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पौराणिक मान्यतानुसार कुंभ मेले का आयोजन उस समय प्रारंभ हुआ जब देवताओं और दानवों के मध्य समुद्र मंथन हुआ और अमृत प्राप्त करने के लिए भगवान विष्णु ने देवताओं की मदद की। उस समय अमृत कलश (कुम्भ) से कुछ अमृत की बूंदें पृथ्वी पर छलक गईं, जिन-जिन स्थानों पर वे गिरीं, वहाँ-वहाँ कुम्भ मेला आयोजित किया जाने लगा। इनमें प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक जैसी धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व के शहर शामिल हैं।
प्रयागराज में गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों का संगम स्थल है, जिसे त्रिवेणी संगम कहा जाता है और यह स्थान अमृत कलश से गिरने वाली बूंदों के प्रतीक के रूप में महाकुंभ का केंद्र बन गया। चलिए, आप और हम आज इस त्रिवेणी स्नान को एकदम अलग नजरिए से विचारते हैं।
भारतीय चिंतन पद्धति में गंगा, यमुना और सरस्वती के मिलन या संगम को त्रिवेणी की उत्तम संज्ञा दी गई है। श्वेत, श्याम और अरुण का अद्भुत संगम अर्थात श्वेत गंगा, श्याम यमुना और अन्तर्वाहिनी अरुणाभ सरस्वती का सम्मिलन। यह सम्मिलन स्वच्छता, शांति, शुभ्रता और शुचिता की वाहिनी गंगा, श्याम आभामयी, घोर तमिस्रा या निद्रा प्रवाहिनी यमुना और रक्ताभ अनुराग, प्रेम परिपूर्णा सरस्वती का यानि संवेदना, चेतना और ज्ञान का संकुल प्रवाह है।
मानव जीवन तीनों गुणों श्वेत, श्याम और रतनार अर्थात सत्, रज और तम का प्रतिपल चलने वाला अनंत, अटूट अविरल प्रवाह है। हमारी मूल प्रकृति यानि इन्हीं तीनों गुणों और चित्तवृत्तियों के मेल से सांसारिक खेल अनादि काल से चला आ रहा है। गुणों या चित्तवृत्तियों में से किसी एक का अभाव या कमी हो जाए तो संसार थम जाता है, रुक जाता है, स्तंभित या समाप्त हो जाता है। चलिए, इसे समझने के लिए किसी बाजार का अवलोकन करते हैं। जहाँ पर कहीं खाने-पीने की वस्तुओं के अंबार लगे हों तो कहीं सुंदर वस्त्राभूषण, अलंकरण-आभरण दिख रहे हों और कहीं अन्य स्थल पर दुकानों में देवमूर्तियाँ, मालाएँ, धार्मिक ग्रंथ सजे हुए दिखाई पड़ रहे हों। सारांश में कहें तो कहीं तमोगुण विस्तारित है तो कहीं रजोगुण और कहीं सत्वगुण अपना प्रभाव निक्षेपित करता दिख रहा है। इन तमाम तरह की वस्तुओं को देखकर हमारे अंतस् में एक प्रकार की ललक या लहर उठती है कि हम इस या उस वस्तु को प्राप्त करें। हमारे अंतस् या हृदय में उठने वाली ललक ही वृत्ति है, संवेदना है जो अपने जैसी गुणवाली वस्तु के संचयन या संग्रह के लिए उद्दीप्त होती है।
मजेदार यह है कि चित्त में जैसे आकर्षण प्रकट होता है वैसे ही विकर्षण या घृणा भी उपजती है। आशय यह है कि तृष्णा, वितृष्णा, राग-द्वेष और अनासक्ति (वैराग्य) का यह खेल निरंतर चलता रहता है और इसी के अनुरूप हमारे कर्म होते रहते हैं। यदि कर्म के साथ रागात्मकता या विरक्ति के भाव गहनता से जुड़े हों तो फिर हमें कर्मबंधन और कर्मफलों का सामना करना पड़ता है। इस स्थिति में संवेदना बाँधेगी, चेतना समझाईश देगी और ज्ञान मुक्ति के उपाय करेगा। यानि वैराग्य और विवेक हमारी वृत्तियों को नियंत्रित करेंगे। इस आत्मनियंत्रण से मन की परिग्रह वृत्ति पर अंकुश लगेगा। खोने या पाने से ऊपर उठने की चेतना जागेगी। चित्तवृत्तियों की हिलोर या ललक शांत हो जाएगी। इधर-उधर की भटकन व विकलताएं प्रखर वैराग्य से शांत हो जाएंगी। आवश्यकता से अधिक और अनुपयोगी वस्तुओं का संचयन रुक जाएगा। अविवेक पर चेतना का प्रभाव समझ आने लगेगा।
विवेक और वैराग्य की कमी के चलते, निरर्थक कर्मों का जाल मनुष्य जीवन में बुन जाता है। यह जाल मोहक, आकर्षक और प्रिय लगता है किन्तु कर्म परिपक्व होने पर जो परिणाम आते हैं और तब जो दारुणता, यातना, हास्यास्पदता, हृदयविदारकता व्युत्पन्न होती है वह ‘माधव हम परिनाम निरासा’ जैसे वाक्यों का विधान करती है। भुक्तभोगी पश्चाताप करता हुआ, अपने पतन का दायित्व स्वयं ओढ़ने को विवश होता है। वस्तुतः हमारा अज्ञान हमारे पतन का निरंतर विधान करता रहता है।
अतः इन सबसे बचने के लिए हमारे यहाँ त्रिवेणी में पवित्र स्नान की सलाह दी जाती है। गंगा, यमुना, सरस्वती के संगम तीर्थराज प्रयाग में अवगाहन का मंत्र दिया जाता है। तम, रज और सत्व के पार जाने की सलाह दी जाती है। प्रयागराज महाकुंभ न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति और आस्था का प्रतीक है। यह मेला आज भी अपनी परंपराओं और ऐतिहासिक महत्व को बरकरार रखते हुए करोड़ों लोगों के सम्मिलन का केंद्र है जिसमें चारों पीठों के शंकराचार्य, विभिन्न अखाड़ों के प्रमुख, महामंडलेश्वर, साधु-संन्यासी, नागा साधू-संत, अघोरी समाज, नेतागण, तमाम क्षेत्रों की जानी-मानी हस्तियाँ, देश के अत्यंत उच्च वर्ग से लेकर गरीबी रेखा के नीचे रह रहे नागरिकों के साथ-साथ बड़ी संख्या में विदेशी नागरिक भी शामिल होते हैं। यह न केवल धार्मिक बल्कि एक सांस्कृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक समागम भी है।
महाकुंभ को विश्व धरोहर स्थल के रूप में UNESCO द्वारा सूचीबद्ध किया गया है। यह भारत में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व के लिए एक अविश्वसनीय व अद्भुत उदाहरण है, जहाँ एक साथ करोड़ों लोग, एक स्थान पर जुटकर त्रिवेणी में पवित्र स्नान करते हैं और गंगा किनारे कल्पवास करते हुए पूजा-अर्चना करते हैं, दान-पुण्य, ध्यान-मनन एवं सत्संग करते हैं। इस प्रकार अपनी आस्था के अनुरूप धार्मिक अनुष्ठान करते हुए अपने जीवन में एक बार होने वाले इस अलौकिक और आध्यात्मिक अनुभव का अमृतपान करते हैं। महाकुंभ प्राचीन परंपराओं और आधुनिक आकर्षणों का एक आदर्श मिश्रण प्रस्तुत करता है। श्रद्धालु प्रयागराज की पवित्र नदियों, ऐतिहासिक स्थलों व जीवंत सांस्कृतिक विरासत की ओर हमेशा से ही आकर्षित होते रहे हैं।
प्रत्येक स्थल पर आयोजित होने वाले कुम्भ का उत्सव सूर्य, चंद्रमा और अन्य ग्रहों की ज्योतिषीय एवं विशिष्ट स्थितियों में उपस्थित होने पर आधारित होता है। यह मेला ठीक उसी समय होता है जब ये स्थितियाँ पूरी तरह से व्याप्त होती हैं। कुंभ मेले के दौरान अनेक समारोह आयोजित होते हैं। हाथी, घोड़े और रथों पर अखाड़ों का पारंपरिक जुलूस, जिसे 'पेशवाई' कहा जाता है, 'शाही स्नान' के दौरान चमचमाती तलवारें और नागा साधुओं की रस्में, तथा अनेक अन्य सांस्कृतिक गतिविधियां, जो लाखों तीर्थयात्रियों को कुंभ मेले में भाग लेने के लिए आकर्षित करती हैं।
ये तो बात हुई उन सौभाग्यशाली करोड़ों-करोड़ लोगों की जो महाकुंभ में गए और जिन्हें अमृत स्नान करने का अवसर प्राप्त हुआ लेकिन हमारे देश की लगभग 140 करोड़ की आबादी में से अनेकों ऐसे लोग भी हैं जो किसी बीमारी के चलते, आर्थिक विपन्नतावश या किसी अन्य कारण के चलते इस महाकुंभ में शामिल नहीं हो सके, तो उनके लिए क्या? क्या वे अधर्मी हैं, पापी हैं या सनातनी नहीं हैं अथवा उन्हें दोयम दर्ज़े का इंसान माना जाए? ऐसा कदापि नहीं हैं। सनातन धर्म में हर प्रकार की व्यवस्था दी गई है। यदि शास्त्रों में गंगा स्नान का फल मुक्ति बताया है तो जो गंगा स्नान नहीं कर सका है उसके मोक्ष प्राप्ति की भी व्यवस्था की गई है, उनमें से एक है- ‘गीता का पठन-पाठन करना।‘ गंगा में स्नान करने वाला स्वयं तो मुक्त हो सकता है, परंतु वह दूसरों को तारने की सामर्थ्य नहीं रखता। जबकि गीतारूपी गंगा में गोते लगाने वाला स्वयं तो मुक्त होता ही है वह दूसरों को तारने में भी समर्थ हो जाता है। गंगा भगवान के चरणों से उत्पन्न हुई है और गीता साक्षात नारायण के श्रीमुख से निकली है। गंगा तो सिर्फ उसी को मुक्त करती है जो उसमें जाकर स्नान करता है, परंतु गीता घर-घर जाकर सबको मुक्ति का मार्ग दिखलाती है। गीता को सर्वशास्त्रमयी कहा गया है अर्थात उसमें समस्त शास्त्रों का सार भरा हुआ है।
दूसरी तरफ गोस्वामी तुलसीदास ने भी रामचरितमानस में लिखा है –
मुद मंगलमय संत समाजू, जो जग जंगम तीरथराजू | राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा, सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥
यह चौपाई बाल काण्ड में संत समाज रूपी तीर्थ वर्णन में आती है। जिसका तात्पर्य है कि संतों का समाज आनंद और कल्याणमय है, जो जगत में चलता-फिरता तीर्थराज (प्रयाग) है। इस संत समाज रूपी प्रयागराज में जहां राम भक्ति रूपी गंगाजी की धारा है वहीं ब्रह्मविचार का प्रचार सरस्वतीजी का रूप है। अतः प्रत्येक मनुष्य को संतपुरुषों के सत्संग एवं सानिध्य से लाभान्वित होना चाहिए। इसके अलावा सतसैया के दोहे सुनाने वाले रीतिकालीन कवि बिहारी भी एक बेशकीमती सलाह देते हैं उनके अनुसार –
तजि तीरथ हरि राधिका, तन दुति कर अनुराग। जेहि ब्रज केलि निकुंज मग, पग पग होत प्रयाग।।
अर्थात तीर्थ जाने का चक्कर छोड़ो, और राधाकृष्ण की युगल दिव्य देह कान्ति का अवलोकन श्रद्धा और प्रेम सहित करो, यह जीवंत प्रयाग है। राधा की शुभ्र देह गंगा है, कृष्ण की श्याम देह यमुना है और उनका प्रेमयुक्त मिलन अरुणिम सरस्वती है। यानि इस दिव्य युगल में सच्ची प्रीति ही त्रिवेणी स्नान है।
अतः यदि आप महाकुंभ में पवित्र डुबकी लगा आए हैं तो सर्वोत्तम है पर यदि ऐसा संभव नहीं हो पाया है तो निराश मत होइए सनातन धर्म में उसका भी उपयुक्त विकल्प प्रस्तुत है, जिससे आपकी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होगा। कुल मिलाकर संवेदना का नियमन, चेतना का संचरण और ज्ञान का संधान ही जीवन विकास का सच्चा विधान है जिसका हम सभी को यथोचित सामर्थ्यानुसार पालन करना चाहिए।