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प्रार्थना क्या है और ये हमारे लिए क्यों आवश्यक है? प्रार्थना का अभिप्राय क्या है? प्रार्थना कैसे की जानी चाहिए? क्या प्रार्थना से चीज़ें बदलती हैं या बदलाव आता है? प्रार्थना से हम क्या पाते हैं? क्या वाकई प्रार्थना में शक्ति होती हैं? ऐसे अनेकों प्रश्न हैं जो बार-बार हमारे मस्तिष्क में कौंधते रहते हैं और हमारे दिलो-दिमाग पर छाये रहते हैं।

मेरे पूज्य पिताश्री हमेशा कहा करते थे कि 'प्रार्थना आत्मा का शुद्धिकरण है, भौतिक वस्तुओं के संग्रह का सोपान नहीं' और यह कथन सोलह आने सच है क्योंकि विश्व का कोई भी धर्म या सम्प्रदाय हो सभी में प्रार्थना पर ज़ोर दिया गया है। यह हमें उस परमशक्ति से जोड़े रखने का एकमात्र जरिया है जिसे हम 'ईश्वर', 'प्रभु', 'अल्लाह', 'गॉड', 'परमपिता परमेश्वर' और भी न जाने कितने नामों से पुकारते हैं। दरअसल प्रार्थना उस परमशक्ति से संवाद करने का साधन है, जो ब्रह्माण्ड में होने वाली अनेकानेक घटनाओं का विधिपूर्वक संचालन कर रहा है, ताकि उसके सानिद्ध्य में हम पल्लवित हो, मुखरित हों, विकसित हों। जितने समर्पण, लगन और अहोभाव से हम प्रार्थना करेंगे, उतने ही हम अपने आप को उस परमशक्ति के निकट पाएंगे, उससे हमारी प्रगाढ़ता होगी। यही प्रार्थना का अभिप्राय है।

प्रार्थना का तरीका सबका अलग-अलग हो सकता है; मौन, ध्यान, संगीत, आराधना कुछ भी। बस इसमें औपचारिकता की कोई गुंजाईश नहीं होती। इसकी फलश्रुति हमारे जीवन में शांति की स्थापना के साथ होती है और हमारे अंदर इतनी क्षमता विकसित हो जाती है कि जीवन में समय-असमय होने वाली उथल-पुथल में हम बिना घबराये धैर्य और संयम से काम लें सकें। हमारी पुरज़ोर कोशिश ये रहनी चाहिए कि हम प्रार्थना की पवित्रता को बरक़रार रखें। प्रार्थना में भाव की प्रधानता रहती है, शांतचित्त और एकाग्रता से की गई प्रार्थना का अत्यंत महत्त्व है, कई वैज्ञानिक अनुसंधानों में भी यह बात स्वीकार की गई है।

चीन के संत लाओत्से का कथन है--'जो संतोष से संतुष्ट है, वह सदा भरा-पूरा रहेगा।' पर ये संतोष मिलेगा कहाँ? जीवन में जो मिला है, उसके प्रति अनुग्रह से भरे रहें और ईश्वर को धन्यवाद देते हुए अपनी खुशी व्यक्त करते रहें । अपने-आप को पहचानें। कहें - 'तूने बहुत दिया। तेरा धन्यवाद। मैं भरा-पूरा हो गया हूँ।‘ रात में, दिन में , अकेले में, भीड़ में; जब भी, कहीं भी ये भावना मन में उठे तभी, उसी क्षण उस परमात्मा के प्रति अहोभाव से भर उठें उसे आंतरिक ह्रदय से धन्यवाद दें। आप पाएंगे कि आप संतुष्टि के भाव से परिपूर्ण हैं, आल्हाद और प्रसन्नता से आप फूले नहीं समायेंगे। उस परमशक्ति से आपकी निकटता बढ़ेगी। दरअसल अनुग्रह की अभिव्यक्ति ही सच्ची प्रार्थना है ।

कई बार हमारे दिमाग में ये प्रश्न भी उठता है कि क्या प्रार्थना में मांगना उचित है? हाँ, अवश्य, हम उस परमशक्ति से अपने अपराधों की, गलतियों की क्षमा मांग सकते हैं, समाज में अमन-चैन कायम रहे, आपस में सौहाद्र और भाईचारा बना रहे इसकी दुआ मांग सकते हैं, हम हर तरह के प्रलोभन से, लालच से दूर रहे इसकी विनती कर सकते हैं। (वर्तमान परिप्रेक्ष्य में विश्व में बनी हुई विकट परिस्थितियों को देखते हुए आज प्रार्थना का महत्त्व और भी बढ़ गया है और हम सभी को सामूहिक रूप से मिलजुलकर उस परमशक्ति से विश्वकल्याण हेतु आपसी प्रेम, करुणा, दया और सद्बुद्धि की प्रार्थना करनी चाहिए जिससे सम्पूर्ण विश्व में शांति स्थापित हो।) सुख और दुःख दोनों ही ईश्वर प्रदत्त हैं। अतः हमें दोनों को ही खुले दिल से स्वीकार करना चाहिए। ये शक्ति हमें प्रार्थना से ही मिलती हैं। यह सिर्फ कहने की बात नहीं है; मनन करने की, गुनने की, जीवन में उतारने की बात है कि अगर हमारे मन का न हो तो हमें ये तुरंत स्वीकार कर लेना चाहिए कि इसमें परमात्मा की मर्ज़ी शामिल है अतः निस्संदेह ये हमारे लिए हर दृष्टि से ज्यादा उपयुक्त है। दुराग्रह, असंतोष या दुःख का कोई भाव क्षण भर भी हम पर हावी न हो पाए तभी हमारी प्रार्थना सफल है। जो मिल रहा है उसे आनंद-भाव से आत्मसात करें। जहां तक बदलाव का प्रश्न है तो अवश्य ! प्रार्थना से चीज़ें स्वतः बदलती हैं यदि प्रार्थना निश्छल और पूर्ण समर्पण भाव से की जाए। दरअसल जब हम पूरे भाव से प्रार्थना करते है तो हमारा मन-मस्तिष्क सशक्त हो जाता है और हम स्वयं ही उस वांछित बदलाव को या कार्य को पूरा करने के लिए सम्पूर्ण मनोयोग से उद्यत हो जाते हैं।

एक बार किसी ने स्वामी विवेकानंद जी से पूछा कि आपने प्रार्थना से क्या पाया ? स्वामी जी का उत्तर लाजवाब करने वाला था, उन्होंने कहा – “मैंने पाया कुछ नहीं, बस क्रोध, अवसाद, ईर्ष्या, जलन और असुरक्षा की भावना खो दी।“ इन अवगुणों को खोना, परोक्ष रूप से कितना कुछ पा जाना है । उस परमशक्ति के मूर्त या अमूर्त किसी भी रूप का ध्यान, मनन, चिंतन, भजन हम कर सकते हैं, बशर्ते कि हम उसके प्रति विश्वास से भरे हुए हो और बिना किसी संशय के प्रार्थना करें क्योंकि प्रार्थना और विश्वास दोनों अदृश्य है परन्तु दोनों इतने शक्तिशाली हैं कि असंभव को संभव बनाने की क्षमता रखते हैं। इस तरह से की गई प्रार्थना की शक्ति को हम स्वयं अनुभूत करेंगे।

प्रार्थना को हमने एक संवेदनशील और धार्मिक चोला पहना दिया है जो विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों के अनुरूप विभिन्न रूपों में निष्पादित की जाती है। जबकि यह किसी भी व्यक्ति के आंतरिक अस्तित्व की खोज में मदद करती है और उसे एक आध्यात्मिक अनुभव की और ले जाने में सहायक होती है। इसका किसी विशेष धर्म, जाति या सम्प्रदाय से कोई लेना-देना नहीं है। यह तो हम मनुष्यों को उस परमशक्ति से जोड़ने का , उसमें आकंठ डूबने की मध्यस्थता करने का साधन मात्र है। प्रार्थना के माध्यम से व्यक्ति अपने मन, शरीर, और आत्मा के लिए शांति और मुक्ति की कामना कर सकते हैं। अतः इसमें किसी धर्म या सम्प्रदाय को बीच में लेकर हम उसकी शक्ति को कम करने का ही कार्य करते हैं जो सर्वथा अनुचित है।

हमारे दैनिक कार्यों में इसका समावेश होना अत्यावश्यक है। प्रतिदिन कुछ पल, कुछ क्षण उस परमशक्ति को समर्पित करके ही यदि हम दिन की शुरुआत करें तो हमारा चित्त प्रफुल्लित व आल्हादित रहेगा। इससे हमारे अंदर सकारात्मक ऊर्जा का संचार होगा, हमारा मनोबल बढ़ेगा और हमें आत्मसंतुष्टि की अनुभूति होगी। ये सभी हमारे आत्मिक स्तर को उठाने में सहयोगी सिद्ध होंगे। अतः प्रार्थना के अद्भुत और विलक्षणकारी परिणाम सुनिश्चित हैं।

कहीं पढ़ा था कि कुछ वस्तुएं समीप जाने से बिना मांगे ही मिल जाती हैं, जैसे अग्नि से गर्माहट, बर्फ से शीतलता और फूलों से खुशबू। वैसे ही ईश्वर से कुछ भी मांगिये मत बस निकटता बढाईये, सब कुछ स्वतः मिलने लगेगा।

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