स्वर्णकुश नाम का एक सनकी अजीबो गरीब राजा था, वो बहुत ही अजीब -अजीब तरह के फरमान जारी करता जो प्रजा की समझ से परे होते लेकिन प्रजा को मजबूरी में वो सब कुछ करना पड़ता, राजा से बगावत करने की सजा सीधा मौत थी।
प्रजा बहुत ही दुखी और पीड़ित थी उनमें इतनी भी हिम्मत न थी राजा की चुगली भी कर सके, राजा के गुप्तचर पूरे नगर में फैले थे। जगह-जगह राजा ने अपनी मूर्ति लगवाई थी, जनता बाध्य थी उसकी पूजा करे, राजा का फरमान था; “स्वर्णकुश भगवन है उसका फरमान ही ईश्वर का विधान है।"
स्वर्णकुश को त्रिशाला चारोनाम की एक बहुत ही सुन्दर पत्नी थी, लेकिन उस को अभी तक कोई संतान न थी, रानी इतनी सुन्दर थी फिर भी राजा उसके नजदीक नहीं जाता था, न ही उससे कभी सम्बन्ध बनाता था उसके महल के अंदर सभी दासियाँ थी, किसी पुरुष को महल के अंदर जाने की अनुमति नहीं थी, सभी पुरुष सैनिक बाहर से ही पहरा देते थे। स्वर्णकुश ने राज्य में गुप्त महल बनवाया था जिसमें सभी कुंवारें पुरुषों को निर्वस्त्र रखता, उन्हें महिलाओं से दूर रखा जाता वे उस महल से बाहर नहीं जा सकते थे।
उसके राज्य में एक प्रथा थी वो अपना जन्मदिन बहुत ही धूम धाम से मनाया करता था। एक खेल प्रतियोगिता आयोजित करवाता जिसमें सभी पुरुष निर्वस्त्र होकर दौड़ते, सभी स्त्रियां देख कर लज्जित और शर्मशार होती, इस प्रतियोगिता में जितने भी कुंवारें पुरुष थे भूंखे शेर की तरह दौड़ते जीतने वाले को अपनी इच्छा अनुसार किसी भी स्त्री से सम्भोग करने को मिलता।
उस महल में रहने वाले जितने भी पुरुष थे वे सभी कुंठित हो चुके थे, पुरुष, पुरुष से ही भिड़े रहते, वे सभी सैमलैंगिक हो चुके थे ।
राजा उस महल में एक ऊँचा झरोखा बनवा रखा था, जहाँ से वो सभी पुरुषों के लुल्ली को देख कर बहुत आनंदित होता।
एक दिन राजा की अनुपस्थिति में महारानी गुप्त रूप से महल में प्रवेश करती है। सभी पुरुष, रानी को देख कर भौचक्के रह गए, डर और शर्म से अपनी नजरें झुका लेते हैं, अपनी-अपनी लुल्ली छिपाने लगते हैं। वहीँ विशालाक्ष नाम का एक हट्टा कट्टा नौजवान था, रानी की सुंदरता को देखते ही उसकी नजरें ठहर गई, घूरने लगा रानी की नजर जैसे ही उसकी लुल्ली पर पड़ी, विशालाक्ष की लुल्ली घोड़े की तरह तनतना कर कुचाले भरने लगा। रानी उसकी लुल्ली को देख कर मोहित हो गई, वासना के अंधकूप में धसने लगी जैसे ही उनकी तुन्द्रा टूटी, मुस्कुराते हुए जाने लगती है।
रानी जिस गुप्त रास्ते से गई, रात होने पर विशालाक्ष सबकी नजरें बचा कर चुप चाप उसी गुप्त रस्ते से होकर अँधेरे में जाने लगा।
विशालाक्ष, रानी के कक्ष तक पहुँच गया, वहां पहुँच कर क्या देखता है, रानी अपनी दाशी के साथ हमबिस्तर थी तरह -तरह की कामुक आवाज निकाल रही थी, सिसकियाँ भरते हुए अपनी दाशी से कह रही थी "बिना पुरुष सुख के संसार के सारे सुख और भोग व्यर्थ हैं।"
दाशी कहती है "महारानी! आप जो चाहें वो हासिल कर सकती हैं, आप आदेश तो करें।"
रानी " महाराज के विरुद्ध जा कर भला कौन पुरुष मुझे जवानी का रस पिला सकता है। "
विशालाक्ष उन दोनों की बातें सुनकर खूब आनंदित हो रहा था लेकिन महारानी के चारो तरफ कड़ा पहरा देख कर उसकी हिम्मत ही नहीं हो रही थी अंदर जाने की। क्या पता वो कक्ष में घुसे और महारानी मुकर जाए, उन्होंने ऐसे ही मजाक में मुस्कुराया हो।
विशालाक्ष अपना मनमसोस कर लौट आता है।
उस दिन के बाद से उसकी रोज की आदत बन गई, रोज रात होने पर महारानी के कक्ष में पहुँचता और उनकी बातें सुनता।
एक दिन जब विशालाक्ष जब गुप्त रास्ते से होकर जा रहा था, तभी उसके सर पे जैसे किसी ने पीछे से हमला किया, उसकी आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा, वहीँ बेहोश होकर गिर गया।
अगले दिन जैसे ही उससे होश आया अपने महल की ओर भागा, महल पहुँच कर देखता है, उसके एक साथी को राजा उल्टा लटका कर कोड़े से पिटवा रहा था।
वो युवक चीख -चीख कर रहम की दुहाई दे रहा था "महाराज त्राहि -त्राहि ! जीवन दान दें, महारानी तो क्या किसी भी स्त्री की तरफ नजर उठाकर भी नहीं देखूंगा।"
महाराज, गर्जना करते हुए "नाफरमानी की सजा सिर्फ मौत है, कोई माफ़ी नहीं।"
अपने सैनिकों को उसकी लुल्ली काटने का आदेश दे देता है। राजा ने बड़ी बेरहमी से उसकी लुल्ली कटवा दी।
वो युवा वहीँ तड़पते हुए लोट-पॉट होने लगा, राजा जैसे ही अपने सैनिकों के साथ प्रस्थान किया, विशालाक्ष हिम्मत कर उसकी ओर बढ़ा, वो युवा रोते बिलखते हुए "मुझसे गलती हो गई"
पूरी बात बताता है, कैसे वो उसका पीछा किया, उसके सर पे पत्थर से हमला करता है, वहां से रानी के कक्ष में जा पहुंचा, रानी को दाशी के साथ निर्वस्त्र लिपटा देख अपने आप से बाहर हो गया, जैसे ही रानी की तरफ बढ़ा, रानी चीखने चिल्लाने लगी, उसके सैनिकों ने उसे बंदी बना लिया।
इस घटना के बाद विशालाक्ष को बहुत छोभ और दुःख हुआ, राजा को ख़त्म करने का विचार करने लगा ,लेकिन वो अकेला कुछ नहीं कर सकता था।
इसी तरह समय गुजरता रहा, महाराज का जन्मदिन आया, महाराज के सैनिक एक-एक कर सभी युवकों को एक विशेष कक्ष में अंदर ले जा रहे थे। जैसे ही विशालाक्ष की बारी आई उस कक्ष में प्रवेश किया ,जहाँ पर महाराज के कुछ वैद्य, उसके लिंग पर कुछ विशेष प्रकार की औषधियों का लेपन कर एक गुप्त रास्ते से अंदर भेज रहे थे।
विशालाक्ष जैसे ही एक तहखाने में पहुंचा वहां का नजारा देख कर उसकी रूह काँप उठी, वो क्या देखता है, सामने एक विशाल योनि वाली औरत की प्रतिमूर्ति है, उसके आगे एक भयानक शरीर वाला काळा रंग के कपड़ों में एक आदमी हाँथ में फरशा लेकर खड़ा है।
वहीँ पास में एक अग्नि कुंड प्रज्ज्वलित हो रही थी, उसके पास एक तांत्रिक जोर जोर से मंत्र पढ़ते हुए रक्त की धार प्रवाहित कर रहा था, ऊँची ऊँची लपटे उठ रही थी, वहीँ पास ही में महाराज निर्वस्त्र अपनी ऊँगली भर की लुल्ली लटकाये बैठे हैं।
ये सब देख कर विशालाक्ष चीखने लगा अपने साथियों से "भागो, भागो, नहीं सब मारे जाओगे।"
कहते हुए इधर -उधर भागने लगा।
महाराज, क्रोधित होकर अपने सैनिकों को आदेश देते है "कोई बच कर जाने न पाए, सबसे पहले इसी युवक की लुल्ली काटी जाएगी।"
विशालाक्ष अँधेरे में गुप्त रस्ते से भाग ही रहा था कि तभी उसका हाँथ पकड़ कर कोई अपनी ओर खींचता है जैसे वो चीखने को होता है, कोमल हांथों के स्पर्श उसे महसूस होता है, कोई उसका मुँह बंद करते हुए "जिन्दा रहना है तो जैसा मैं कहती हूँ, वैसा ही करो, नहीं सब के सब मारे जाओगे।"
विशालाक्ष "आप मुझे क्यों बचाना चाहती हैं?"
वो स्त्री "मुझे तुम्हारी लुल्ली पसंद है।"
विशालाक्ष जैसे ही फिर कुछ बोलने को होता, वो स्त्री उसका मुँह बंद करते हुए "ज्यादा समय नहीं है, बली कभी भी सुरु हो सकती है, तुम सबकी लुल्ली की बली होने पर राजा की लुल्ली घोड़े की तरह हो जाएगी जो कभी नहीं थकेगी, राज्य की कोई भी सुन्दर स्त्री उसके प्रकोप से बच नहीं पायेगी, वो सभी को चीर के रख देगा।"
विशालाक्ष "जैसा कहोगी, वैसा ही करूँगा।"
वो स्त्री गुप्त रूप से उसके कानों पे मंत्रणा करती है।
उसके हांथों में एक कटार देती है, विशालाक्ष वो कटार लेकर चुप चाप उसी गुप्त तहखाने में जाकर छिप जाता है।
उधर महाराज से सभी युवाओं को फिर से बंदी बना लिया था, वे सभी अपनी लेपित लुल्ली पकडे, कांपते हुए खड़े थे।
तभी उस तहखाने में उस विशाल योनि की प्रतिमूर्ति के सामने एक झरोखा था वहां से एक मध्यम प्रकश स्फुटित होता है, भविष्यवाणी होती है "स्वर्णकुश ! तुम्हारी साधना सफल हुई, तुम्हें इच्छित वर देना चाहती हूँ।"
स्वर्णकुश, प्रसन्न हो गया उस योनि की प्रतिमूर्ति के सामने अपना सर झुकाते हुए "देवी ! शीघ्र करें, मेरे अंदर के पुरुषार्थ को ऐसी शक्ति प्रदान करें की वो कभी ढीला न पड़े, संसार भर की स्त्रियों का भोग करने की समर्थ शक्ति प्रदान करें।"
उस झरोखे से फिर भविष्यवाणी होती है "एवमस्तु ! ऐसा ही होगा।"
यहाँ तुम्हारे अतिरिक्त और कोई नहीं होना चाहिए। "महाराज ने वहां मौजूद सभी को बाहर निकाल दिया।
फिर भविष्य वाणी होती है "अब अपनी ऑंखें बंद करो।"
महाराज ने जैसे ही अपनी ऑंखें बंद की विशालाक्ष ने अपनी कटार से महाराज की लुल्ली पे झपट पड़ा ,बिना देरी के काट के हवन कुंड में स्वः कर दी।
महाराज चीखने चिल्लाने लगे “पकड़ो इससे भाग कर जाने न पाए।“
विशालाक्ष अपने साथियों के साथ मिल कर सभी सैनिकों को मार गिराया।
सभी महल से भागने लगे। उधर महाराज भी घिसटते हुए अपनी लहुलुहान लुल्ली पकड़े महल के चबूतरे पर चढ़ गए अपने सैनकों को सम्बोधित करते हुए "इन सभी को मार डालो।"
तभी जिस झरोखे से भविष्यवाणी हो रही थी, रानी त्रिशाला निकलते हुए महाराज स्वर्णकुश की ओर भागी, उन्हें जोर से एक लात मरते हुए नीचे धकेल देती है, सैनिकों को चेतावनी देते हुए "ख़बरदार जो इन युवाओं को किसी ने हाथ लगाया।"
महाराज की ओर देख कर थूकते हुए "ले जाओ इसे कारगर में मरने के लिए छोड़ आओ।"
इस प्रकार स्वर्णकुश के आतंक से सभी प्रजा मुक्त हो गई और रानी त्रिशाला, विशालाक्ष के साथ विवाह कर स्त्री सुख का भोग करने लगी।