समय बदलता है, परिस्थितियां बदलती है, लोगों का रहन-सहन, खान-पान,सामाजिक चेतना, संस्कार बदले, इस बदलाव की कड़ी में विवाह भी हमारे जीवन और समाज का एक अभिन्न अंग है जिसमें काफी कुछ बदलता हुआ दिखाई देता है। अब की शादियों में वो पहले जैसा उमंग और उत्साह नहीं रहा जो पहले 90 के दशक या उससे पहले हुआ करता था।

पहले भी शादियों वैदिक रीती रिवाज, वैदिक मन्त्रों द्वारा होती थी अब भी वैसा ही होता है लेकिन अब की शादियों में एक तरह से फैंसी कल्चर दिखावे को लोग ज्यादा महत्व देने लगे हैं। तामझाम ,पहनावा, जयमाल सिस्टम पर ज्यादा जोर दिया जाता है । शादी की मुख्य तैयारियों में अब यही एक चीज है जिस पर लोग ज्यादा ध्यान देते हैं। जयमाला हुआ नहीं, बफर में लोग गिद्ध की तरह टूट पड़ते हैं, खाया-पिया अपने अपने घर चले गए। बचे तो सिर्फ बाराती और घराती पक्ष के घरवाले, इसके बाद संछिप्त रूप से पंडित जी ने विवाह का आगे का कार्य क्रम सम्प्पन करवा दिया, सुबह होते -होते विदाई हो गई ।

लेकिन पहले ऐसा नहीं होता था, विवाह वाले घरों में हफ़्तों, महीनों विवाह का एक अलग ही जश्न माहौल हुआ करता था, जिस दिन विदाई होती थी, उस दिन भी बारात अपने जनमाशे में ठहरती थी, जिसे बसी प्रथा कहते हैं, बारातियों और घरातियों के बीच शिष्टाचार हुआ करता था, बारातियों द्वारा घरात पक्ष का जनमाशे में स्वागत सत्कार, भोजन आदि कराया जाता था, शास्त्रार्थ, गायन वादन,वाद- विवाद प्रतियोगिता आदि बहुत सी चीजें हुआ करती थी।

अब तो ये सब बीते जुग की बात हो गई आने वाली पीढ़ी शायद ही इसके बारे में जाने।

इसके आलावा भी बहुत सी ऐसी चीजें विवाह वाले घर में हुआ करती थी जैसे विवाह पूर्व 2, 3 दिन पहले से आस पड़ोस की स्त्रियों का इकट्ठा होना , गेहूं की धुलाई ,बिनाई करते हुए गायन, वादन करना, दादर ,सोहर ,बनरा जैसे विवाह गीत गाती थी, अब ऐसा कुछ नहीं होता। पहले मंडप 3 दिन पहले डाला जाता था , मंत्री पूजा होती अब ये सब होता नहीं हुआ भी तो विवाह वाले दिन ही सब कुछ कर लिया । सभी नाते रिस्तेदार कई दिन पहले से आ जाते, शादी के बाद मंडप छूटने के बाद ही घर से जाया करते थे।

बारातियों को पत्तल में पकवान परोशना, स्वागत सत्कार करना, अब ये सब कुछ नहीं होता। शादी सीधा विवाह घर से किया वहीँ के लोग बनाने वाले परोशने वाले, अपना खाओ और चलते बनो।

अमुक व्यक्ति बहुत पैसे वाले हैं, ओहदे वाले हैं, ये दुनिया को अपने नाते रिश्तेदारों को कैसे बताएं ,इसके लिए विवाह एक महत्वपूर्ण जरिया है, शहर के किसी बड़े विवाह घर पे शादी ओर्गनइज की ,महंगे कार्ड छपवा दिए, बटवा दिए अब सभी शादी वाले दिन , क्या बाराती, क्या घराती सभी तमाशबीन हैं । उसी दिन सीधा विवाह घर पे पहुंचे, सारे रस्म वहीँ हुए बहुत किया तो गेट पे खड़े होकर थोड़ा बहुत दुआ सलाम हुआ, आनन -फानन में सब निपट गया विवाह की सारी झंझटों से बच गए।

इन सब बदलावों से फर्क ये पड़ा की अब लोगों के बीच वो आपसी प्यार, आत्मीयता, सौहादर्या देखने को नहीं मिलता, जैसा पहले लोगों के बीच हुआ करता था। सारे रिश्ते-नाते, भाई-चारा महज लोगों के बीच दिखावा बन कर रह गया।

जैसा बांकी चीजों में हुआ, विवाह में भी हिन्दू समाज में विदेशी संस्कृति का प्रभाव बढ़ता गया। चट मंगनी पट व्याह जैसे रिवाज श्चियन, मुस्लिमों की विवाह पद्धति महज कुछ ही मिनिट, घंटों में हो जाती है, वैसा ही हिन्दू समाज में भी लोग सारी चीजें कम से कम समय में करना चाहते है। इसका नतीजा है अब की शादी खाली रस्म अदायगी है कोई व्यवहारिकता नहीं है।

शादी जैसा पवित्र बंधन महज दो व्यक्तिओं के बीच साथ रहने का समझौता बन कर रह गया है।

पहले कभी कभार शादी सम्बन्ध में सम्बन्ध विच्छेद अनबन की ख़बरें दिखाई सुनाई पड़ती थी, अब ये चीजें आम -सी बात हो गई है। थोड़ा सा भी मन मुटाव हुआ आपसी सम्बन्ध ख़राब हो गया, तलाक तक की नौबत आ जाती है। सवाल यही उठता है ; क्या हमें फिर से अपने जीवन मूल्यों, परम्परा की ओर लौटना चाहिए, सांस्कृतिक चेतना को पुनर जागृत करना चाहिए या इसे कुरीति दकियानूसी कह कर ख़ारिज कर देना चाहिए। जैसा दुनियावी फ्रेम है दिखावटी दुनिया, भेड़ चाल से ही आगे बढ़ते रहना चाहिए।

सोचने वाली बात ये है कि जिस विदेशी संस्कृति, परम्परा को अपना कर हम भले ही ढोंग रचाएं, सभ्य और प्रगतिशील होने का दावा करें लेकिन हम जिनकी नक़ल करने पर आमादा हैं, वे आज भी अपनी परम्परा का ही निर्वहन करते आ रहे हैं।

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