Marich Vadh, Photo Credit: shriramcharitmanas

रामायण के सन्दर्भ में एक प्रसंग प्रचलित हैं कि जब भगवान श्री राम ने मारीच का वध किया तो क्रोध में आकर मारीच को कुछ अपशब्द भी कह दिये। जिससे आहत होकर मारीच बोला कि हे राम! एक पराजित योद्धा आपके सामने मृत्यु शय्या पर पड़ा है। आपका मुझे अपशब्द कहना उचित नहीं हैं। आपने अपना दायित्व निभाया और मैंने अपना। मैं पराजित हूं ये मेरे कर्म की नियति है पर इससे, मैं अपशब्द के योग्य नहीं हो जाता।

इसका स्पष्टीकरण करते हुये आगे मारीच बोला कि जैसे आपको बचपन से सिखाया गया कि यज्ञ की रक्षा करना और कराना धर्म है। वैसे ही मुझे सिखाया गया कि यज्ञ को नष्ट करना और कराना धर्म है। आपने वो किया जो आपका धर्म कहता था। मैंने वो किया जो मेरा धर्म कहता था। मैं आपके बाणों के योग्य हो सकता हूं पर अपशब्दों के योग्य नहीं।

जीवन का आदर्श हैं कि अन्याय के लिये लड़ जाना, अन्याय करने वाले का वध भी करना हो तो अनुचित नहीं है। लेकिन साथ ही ये भी ध्यान रखना आवश्यक हैं कि कहीं वो अन्यायी शरीर त्याग करके हमारे हृदय में तो प्रवेश नहीं कर रहा है। यदि अन्यायी हृदय में प्रविष्ट हो गया तो वो मरकर भी सफल हो गया और आप जीतकर भी हार गए। आपके गुण उसको प्रभावित नहीं कर पाया लेकिन उसके दोष आपको प्रभावित कर गए।

क्योंकि शत्रु से बदला युद्ध के मैदान में लिया जाना चाहिए शमशान में नहीं। जीवन की मर्यादा टूट सकती है क्योंकि जीवन सुधार का अवसर देता और सुधारने पर पुरस्कार भी। पर, मृत्यु तो सुधार का कोई अवसर नहीं देती वो तो नियति है जो दण्ड देती है। उसका उपहास अक्षम्य है। उसकी मर्यादा कभी नहीं टूटनी चाहिए। कभी नहीं।

ढपोरशंख नाद –

तुम खूब लड़े मेरे दुश्मन, हम तुमको भूल न पायेंगे।

जब याद तुम्हारी आयेगी, जी भर तुमको गरियायेंगे।।

रणभूमि में लड़ना, मिटना ये जीवन की अभिलाषा है।

समर शेष से वैर न हो ये मृत्यु की परिभाषा है।।

सौ बार जनम लेकर आना, हर बार तुम्हें मरना होगा।

पर मरे व्यक्ति पर मर जाना, हमसे ये कभी नहीं होगा।।

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