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इस विषय पर लिखने से पूर्व प्रातः स्मरणीय श्री गुरुगोविन्द सिंह जी को सादर प्रणाम करता हूं। तदनन्तर उनके द्वारा कहे गये सूत्र की स्वमन्तव्य व्याख्या की अनुमति की कामना करता हूं। आश्चर्य देखिये! अपने ही देश, अपने ही भाइयों से लडने के लिये, अपनी ही सरकार से विद्रोह करने के लिये जिस सिक्ख कौम ने अमृतसर के पावन गुरुद्वारे की पवित्रता का भी विचार नहीं किया था।

 इस तीर्थ स्थल को खालिस्तानी आतंकवादियों की सुरक्षित पनाहगाह बना दिया था और इस पाक तीर्थ को नापाक हथियारों के जखीरे से भर दिया था। ऐसे समाज के पास, निकृष्ट तालिबानियों से चहुंओर घिरे हुये अफगानिस्तान जैसे परदेशी मुल्क में अपनी रक्षार्थ गुरुद्वारों से कुछ न निकल सका। 

कनाडा में बैठे खालिस्तानी जो अपने आप को सिक्ख समाज का रहनुमा मानते हैं और भारत सरकार के खिलाफ विद्रोह के लिये, जिनका खजाना कभी खाली नहीं पड़ता है। उनके खजाने से अफगान में प्रताड़ित सिक्ख समाज के लिये एक पैसा भी नहीं निकला। न हथियार, न खालिस्तान और न ही सिद्धू के जिगरी यार इमरान का और अल्लामा इकबाल का पाकिस्तान। 

उन्हें गुरुग्रन्थ साहब को सर पे लेकर आना पड़ा तो बस हिन्दुस्तान। जी हां। वो ही अभागा देश जिसके टुकड़े करके, वे अपना घर बसाना चाहते थे। वो ममता का मारा आंचल जिसे फाड़ कर द्रौपदी की तरह चीरहरण करने की मंशा रखते थे। सदा अपनों से ही छला जाने वाला अभागा देश ही उनका आश्रय बना।

ये विषय हर्ष का नहीं है, बड़े ही भारी मन से ये सब लिखना पड़ रहा है। ढपोरशंख का इस विषय पर इतना ही मत है कि परदेश की उड़ान भरने वाले हर पंछी को बस इतना ही ध्यान रखना चाहिये कि सुकून की रोटी अपनी मिट्टी में ही मिलती है, अपने पंखों का फायदा उठाकर जितना चाहे, जितनी दूर चाहे उडान भर लो पर परदेश की चका–चौंध में अपने पंखों को ऐसे मत काटो कि अपने घर न लौट सको। हथियार रखो पर उसके साथ शत्रु और मित्र की पहचान भी रखो।

कौन शत्रु है? कौन मित्र है? इसको जानो। मित्र की कमजोरी का लाभ उठा कर शत्रु की ताकत मन बनो क्योंकि शत्रु के लिये तुम साधनमात्र हो जिसका मतलब काम खत्म, आदमी खत्म। शत्रु क कमजोरी जानकर उसे नष्ट कर दो और मित्र की कमजोरी जानकर उसकी रक्षा करो। और अगर ऐसा न कर सको तो उपर लिखा ढपोरशंख का वचन आप के लिये ही है। दशमेश गुरु गोविन्द सिंह का वचन तुम्हारे पुण्यश्लोक पूर्वजों के लिये ही था।

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