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कुबड़ी दासी ने रानी को कैसा बोल सुनाया...
कैकेयी ने उस अर्ध रात्रि में ऐसा स्वांग रचाया ...
नाम मंथरा उस कुबड़ी का जो थी कैकेयी की दासी
रानी संग वो इत उत डोले
कैकेयी की मनवासी...
दासी ने कैकेई के मन में ऐसा चक्र चालाया... मोह सिवा कैकेइ रानी को कोई समझ ना आया...
कान फूँक डाले रानी के बुद्धि लियो बांधाए ...
बुद्धि हीन हो उस रानी ने क्या क्या स्वांग रचाये ...
एक रात में बनी ज्वाला कल तक जो थी गंगा...
मोह प्यार सब त्यागा उसने और बनी अतिरंगा ...
लालच के सागर में रानी कितने गोते खाए...
पर जी ते जी अंत समय तक कितने नर्क कमाए...
लोभ की नगरी में रानी ने ऐसा कदम उठाया ...
राम को वन में और भरत को राज पाठ दिलवाया...
कलंक का टीका लगाके रोये साड़ी पहने स्वेत ... अब पछताए क्या हुआ जब चिड़िया चुग गई खेत...
पूरे राजमहल में अब वो पागल सी थी...
अब बेचारी विधवा बन कभी चलती गिरती थी...
उसी स्वांग के चक्कर में ऐसी दशा है पाई ...
अफसोस ही बचा भाग मे
अपना कोई नाहीं ...
मन को वशमे करले प्राणि
और बोलले मीठी वाणी...
स्वांग दिखाता रूप निराले और करता मन मानी...