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इतना तन्हा खुद को महसूस कर रहा हूँ
जैसे अपने अभी मुझे दफ्न कर आए हो
सोच के समंदर में इतना डूब गया मैं
मानो सैर कर के जनाज़ा फिर सैर पर निकला हो।
ग़ौर से सुनो, सुनाई देती है
कुछ चीखें जो सुनाई नहीं देती
उम्र ढलती है, आइने में तवाइफ़ों की भी
ता-उम्र चीख़ आइने की भी निकलती है
ग़ौर से सुनो, सुनाई देती है
कुछ चीखें जो सुनाई नहीं देती।
किस जात से पूछूँ यह जात क्या है
नक़ाबी कलियुग का धर्मग्रंथ कहॉं है
नंगे पैर मिल चलता हूँ
जैसे बली का बकरा ज़ेवर संभालता हूँ
पानी का बदन सॉंसों से भरता हूँ
कैसे खुली ऑंखों से जन्नत तैरता हूँ
क्या मेरी बे-रूह पड़ी क़ब्र की तड़पन उसे दिखाई नहीं देती
कुछ चीखें जो सुनाई नहीं देती।
ज़िंदा मुर्दों की भीड़ में न जाने कितने ख़ुदा के घर हैं
पूछ लो हिसाब कुबेर से तो मौत ही आख़िरी दर है
ख़्वाहिशों ने कभी मुझसे दर पूछा नहीं
मॉं है तो मैंने खुदा से उसका घर पूछा नहीं
मुख़बिरों ने बताए कई मज़हब के पते
पत्थरों ने कहा, "इस में मेरा गुनाह नहीं"।
कंधा कमाने पर जात का सौदा नहीं
शमशान की लकड़ी पर धर्म का कोई पौधा नहीं
नज़ारे कई देखे मौत के अब नज़ारों में वो बात नहीं
मरने वाले मरते हैं मगर ज़िंदगी की पल औक़ात नहीं
जब जलाएगा कोई अपना तब दर्द भी नसीब न पाएगा
खुद में इंसानियत ढूंढ खुदा मुर्शिद ही नज़र आएगा।
सोच के समंदर में मैं इतना डूब गया।