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तमिलनाडु सरकार के फैसले के दो अंश हैं। पहला सरकार के अधीन मन्दिरों में गैर ब्राह्मण पुजारी को पौरोहित्य का कोर्स कराकर नियुक्ति करना। दूसरा मन्दिरों में संस्कृत के स्थान पर तमिल में मन्त्रोच्चार करना। हालांकि इसमें नया कुछ नहीं है क्योंकि पूर्ववर्ती डी.एम.के सरकार का भी यही रुख रहा है। वर्तमान सरकार के फैसले ने बस फिर से इस मुद्दे को संजीवनी प्रदान की है।

लेकिन अगर पुरोहित समाज की स्थिति को देखें, मन्दिरों की स्थिति को देखें और संस्कृत भाषा की स्थिति को देखें तो स्पष्ट समझ आता है कि तमिलनाडु सरकार जो संवैधानिक रूप से कर रही है वो अन्य राज्यों में स्वाभाविक रूप से हो चुका है। इसे निम्न तथ्यों के द्वारा समझा जा सकता हैं:

1. श्रद्धा और भक्ति के केन्द्र रहे मन्दिरों की संख्या बहुत कम रह गयी हैं। अधिकांश मन्दिर केवल म्यूजियम की भांति पर्यटन के केन्द्र बन गये है। सरकारें भी मन्दिरों को आय के स्रोत तथा पर्यटन स्थल के रूप में ही देखती है।

2. अन्य राज्यों में भी अधिकांश पुरोहित वर्ग कुछ एक संस्कृत मन्त्रों को छोडकर स्थानीय भाषा का ही प्रयोग करते हैं और जो स्थानीय भाषा का प्रयोग नहीं करते हैं। वे बिना मन्त्रों के प्रक्रिया करके शान्त हो जाते हैं। इसका प्रत्यक्ष हमने जगन्नाथ पुरी और द्वारका जैसे धामों तक में किया है।

3. रही बात ब्राह्मण पुरोहित समाज की तो पुरोहित समाज को कैसा होना चाहिये तो ॠग्वेद के प्रथम मन्त्र को देखें, जो कहता है कि हे अग्नि तू पुरोहित है, अग्नि को पुरोहित कहना ये संकेत करता है कि पुरोहित को आग्नेय ऊर्जा सम्पन्न होना चाहिये। समाज का नेतृत्व करने वाला होना चाहिये। जो कि कहीं भी वर्तमान पुरोहित समाज में देखने को मिलता नहीं है। वो स्वयं भी पौरोहित्य कर्म को अपनी आजीविका का साधन मानकर मजबूरी में अपनी रक्षा येन केन प्रकारेण कर रहें हैं।

ऐसे में तमिलनाडु सरकार के फैसले बुरे तो लग रहें है लेकिन इसमें वर्तमान समाज की कही न कही स्वीकृति भी है। मनु के शास्त्र के अनुसार संन्ध्योपासन, वेद, शिखा एवं सूत्र से विहीन होते समाज की और क्या गति हो सकती है। कम से कम सरकार पुरोहितों की नियुक्ति से पूर्व पौरोहित्य प्रशिक्षण की योजना कर रही है, ये ही क्या कम है। अगर ईमानदारी से प्रशिक्षण दिया जाये तो ये कदम स्वागत योग्य ही है।

रही बात ब्राह्मण पुरोहित समाज की तो पौरोहित्य कर्म पर इस एकाधिकार ने उसका वैसे ही बहुत नुकसान किया है इसलिये हम कामना करते हैं कि पुरोहित समाज अपनी आग्नेय ऊर्जा का आवाहन करें और वर्तमान की चुनौतियों का उसी की भाषा में उत्तर दे।

अन्त में हमारी यही प्रार्थना हैं कि कल को तमिल का स्थान अंग्रेजी और गैर ब्राह्मण का स्थान गैर हिन्दू पुजारी न ले ले और ले भी ले तो हमें आश्चर्य न होगा। क्योंकि जिन लोगों के लिये हिन्दी और संस्कृत विदेशी हो और अंग्रेजी स्वदेशी। उत्तर भारतीय विदशी हो और अंग्रेज स्वदेशी। भर्तहरि के शब्दों में ऐसे लोगों को क्या कहा जाये हम नहीं जानते!

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