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आप के इर्ध-गिर्ध अभी, नज़र घुमाइए, क्या कोई सुन्दर महिला दिख रही? अच्छा कभी मिले तो होंगे ही एक ऐसी महिला से जिसे 'सुन्दर' कहे बिन मन न माना हो? अरे राह चलते तो किसी को देख के कुछ-कुछ होने लगा होगा कभी दिल में? आखिर कितना होता है ये कुछ-कुछ, कितनी देर तक होता है? इस कुछ-कुछ की अधिकतम सीमा क्या है? कब लगा ऐसा कि "हाॅं , इससे ज़्यादा ये कुछ-कुछ हुआ तो सह पाना मुश्किल है"? और जब हुआ था ये तो किसे देखकर हुआ था? वह महिला या मर्द एक इंसान ही है, क्या यह सुनिश्चित करना पड़ा? सुन्दरता के इस स्तर से सामना होने पर जो भी महसूस हुआ, क्या यह तब भी महसूस होता जब इससे ज़रा सी कम सुन्दर महिला भी दिखती, या 'कुछ-कुछ' थोड़ा कम होता ऐसे में ?

कोई तो पैमाना होगा सुन्दरता को नापने का? मिस यूनिवर्स (विश्व-सुन्दरी), मिस वर्ल्ड (जगत-सुन्दरी) और अन्य ऐसी प्रतियोगिताएं हर साल सबसे ज़्यादा सुन्दर सुन्दरियाॅं प्रस्तुत करने का दावा करते हैं। तो फिर क्या हम मान लें कि वे महिलाएं ही सबसे ज़्यादा सुंदर हैं? इनमें सिर्फ उनके चेहरे या बदन की ही सुंदरता नहीं प्रस्तुत करते, बल्कि उनकी सोच की भी सुंदरता को दर्शाया जाता है। उनसे पूछा जाता है विश्व-जगत की समस्याओं के बारे में और उन्हें बिन ज़्यादा वक्त लिए जवाब देना होता है। ऐसा वह ही कर पाएगा जिसकी सोच अच्छी हो। इस ही तरह ये आयोजन पूर्ण रूप से सबसे अव्वल दर्जे की सुंदरता ढूंढ के हमारे समक्ष रख देते हैं।

पर मेरा सवाल अभी भी कायम है, कि क्या सच में ये सबसे ज़्यादा सुंदर महिलाएं हैं? अगर वाकई ऐसा है तो इन्हें कभी अपनी नाक बदलवानी क्यों पड़ती है? कई बार तो सर्जरियां इतनी सारी की जाती हैं कि असली चेहरा ही बदल जाता है प्रतियोगिता के नज़दीक आने तक। क्या इन महिलाओं को विश्वास होता है कि उनकी असली सुन्दरता पर्याप्त नहीं, इस ही लिए नकली पन का सहारा ले लेती हैं? अगर ऐसा कहना गलत है तो क्या तर्क सही है इसके लिए? कितने ही बार हम सब ने देखा है कि पहचान पाने के बाद खुद ही इन राज़ से पर्दा हटाते हैं लोग। वो हम मध्य वर्ग के लोगों को बहुत छोटा महसूस कराते हैं जब वे कहते हैं कि उन्होंने खुद को इतना बदलने के लिए चार-पॉंच-दस-बारह लाख रुपये लगा दिए। सुनने में ऐसा लगता है जैसे कि सुंदर लोगों का जन्म भी गरीब घरों को नसीब नहीं।

चलिए एक बार उनकी जगह पर खड़े होकर देखें। वो शायद यह जवाब दें कि "प्रतियोगिताओं में किसी भी तरह की कमी की गुंजाइश नहीं होती। जो सौन्दर्य मानक तय किये गए हैं उनपर खरा उतरना ही पड़ेगा।"। पर अभी भी बात वही अटकी कि जो भी हो, है तो सब नकली ही, फिर सबसे सुंदर आप कैसे? किसी ने कहा, "अगर यह सब नकली है तो हम मेक-अप क्यों करते हैं? हुआ तो वो भी नकली ही!" हाॅं, हमने वाकई ऐसे कई जन देखें तो हैं ही न, जो मेक-अप उतरने पे कोई और ही इंसान प्रतीत होते हैं। तो ज़रूरत से ज़्यादा मेक-अप भी बिल्कुल नकली की श्रेणी में ही रखा जाएगा। कभी-कभी, कुछ परिस्थितियों में, मैं मानता हूॅं, कि मेक-अप की आवश्यकता होती है। आप कई दिनों से सो न पाए, या आपकी वित्तीय स्थिति इतनी खराब है कि खान-पान आपका अच्छा न हो रहा हो। ऐसा भी हो सकता है कि जब दुनिया के समक्ष जाना हो, उस वक्त कोई चोट या मुहासा आपके चेहरे पर उग आया हो। ऐसी स्थितियों में आप इन चीजों को छुपाने के लिए मेक-अप बेशक करेंगे ही क्योंकि ये परेशानियाॅं मात्र हैं। परेशानियाॅं हमारी सुन्दरता का हिस्सा नहीं हातीं। ये कील-मुंहासे या आंखों के नीचे काले घेरे, हमारी प्राकृतिक सुंदरता का हिस्सा नहीं होते, बल्कि ये भी असलियत को कहीं न कहीं छुपाते ही हैं। 

एक साक्षात्कार में किसी अभिनेत्री ने यह कह कर मनचाहे प्लास्टिक सर्जरियों को उचित बताया कि दाल-चावल भी तो प्राकृतिक रूप में जैसा आता है हम वैसा ही नहीं खाते, पका के खाते हैं। खाना भी चाहिए पका के, क्योंकि वहाॅं यह विकल्प नहीं कि हम कच्चा भी खा सकते हैं। वह पसंद पर आधारित नहीं है बल्कि उसे पका कर खाना ही उसकी असलियत की इज़्ज़त करना है। चाहे गरीब हो या अमीर, उसे पका कर ही खाएगा, भले ही पकाने की विधियाॅं अलग-अलग हों। मैं बेशक मानता हूॅं कि लोगों को हक है आज़ादी से अपने लिए सही-गलत चुनने का, वो खुद की सर्जरियाॅं कराएं। पर नकली को 'नकली' कहना भी जानें। ज़बरदस्ती ऐसे उदाहरणों के औचित्य साबित करने की कोशिश न करें। अपनी सुन्दरता को बढ़ा पाने की सारी हदें पार भी कर दें, जो चाहें वो करें पर ऐसी प्रतियोगिताओं में न जाएं जो सुन्दरता के बारे में है। प्रतियोगिताएं असली हुनर बाज़ों के बीच ही होती है। पर यहाॅं भी उनकी चुनने की आज़ादी का हम सम्मान क्यों न करें?

उन्हें प्रतियोगिताओं में भाग लेना चाहिए अगर उन्हें लगता है कि उन्होंने अपनी सुन्दरता को संवार के रखने के लिए कड़ी मेहनत की है। लाखों रुपये लगाए या न लगाए, पर हक तो है ही उनका। ऐसे में ज़िम्मेदारी फिर मुकाबला आयोजित करने वालों पर भी आती है। क्या उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि जिन लोगों को उन्होंने हिस्सा लेने का मौका दिया, वो सारे लोग उन प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने के काबिल ही नहीं हैं। बेशक काबिल नहीं हैं वो क्योंकि उन्होंने कई योग्य लोगों का हक छीना है। गरीब तथा निम्न मध्य वर्ग के घरों में भी सुन्दर लड़की-लड़के जन्म लेते हैं। वे खुद पर इतना खर्च करने की हैसियत नहीं रखते पर सपने बराबर उनके भी होते हैं। वो अलग बात है कि ऐसी व्यवस्था कि उन्हें वहाॅं पहुॅंचने का मौका ही नहीं मिलेगा की वजह से अपने सपने बहुत जल्दी ही छोड़ के रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में वे व्यस्त हो जाते हैं। आखिर किसी का हक मारने वाला इंसान मन से भी सुन्दर कैसे हो सकता है? तो जो वाकई में सुंदर हैं, वो सुंदरता की प्रतियोगिताओं में हिस्सा ही नहीं ले पा रहे। कैसे लेंगे हिस्सा जब उनके पास फाॅर्म भरने तक की भी राशि नहीं है? 

हुनर को अपने संवारना व और निखारना निश्चित ही हमारी ज़िम्मेदारी है। आखिर यही हुनर तो आगे जा कर हमारी पहचान बनेगा। सोच रहे अगर कि सुंदरता कैसे हुनर हो गया तो मैं बता दूॅं कि जिस प्रकार अच्छा सुरीला गला एक गायक का हुनर है, जैसे अभिनय कूट-कूटकर अभिनेता में भरा है, या किसी विषय पे शोध कर पाना एक वैज्ञानिक की कला है, ठीक उस ही तरह सुंदर दिखना भी किसी का हुनर है। गायक अपने सुर की सुंदरता के लिए जाना जाता है, तो सुंदर दिखने वाला कोई अपने तन की सुंदरता के लिए जाना जाए तो क्या बुरा है! वह अपने को निखार पाने की प्रक्रिया में अपनी चाल-ढाल-अदाएं सब पे भरपूर काम करता है भले ही उसे विश्वास हो कि इस हुनर को ले कर वह किसी प्रतियोगिता में नहीं जाने वाला। आखिर कला यही तो है। हमें अपनी कलाओं में रहने का मौका मिलता है तो हम सबसे ज़्यादा संतुष्ट रहते हैं। जब किसी को उनकी अपनी कला दिखाने का मौका मिलता है, और वही कला ही उनके कमाई का जरिया बनती है तो उनमें आत्मविश्वास की एक अलग ही ऊॅंचाई देखने को मिलती है। कोई भी हुनरबाज़ किसी प्रतियोगिता की जीत का मोहताज नहीं होता, बस उसे अपने हुनर से खेलना ही खुश करता है।

आप में से कोई यह तर्क देना चाहेगा कि जब सुंदरता को संवारना या निखारना गलत नहीं तो जो भी महिलाएं बोटाॅक्स करा रहीं, फिलर्स का इस्तेमाल कर रहीं या और भी कई तरह की सर्जरी व तकनीकों का सहारा ले रहीं, वो सब भी गलत नहीं हैं। तो इसपे मैं बस यही कहना चाहूंगा कि इस तरह की प्रथा से जो भी सौन्दर्य मानक (beauty standards) तय किये गए हैं इनसे हम वाकई में प्राकृतिक रूप से सुंदर स्त्रियों का मनोबल गिराते हैं क्योंकि उन्होंने ही सही मायने में अपना ध्यान रखा है। प्राकृतिक रूप से खुद को सुंदर बनाए रखने के लिए उन्होंने जीवन भर अपने खाने-पीने पर नियंत्रण रखा। वो इतने समर्पित रहे कि किसी प्रतियोगिता की जीत का नहीं सोचा क्योंकि उन तक तो वो शायद पहुॅंच ही न पाते, फिर भी खुद की सुंदरता में दिलचस्पी कायम रही उनकी। जीवन भर कुछ भी अस्वस्थ सा खाओ पिओ, अपने मन पर नियंत्रण न रख पाओ, जब मन चाहे सो-जगो, कभी आधा सो कभी ज़्यादा, चाहे किसी के भी संग अच्छा व्यवहार तक न रखो, पर प्रतियोगिता से एक-दो साल पहले अचानक सब करने लगो क्योंकि तुम्हें उस जीत से प्यार है, अपनी कला से नहीं। जो भी मोटापा चढ़ाया था अपनी अस्वस्थ जीवन शैली से उन सब को जिम जा कर जलाने लगो या फिर अत्यधिक पैसे तो हैं ही सर्जरी के लिए। ढेर सारे सवालों के जवाब घोंटने लगो ताकि उचित जवाब दे पाओ। क्या है ये सब? क्या सच में मन की सुंदरता को मापने के लिए पूछे गए सवालों का जवाब तुम अपने मूल व्यक्तित्व के बल पर दोगे या फिर ये कुछ पंद्रह दिनों के लिए तैयार किए गए नमूने से?

कला को हम हर दिन इस लिए संवारते हैं क्योंकि वो हमारा हिस्सा हैं। उनसे ही हमारी पहचान है। कोई शाॅर्टकट नहीं है। जहाॅं शाॅर्टकट है वहाॅं सिर्फ फरेब है। शाॅर्टकट का मतलब कि हम उस कला के लिए बने ही नहीं हैं, हमें उस कला में जीना पसंद ही नहीं वरना हम हमेशा ही उसका ख्याल रखते। ख्याल रखना तो फिर भी थोड़ा त्याग सा सुनाई देता है, सुंदर तन वाले इंसान को वो सारी चीज़ें पसन्द तक नहीं होंगी जो उसकी सुंदरता को कम करती हों। हर इंसान बेशक सुंदर है, पर उनमें से कुछ का ही तन खूबसूरत है।

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