Image by Gerd Altmann from Pixabay

उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।।

कुछ जिद, कुछ जख्म
हमें जीने नहीं देते
मरने भी नहीं देते
डटकर जीवन की तबाही के मजे लेते है
ज्ञान जन्म से प्राप्त नहीं होता
जागृत इन्द्रियों की सजगता उसे हांसिल करती है
प्रारम्भ में
सही गलत की व्याख्या करीबी सृष्टि से की जाती है
यह उनकी अवस्था पे निर्भर होती है
निम्न, मध्यम या उच्च कक्षा में,वो विभाजित हुई होती है
तुम्हारे सिधे सम्पर्क से जुडी होती है
क्रमशः आगे बढ़ते जीवन में,
ज्ञान के विस्तार की संभावनाएं जुड़ती रहती है
जुझारू प्रयत्न से असीमित चमक जुड़ती जाती है
यह तुम्हारी क्षमता पे निर्भर होता है कि
अपने भीतर आप कितनी चमक उतार सकते हो
चमक के सार कि महिमा गा सकते हो
उनके भीतर दबे राख के अंश पहचानकर
उसे हटा सकते हो
सही गलत में अंतर कर सकते हो
अगर कर सकते हो,तब तुम समर्थ हो
अपनी कश्ती के खेवइया हो,अपना उद्धार कर सकते हो
पतन कि ओर जा रही पगदण्डिया पहचान सकते हो
काफ़ी है, जीवन कि संतुष्टि के लिये
देर सवेर भी, प्राण जगता जरूर है
नुकशान कि भरपाई के बाद, बदलता जरूर है
आगे आकर,हारी हुई बाजी अपने हाथ में लेता जरूर है
अपने आत्मा से, दोस्ती करता जरूर है
खुद में पूर्ण विश्वास जताता जरूर है
एक बार फिर से, जन्म लेता जरूर है
अबकी बार, जीतता जरूर है|

.    .    .

Discus