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उदास होने के लिए दुनिया में बहुतेरे कारण ढूंढें जा सकते हैं, कभी हम इसीलिए उदास हो जाते हैं कि दिन रात सर खपाने और कड़ी मेहनत करने के बाद भी अपेक्षित सफलता नहीं मिली, या यदि मिल भी गई तो आधी-अधूरी मिली अथवा चाहे गए समय के बाद मिली सो उसका मिलना न मिलना महत्वपूर्ण नहीं रहा और उदासीनता हम पर हावी हो गई. कभी-कभी उदासीनता का कारण होता है - रिश्तों की सहायता में कमी या जिनके ऊपर हमारे सहस्राधिक एहसान है, वे आवश्यकता के क्षणों में ऐसे गायब हो गए जैसे गधे के सर से सींग. कभी-कभी उदासीनता हमें इसलिए घेर लेती है कि अवसर पर हम सजग नहीं रहते अथवा अवसर भुनाने की कला में हम माहिर नहीं होते या यूँ कहें कि अवसरानुकूल पैंतरेबाज़ी या तिकड़म जुटाने में हम स्वभाववश निपुण नहीं होते. स्वभावजन्य औद्धत्य, उद्विग्नता, अमर्ष, सत्यासत्य, विवेकान्धता, अनिर्णय की प्रवृत्ति कृत-कर्म के फलागम की न्यूनता या शून्यता की कारक होती है, और हम हैं कि इसके लिए आत्मानुसंधान न करके अन्यों को दोषारोपण में प्रवृत्त हो जाते हैं और फिर उदास हो जाते हैं. सो उदासीनता नानाविध होती है, नानरूपेण होती है और नाना माध्यमों से हमें घेरती रहती है. कहीं एक पंक्ति पढ़ी थी - "सजीव और निर्जीव में सिर्फ इतना फर्क होता कि निर्जीव किसी का बुरा-भला नहीं करते जब तक कि सजीव उनसे ऐसा न करवाएं." उदासी या उदासीनता भी एक निर्जीव पदार्थ ही है, वह कभी हमारा कुछ बिगाड़ नहीं सकती बशर्ते कि हम स्वयं उससे अपना बिगाड़ न करा लें. यह कारणजन्य होती है इसलिए कारण के समाप्त होते ही उदासी भी समाप्त हो जाती है. सो अल्पजीवी को शतजीवी बनाने का उपक्रम कृपया न करें. उदासी को झटककर उतार फेंके और उल्लास का वरण करें. विवेकानंद की शैली में 'उत्थिष्ठ जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत' - अर्थात उठो, जागो, आशीर्वाद या वरदानों की वृष्टि हो रही उसका वरण करो, आगे बढ़ो. प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढे चलो, बढे चलो. आदतें सुधारो और जीवन संवारो. यही उदासीनता पर विजय पाने का महामंत्र है. जीवन में क्रूर या पापी ग्रहों का दुष्प्रभाव इसलिए दिखाई देने लगता है कि हम उन्हें अनुकूल वातावरण सुलभ कराते हैं यथा - राहु अन्धकार, गन्दगी, उदासीनता, जड़ता, निष्क्रियता का कारक होता है सो यदि हम राहु की वृत्तियों को अपनाएंगे तो गृह के दुष्प्रभाव को भोगेंगे ही. मेरा मानना है कि सबसे ज्यादा प्रसन्न वे लोग नहीं होते जो ऊपर से प्रसन्न दिखाई देते हैं बल्कि वे लोग होते हैं जो उदासीनता को खूबसूरती से अपने जीवन का हिस्सा बनाकर मुस्कुराते और कर्म में लीन रहते हैं.
ओशो का कथन है कि – “उदासी एक बहुत समृद्ध अनुभव बन सकता है मगर हमें उस पर काम करना होगा. उससे डरकर भागो मत बल्कि डटकर उसका सामना करो”. अब ये तो बड़ी विचित्र सी बात हुई, लेकिन है सोलह आने सच! न मानें तो गार्गी और शुभी की ये छोटी सी कहानी सुन लीजिये, अपने आप सारी ग्रंथियां खुल जाएंगी, मन पर जमी हुई उदासी की सारी धूल साफ़ हो जाएगी और सारा मंज़र खिला-खिला नज़र आने लगेगा.
अभी कुछ ही दिन पहले कि बात है गार्गी जो 10-11 वर्ष की बच्ची है, मेरी भांजी शुभी की सहपाठी है, अपने माता-पिता से बेहद नाराज़ चल रही थी. हुआ यूँ कि इसबार उसका जन्मदिन, उसके मन-मुताबिक नहीं मनाया जा सका. जन्मदिन के ठीक एक दिन पहले उसके ननिहाल से खबर आयी कि उसकी नानी बीमार हैं और उनलोगों को उनसे मिलने बरेली जाना होगा. इसमें न-नुकुर की कोई गुंजाईश ही नहीं थी. आनन-फानन में केक काटा गया (वो भी क्योंकि उसका आर्डर पहले दिया जा चुका था), न कोई दोस्त, न पार्टी, न गिफ्ट्स. उसके बाद फटाफट सब शाम की गाड़ी से बरेली निकल गए. मेरा ये तजुर्बा रहा है कि जन्मदिन को लेकर बच्चे बहुत ज्यादा कॉन्शस और पज़ेसिव रहते हैं. उन्हें लगता है कि परिवार वालों को उनके इस ख़ास दिन को और ख़ास बनाने के लिए बहुत मेहनत करना चाहिए. अपना तन-मन और विशेषकर 'धन' जी खोलकर खर्च करना चाहिए. अगर किसी कारणवश या भूलवश ऐसा नहीं हुआ तो उन्हें लगता है कि उनका पूरा जीवन ही व्यर्थ है. बस यही गार्गी के साथ हुआ उसके बाद से वो एकदम उदास और अनमनी हो गई. पढाई, होमवर्क, ट्यूशन कहीं भी उसका मन नहीं लग रहा था क्योंकि उसने अपने जन्मदिन के 'ग्रैंड सेलिब्रेशन' के जो ख्वाब देखे थे उन्हें पूरा करने के लिए के लिए उसे अब अगले साल तक इंतज़ार करना होगा. साथ ही दोस्तों के बीच जो किरकिरी हुई सो अलग. चूँकि गार्गी के माता-पिता दोनों वर्किंग हैं अतः समयाभाव के कारण बच्ची की इस मनःस्थिति को भांपने में चूक गए. शुभी और उसके अन्य दोस्तों को गार्गी का इस तरह उदास व गुमसुम रहना ज़रा भी नहीं सुहा रहा था. जब मुझे ये बात पता चली तो मैंने कहा तुम लोग कुछ ऐसा करो कि गार्गी का मन कहीं और लग जाए और वो अपने जन्मदिन वाली बात भूल ही जाए क्योंकि इतने छोटे बच्चे समझाने से नहीं समझते उनका तो मन कहीं और लगाना होता है. पर कहाँ? अचानक शुभी ज़ोर से चिल्लाते हुए बोली - समझ गई!! और दौड़ते हुए सोसाइटी के गेट की तरफ भागी. मैंने देखा गेट पर तीन-चार पप्पीज़ उछल-कूद कर रहे थे पास ही उनकी माँ (एक कुतिया) भी बैठी हुई थी. अभी पिछले हफ्ते ही उन पप्पीज़ का जन्म हुआ था. ठण्ड तेज़ होने की वजह से हम सब भी चिंतित थे कि वो बच भी पाएंगे या नहीं. परन्तु हम बड़ों ने उस दिशा में कोई पहल नहीं की थी. शुभी ने दौड़ कर गार्गी को बुलाया और उसे पप्पीज़ के पास ले गई, उनको देखते ही गार्गी का चेहरा एकदम खिल उठा, दोनों पप्पीज़ के साथ खिलवाड़ करने लगीं, गार्गी ने आवाज़ देकर अपने बाकी साथियों को भी इकट्ठा किया. झुण्ड बनाकर आपस में न जाने क्या गटशट की और सभी बच्चे अपने-अपने घर की ओर दौड़ पड़े. मैं कौतूहलवश बालकनी में ही खड़ी रही. मैंने देखा थोड़ी ही देर में बच्चे अपने घरों से कुछ समान लेकर आते हुए दिखाई दिए. कोई गत्ते के डब्बे लिए था, तो कोई पुरानी चादर और कम्बल का टुकड़ा पकड़े हुए था, कुछ अपने हाथों में बिस्किट के पैकेट और पानी के लिए प्लास्टिक का कटोरा पकडे हुए थे. गार्गी किसी लीडर की भांति सबको समझा रही थी, देखते ही देखते बच्चों ने गेट के पास कोने में पप्पीज़ के लिए बढ़िया सा शेल्टर बना दिया, नीचे चादर बिछा दी, ओढ़ाने के लिए कम्बल भी रख दिया, एक कटोरे में बिस्किट और एक में पानी रख दिया. उसके बाद गार्गी ने सोसाइटी के वॉचमैन को भी कुछ हिदायतें दीं. उसके बाद तो रोज़ ही गार्गी स्कूल से आने के बाद पप्पीज़ के लिए खाना-पानी रखती और शाम को नियम से उनके साथ खेलती. मैंने देखा गार्गी की पुरानी रंगत लौट आयी थी. यह उसे खुद भी नहीं मालूम था कि उसने अपनी उदासी पर किस तरह स्वयं के द्वारा ही विजय पाई है. किसी के समझाने-बुझाने से, किसी प्रलोभन से या किसी के झूठे आश्वासन से उसकी उदासी दूर नहीं हुई जब स्वयं ही उसने अपना मन कहीं लगाया तभी उसे अपनी आंतरिक पीड़ा या दर्द से छुटकारा मिला यानि खुश रहना हमारे ही हाथ में है. यह सत्य है कई बार दूसरों के लिए कुछ करके, उन्हें कुछ देकर भी हम खुद की ख़ुशी पा सकते हैं जरूरत तो बस इस महामन्त्र को समझने की है.
अतः उदास बिलकुल भी न हों क्योंकि उदास होकर हम उस परमशक्ति की इच्छाओं के विरुद्ध कार्य करते हैं, उसने तो हमें खुश रहने, खुशियां फ़ैलाने के लिए ही भेजा है, यही उसकी आंतरिक, प्रबल अभिलाषा है और हमें इसका हर हाल में सम्मान करना चाहिए.