Lord Shri Krishna, Photo Credit: Social Media

दुराचारी शासकों के कुशासन से आक्रान्त भारत भूमि के उद्धार के लिये अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने वाले श्रीकृष्ण संघर्षों में पला हुआा एक अप्रतिम वीर, महान कूटनीतिज्ञ और मनुष्य व देवता के बीच की रेखा को मिटाकर अमर होने वाले सरल व सहज व्यक्तित्व के प्रतिमूर्ति हैं।

सर्वप्रथम पूर्णकलावतार भगवान् श्री कृष्ण के जन्मोत्सव की अशेष शुभकामनाओं को विज्ञापित करते हुये इस लेख के सम्पूर्ति की कामना करते हैं। कारण कि जिन भगवान के चरित्र का वर्णन करने में सर्वज्ञ ॠषि–मुनि भी असमर्थ रहे हों उनके वर्णन का सामर्थ्य हम अल्पज्ञों में कहां? फिर भी यथामति उनके विषय में अपना अभिप्राय प्रकट करने की इच्छा को रोकने में असमर्थ होने के कारण यथाशक्य अपना कथ्य कहते है:–

किसी के लिये भगवान कृष्ण रसिया है, किसी के लिये छलिया, किसी के लिये कुशल नीतिज्ञ, किसी के लिये अजेय योद्धा तो किसी के लिये भगवान विष्णु के 8वें अवतार। भगवान की लीला, वो जिसको जैसा चाहे वैसा रुप दिखाते हैं। और ढपोरशंख को दिखाते हैं वो संघर्ष की गाथा जिसका कोई अन्त न था। 

लोगों के जीवन में जन्म के अनन्तर शत्रु बनते हैं, पर उनके जन्म के पूर्व ही शत्रु बन गये और शत्रु भी कौन स्वयं के मामाश्री। जन्मते ही माता–पिता से दूरी और परायों को अपना समझने की मजबूरी, माखन चुराना, मटकी फोड़ना सब याद रखते हैं किन्तु पूतना का प्राणघातक प्रयास, शकटासुर का अकरुण प्रहार, कालिया दाह उसका क्या?

हमने सबकुछ लीला कह कर उत्सव मना लिया, भगवान बनाकर उनके संघर्षों को सामन्य बना दिया। यवनों के आक्रमण तथा दुराचारी शासकों के कुशासन से आक्रान्त भारत भूमि के उद्धार के लिये अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने वाले श्रीकृष्ण केवल भगवान थे ये मानने को दिल राजी नहीं होता। 


बाल्यकाल से ही संघर्षों में पला हुआा एक अप्रतिम वीर, राष्ट्र के लिये सबकुछ न्यौछावर कर देने वाला एक क्रान्तिकारी योद्धा, स्वयं प्रेम से वञ्चित किन्तु प्रेम का प्रतीक, मनुष्य और देवता के बीच की रेखा को मिटाकर अमर होने वाले व्यक्तित्व के कार्यों को हम केवल भगवान कहकर संकुचित कर दें ये तो न्याय नहीं हैं।

ढपोरशंख ये जानते हैं कि ये कहना भक्तिमार्गियों की दृष्टि में द्रोह है किन्तु अपने नेता को, अपने पथप्रदर्शक को भगवान् बानाकर खुद से दूर कर देना, उससे भी बड़ा आत्मद्रोह है। जब हम किसी को भगवान बना देते हैं, इसका मतलब हम उसे मन्दिर में बिठाकर बस उसकी पूजा करना चाहते हैं। 

पूजा भी कैसी? जिसमें देवता चार दीवारी में बन्द होकर सीमित हो जाये, घण्टा सुने, जो हम दे वो खाये और जो न दे तो न खाये। अधिक क्या कहें सबका मालिक बस हमारे बनाये सांचे में कैद हो जाये। किंतु जन्माष्टमी के पावन अवसर पर अपने आराध्य को बाहर निकालिए, उनके बताए पथ पर चलने का प्रयास कीजिए। 

उनकी दूरदर्शिता के आलोक में अपने समाज एवं राष्ट्र की रक्षा कीजिए। वंशी के साथ साथ सुदर्शन चक्र की भी पूजा कीजिए। हमारे शंखकुल के श्रेष्ठतम् पाञ्चजन्य के नाद से अपनी पाञ्चों ज्ञानेन्द्रियों को जाग्रत कीजिए। कुछ भी कीजिए पर भगवान बनाकर चारदीवारी में कैद मत कीजिए, अपने जीवन में, अपने विचारों में क्रान्ति के इस अद्भुत पुरोधा को स्थान देकर समादृत कीजिए। 

मैं भी अपने पृर्वज तथा भगवान के परमप्रिय श्रेष्ठतम् शंखराज पाञ्चजन्य के नाद से अपनी पाञ्चों ज्ञानेन्द्रियों को जाग्रत करने का नाद करता हुआा उत्सव की तैयारी करता हूं।

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