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बेशर्मी ज़ीनत बन बैठी, असमत तार तार हुयी।
बेढ़ंगी दुनियां को देखा, हयां यहां बेजार हुयी।
दफ़न हो चुका अदब यहां, शर्मीली अब नज़र नही।
हवा से बातें करते गेसू, चूनर यहां बेकार हुयी।।
इल्मी सारी कायनात है, जाहिल सारे चले गये।
बन्धन सारे जब से टूटे, तब से शोभा बाजार हुयी।।
न लहर बसंती आती है, न सावान की है कदर कोई
हर दिन नई फ़िजाओं से, गुमसुम यहां बहार हुयी।।
ये मर्जी सब बिन मर्जी की, ये चकाचैंध फरेबी है-
ऐसा ‘‘राज’’ हुआ कायम, अब डोली बिन कहार हुयी।।


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