यूं तो मार्च क्लोजिंग में अक्सर ऑफिस से निकलने में देरी हो ही जाया करती थी पर शायद आज ज्यादा ही लेट हो गया था। रात के 9:00 बज चुके थे। मैं घर जाने की जल्दी में चौराहे की दुकान से ही डबल रोटी का पैकेट खरीद कर निकला, तो जल्दबाजी में किसी से टकरा गया और हाथ में उठाया डबल रोटी का पैकेट हाथ से छूट कर जमीन पर जा गिरा। मैंने नजरें उठाकर देखा तो 30 -32 साल की युवती, बदन पर मैली सी साड़ी, बिखरे से बाल और चेहरे पर हल्की सी मुस्कान वाली नजरें मुझे ही निहार रही थी। अचानक मैंने अपना ध्यान उस पर से हटाया और डबलरोटी का पैकेट उठाने नीचे झुका तो मुझसे पहले ही वह उस पर झपट पड़ी और पैकेट खोल कर इस तरह खाने लगी जैसे वह बहुत दिनों से भूखी हो। मैंने उसे आश्चर्य से निहारा और बिना कुछ बोल ही दुकानदार के पास से एक पैकेट ओर लेने चला गया। तभी मेरे पूछने पर दुकानदार ने बताया... पगली है साहब, कभी मांग कर खा लेती है, कभी कोई मर्जी से दे जाता है, तो कभी किसी राहगीर के हाथ में खाने का सामान देखकर झपटकर छीन लेती है, और खाने लगती है।
लेकिन यह तो गलत है ना। ऐसे तो किसी को बुरा भी लगता होगा ।
हां साहब, गलत तो है, और इसीलिए कभी-कभी बिचारी इन्हीं हरकतों की वजह से किसी राहगीर से पिट भी जाती है। पर क्या करें, आखिर पापी पेट तो भरना ही है ना साहब।
मैं दुकानदार की बातें सुन कर चुपचाप चला आया, लेकिन न जाने क्यों उसका चेहरा मेरी आंखों के सामने रात भर घूमता रहा और रात बेचैनी में करवटें बदलते-बदलते ही गुजर गई।
अगली रात में फिर उसी दुकान पर डबल रोटी लेने पहुंच गया। आज हल्की सी बारिश हो रही थी। मौसम में भी हल्की ठंडक थी। मुझे लगा आज वह नहीं मिलेगी, लेकिन फिर भी मेरी निगाहें उसे ही तलाश रही थी। तभी चौराहे के दूसरी तरफ मुझे वह दिखाई दी। वह बारिश से बचने के लिए अपनी गली-फटी सी साड़ी से अपना सर ढकने का प्रयत्न कर रही थी। मैं उसे देखकर भाव-विभोर हो गया और मैंने उसके लिए भी एक डबल रोटी का पैकेट ले लिया। न जाने क्यों आज मुझे घर जाने की जल्दी भी महसूस नहीं हो रही थी, बल्कि उसको जानने की अजब सी दिलचस्प मन में उठ रही थी। तभी मैं दौड़कर उसके पास पहुंचा और उसे डबल रोटी का पैकेट देने लगा, तो वह खुशी से उछल कर तालियां बजाने लगी। जैसे किसी बच्चे को उसकी पसंद का खिलौना मिल गया हो। वह मेरे हाथों से फिर डबल रोटी झपट कर खाने लगी और खाते-खाते उसने अपनी मासूम नजरें उठाकर मुझे देखा, तो डबल रोटी को छोड़कर अपनी साड़ी का पल्लू हटाकर अपने हाथों से ही तन को ढकती हुई गीले बदन में सिकुड़ने लगी उसकी ऐसी हरकत देखकर मैं कुछ समझ नहीं पाया, लेकिन आसपास से गुजरते लोग हमें देख कर हंस रहे थे। मैं झेप गया और तुरंत ही अपने घर चला आया। दूसरे दिन जब मैं डबल रोटी लेने गया तो दुकानदार ने बताया.......
साहब, बदनसीब पगली को लोग रोटी के बदले अपनी हवस का शिकार बनाते हैं। इसलिए कभी-कभी ज्यादा भूख में खाने को मिल जाए तो बेचारी अपना फर्ज निभाने लगती है।
लेकिन, इस तरह चौराहे पर वह भटक रही है, क्या उसको कहीं भी सहारा नहीं मिल सकता?
ठीक कहा साहब, सहारा दिलाने के लिए ही एक बार उसे महिला आश्रम में भी छोड़कर आए थे लेकिन वहां भी किसी अधिकारी ने नहीं बक्शा, और ना जाने कौन सफेदपोश अपनी हवस का बीज इसके पेट में बो गया।
इस हालत में यह यहां पड़ी है। इस तरह तो यह मर जाएगी।
हां साहब, हो सकता है यही इसका नसीब हो।
दुकानदार से इतना सब सुनने के बाद मेरे चेहरे पर उदासी के भाव उभरने लगे और मैं घर लौट रहा था, वह चौराहे पर बैठी डबल रोटी को दोनों हाथों में पकड़ कर जोर-जोर से दांतों से काट कर खा रही थी। फिर कुछ दिनों तक मैं उधर नहीं गया। मेरा मन उदास हो गया था, लेकिन उसका चेहरा बार-बार मेरी नजरों के सामने घूमने लगा। अब मैंने सोच लिया था, मैं उसके लिए जरूर कुछ करूंगा और फिर एक दिन मैं वहां गया, तो वह वहां नहीं थी। मैं चौराहे के दूसरी तरफ दौड़ कर पहुंचा तो वहां भी वह नहीं दिखी। तभी मेरे मन की व्याकुलता और बढ़ गई और मैं दुकानदार से उसके बारे में जानने के लिए ज्यों ही चलने लगा तो तेज हवा के एक झोंके से एक फटी सी बोरी का टुकड़ा उड़ता हुआ दीवार से जा चिपका। यह वो ही बोरी थी, जिसे वह अपना बिस्तर मान बैठी थी। मैं तुरंत ही लपककर दुकानदार के पास पहुंचा, तो पूछने पर पता लगा, कल रात ही उसने एक बच्चे को जन्म दिया है। और वह सरकारी अस्पताल में भर्ती है।
मैं रात ही सरकारी अस्पताल में गया तो वह अपने बच्चे को दूध पिला रही थी। मैंने उसे दूर से देखा और न जाने क्या सोचकर उससे बिना मिले ही लौट आया। दूसरे दिन सुबह ही मैं उसके लिए डबल रोटी का पैकेट और बच्चे के लिए खिलौना लेकर फिर अस्पताल गया, तो वहां कुछ भीड़ जमा थी। मैं भीड़ को चीरकर आगे बढ़ा तो पता चला, कल रात ही उसका कोई बच्चा चुरा कर ले गया ,और उस बेचारी ने रो-रोकर अपनी जान दे दी। वह अब इस दुनिया में नहीं थी। मेरी आंखों में भी छिपे दो आंसू दगा दे गए । मैं डबल रोटी का पैकेट उसकी लाश के सिरहाने रख कर लौटते हुए सोचने लगा... किसी एक के चले जाने से जिंदगी कभी खत्म नहीं होती, लेकिन लाखों के मिल जाने से भी किसी एक की कमी पूरी नहीं होती।
आज भी जब उस चौराहे से निकलता हूं तो कार का ब्रेक लग जाता है, और उस चौराहे से आवाज आने लगती है... यह गंदगी तो महल वालों ने फैलाई है, वरना गरीब तो सड़क से थैलियां भी उठा ले जाते हैं।