित करते हैं। उनकी मेहनत और समर्पण यह दिखाता है कि कठिनाइयाँ चाहे कितनी भी बड़ी हों, अगर ठान लिया जाए तो उन्हें पार किया जा सकता है। पैरालंपिक आयोजन तो सामाजिक बदलाव का भी प्रतिनिधित्व करते हैं और प्रचलित धारणाओं और पूर्वाग्रहों को चुनौती देते हैं, जिससे समाज में विभिन्नता को समझने और अपनाने की भावना बढ़ती है। यह एक ऐसा वैश्विक मंच है जहाँ खेलों के माध्यम से यह प्रदर्शित किया जाता है कि अपने निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अत्यधिक धैर्य, समर्पण और प्रतिबद्धता की आवश्यकता होती है और अभी हाल ही में सम्पन्न हुए पेरिस पैरालंपिक खेलों में हमारे खिलाड़ियों, उनके कोचों और उनसे जुड़े विभिन्न खेल संस्थानों ने यह साबित कर दिखाया।
एक उत्कृष्ट समाज में रहते हुए हमारा ये कर्तव्य है कि हम ‘सामान्य खिलाड़ियों’ की ही तरह ‘दिव्यांग खिलाड़ियों’ के भी संघर्ष, समर्पण और उपलब्धियों की सराहना करें और उनकी कठिनाइयों को समझते हुए, उनके प्रति आदर और सम्मान व्यक्त करें। यह सुनिश्चित करें कि उनके प्रति भेदभाव की भावना समाप्त हो। समाज में उनके प्रति सही दृष्टिकोण और समझ विकसित करने हेतु जागरूकता फैलाएं और लोगों को शिक्षित करें। ऐसे खेलों व आयोजनों को व्यापक समर्थन और प्रोत्साहन दें जिससे इनकी लोकप्रियता बढ़े और इन्हें अपनी क्षमताओं को प्रदर्शित करने के लिए उचित मंच व अवसर मिल सके।
हम समस्त देशवासियों की ओर से सभी पैरालंपिक खिलाड़ियों, उनके कोचों और उन्हें सुविधा एवं संसाधन जुटाने वाली सभी सरकारी व गैर-सरकारी संस्थानों को को हार्दिक बधाइयाँ और इनके उज्जवल भविष्य हेतु अशेष शुभकामनाएं।