‘कॉर्नेलिया सोराबजी’ से पहले कोई भारतीय महिला पढ़ने के लिए इंग्लैंड नहीं गई थी। ‘कॉर्नेलिया’ भारत की पहली महिला वकील, पहली बैरिस्टर होने के साथ ही बेहतरीन लेखिका, उपन्यासकार और समाज सुधारक भी थीं। कॉर्नेलिया ने कई रिकॉर्ड कायम करके बढ़िया जीवन जिया और ईमानदारी से अपने दिल का अनुसरण किया। भारत में वकील का गाउन धारण करने वाली पहली महिला बैरिस्टर के सम्मान में २०१२ में, यूनाइटेड किंगडम के प्रमुख वकीलों द्वारा लिंकन इन, लंदन में उच्च न्यायालय परिसर में उनकी कांस्य प्रतिमा का अनावरण किया गया।
Cornelia Sorabji: Woman of many accomplishments
Source : The Hindu
कॉर्नेलिया सोराबजी का जन्म १५ नवंबर, १८६६ को नासिक, महाराष्ट्र में ईसाई-पारसी परिवार में हुआ था। कॉर्नेलिया छह बहनें और एक भाई थे मगर शिक्षा और सामाजिक कार्य करने के लिए माता-पिता ने उनको और बाकी भाई-बहनों को प्रोत्साहित किया। कॉर्नेलिया के करियर का पथ माता-पिता से काफी प्रभावित था। उन्होंने अपना बचपन बेलगाम और पुणे में बिताया। माता-पिता द्वारा घर पर और मिशन स्कूलों में पढ़ने के बाद, कॉर्नेलिया डेक्कन कॉलेज, पूना में भर्ती होने वाली पहली महिला थीं, जहां उन्होंने प्रथम श्रेणी में स्नातक किया। माता-पिता ने सभी बेटियों को बॉम्बे विश्वविद्यालय में दाखिला लेने के लिए प्रोत्साहित किया, लेकिन हर बार उनके आवेदन खारिज कर दिए गए क्योंकि उन दिनों महिला आवेदकों को प्रवेश नहीं दिया जाता था, लेकिन कॉर्नेलिया ने आखिरकार प्रवेश की बाधा को तोड़ दिया। उन्होंने डेक्कन कॉलेज में साहित्य की पढ़ाई करके, पांच साल का कोर्स एक साल में पूरा किया। वह कक्षा में अव्वल दर्जे की छात्रा थी लेकिन चूंकि महिला थीं, इसलिए उन्हें ऑक्सफोर्ड छात्रवृत्ति से वंचित कर दिया गया, जो आमतौर पर वर्ष के शीर्ष छात्र के लिए दी जाती थी। तब पूना और मुंबई की प्रमुख अंग्रेज़ महिलाओं ने उन्हें ऑक्सफोर्ड भेजने के लिए धन जुटाया। फिर कॉर्नेलिया १८८९ में ऑक्सफोर्ड गयीं और वहां सोमरविले कॉलेज में दाखिला लिया।
ऑक्सफोर्ड में कॉर्नेलिया ने कानून को विषय के रूप में चुना और १८९२ में वह बैचलर ऑफ सिविल लॉ परीक्षा उत्तीर्ण करने वाली पहली भारतीय महिला बनीं, लेकिन ऑक्सफोर्ड ने उन्हें डिग्री नहीं दी क्योंकि तब तक किसी भी महिला को वकील के रूप में पंजीकृत करने की अनुमति नहीं थी। ऑक्सफोर्ड में १८९० में महाराजा धुलीप सिंह, (पंजाब के अपदस्थ राजा और महाराजा रंजीत सिंह के पुत्र) भांबा और कैथरीन की बेटियों के आने तक किसी भी ब्रिटिश विश्वविद्यालय में अध्ययन करने वाली कॉर्नेलिया पहली महिला छात्रा, पहली भारतीय नागरिक थीं। ऑक्सफोर्ड में वह मैक्समूलर और मोनियर विलियम्स जैसे महान भारतविदों और संस्कृत विद्वानों के करीब थीं। फ्लोरेंस नाइटिंगेल के साथ भी उनकी अच्छी मित्रता थी।
कॉर्नेलिया ने ऑक्सफोर्ड से लौटने के बाद, भारत में एक कानूनी पद की खोज शुरू की। वह ऐसी परदानशीन महिलाओं के लिए सामाजिक कार्य करने में शामिल हो गईं, जिनको बाहरी दुनिया में पुरुषों के साथ संवाद करना या किसी भी तरह का संबंध रखना मना था। बतौर वकील उन्होंने गुजरात की काठियावाड़ रियासत में सबसे पहले महिला मुवक्किलों के लिए मामले तैयार किए। उन्होंने करीब ६०० महिलाओं और अनाथों के लिए कानूनी लड़ाई लड़ने में मदद की, कई बार किसी से कोई शुल्क भी नहीं लिया। उन्होंने १८९७ में बॉम्बे विश्वविद्यालय से एलएलबी पाठ्यक्रम पूरा किया। हालाँकि १९२३ तक महिलाओं के लिए बैरिस्टर बनना संभव नहीं था, फिर भी उन्होंने सॉलिसिटर फर्मों में कानून पढ़ना जारी रखा। कुछ समय के लिए वह अपने छोटे भाई डिक के साथ इलाहाबाद में भाई-बहन कानून के अभ्यास में शामिल हुईं।
१९२० में ऑक्सफोर्ड द्वारा महिलाओं को कानून की डिग्री प्रदान करना शुरू किया गया। फिर ‘लंदन बार’ कानून की डिग्रीधारी महिलाओं को कानूनी मामलों का अभ्यास करने की अनुमति देने के लिए सहमत हो गया। कॉर्नेलिया ने अपनी डिग्री लेने के लिए इंग्लैंड की यात्रा की और उन्हें १९२२ में ‘लंदन बार’ में बुलाया गया। कलकत्ता लौटने पर वो उच्च न्यायालय में बैरिस्टर के रूप में नामांकित हुईं और भारत और ब्रिटेन में कानून का अभ्यास करने वाली पहली महिला बनीं।
कॉर्नेलिया बालविवाह और सतीप्रथा जैसी कुरीतियों के समूचे उन्मूलन की समर्थक थीं। उन्होंने महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता पंडित रमाभाई के साथ काम किया। उन्होंने १९२९ में वकालत की प्रैक्टिस छोड़कर स्वयं को सामाजिक कार्यों के लिए समर्पित कर दिया। प्रारंभ में राष्ट्रवादी विचारधारा वाली कॉर्नेलिया राजनीतिक झुकाव के तहत धीरे-धीरे एंग्लोफाइल बन गईं। अमेरिकी लेखिका कैथरीन मेयो ने अपनी पुस्तक, ‘मदर इंडिया’ में भारत में ब्रिटिश शासन का बचाव किया और कॉर्नेलिया ने कैथरीन का समर्थन किया जिसने विवादों को जन्म दिया। कॉर्नेलिया ने सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू होने पर उसका भी विरोध किया, अपने राजनीतिक विचारों का प्रचार करने के लिए भारत और यू.एस.ए. का दौरा किया, फलस्वरूप वह राष्ट्रवादी नेताओं के बीच अलोकप्रिय और अप्रिय हो गईं।
कॉर्नेलिया का १९३४ में प्रकाशित हुआ अंतिम संस्मरण कई विशिष्ट आख्यानों से बना है जो उनके व्यक्तिगत जीवन, कानूनी अनुभवों और उनके समय में हुए ब्रिटेन और भारत के सबसे महत्वपूर्ण सुधार मुद्दों पर प्रकाश डालता है। संस्करण की संपादक चांदनी लोकुगे ने औपनिवेशिक और उत्तर औपनिवेशिक अध्ययनों के सबसे महत्वपूर्ण विषयों में से एक के संबंध में कॉर्नेलिया के जीवन को संदर्भित करते हुए उत्तेजक परिचयात्मक निबंध के साथ संस्मरण पूरा किया है। इस संस्मरण को एंटोनेट बर्टन के ‘एट द हार्ट ऑफ द एम्पायर: इंडियन्स एंड द कॉलोनियल एनकाउंटर इन लेट-विक्टोरियन ब्रिटेन’ (बर्कले एंड लॉस एंजिल्स: यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया प्रेस, १९९८) के साथ प्रभावी ढंग से पढ़ा जाएगा, जिसमें ग्रेट ब्रिटेन में कॉर्नेलिया के अनुभवों का व्यावहारिक अध्ययन है।
India's First Woman Lawyer, Cornelia Sorabji Opened Law for Women
Source: The Better India
इस संस्मरण में कॉर्नेलिया के जीवन के विविध अनुभव हैं। ‘इंडिया कॉलिंग’ व्यक्तिगत और पेशेवर इतिहास है जो उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी के अंत में भारत और ब्रिटेन में कुलीन समाज को रोशन करता है। कॉर्नेलिया ने परदानशीन और रूढ़िवादी हिंदू संबंधों के साथ-साथ मिशनरी संस्थानों और सभ्यता मिशन से लेकर महिलाओं के आंदोलनों तक के विषयों पर आलोचनाओं की एक श्रृंखला प्रदान की। एंग्लोफाइल कॉर्नेलिया इस बात से अवगत थीं कि अंग्रेजों ने घर और साम्राज्य में समान राजनीतिक मानकों को लागू नहीं किया था। वह ब्रिटिश शासन की आलोचक थीं पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की मित्र नहीं थीं। राजनीतिज्ञों को वे ‘चतुर युवा राजनेताओं का समूह’ मानती थीं जिनका समर्थन करने को लेकर काफी संशय में रहती थीं।
१९१९ तक भारत में महिलाओं को विशेषाधिकार नहीं दिया गया था और एक स्थिति जो उन्हें १९२४ तक नहीं मिली थी - कॉर्नेलिया ने भारत की रियासतों में उपलब्ध अवसरों को जब्त कर लिया, जहाँ कानूनी प्रथा महिला को समायोजित कर सकती थी। कॉर्नेलिया के संस्मरण का सबसे बड़ा हिस्सा पश्चिमी भारत की रूढ़िवादी हिंदू रियासतों में पर्दानशीनों के लिए उनके काम को समर्पित है। कॉर्नेलिया ने बिना उनके एकांत से समझौता किए पर्दानशीनों से मुलाकात की, फिर प्रथा के अनुसार, संपत्ति के जो अधिकार उनके पास थे, उनका सार्वजनिक अदालतों में प्रतिनिधित्व किया। अंग्रेज़ी कानून को अति-रोमांटिक बनाने से इंकार करते हुए, कॉर्नेलिया ने लिखा कि, ‘इंग्लिश विवाहित महिला संपत्ति अधिनियम ‘१८७०’ तक, वास्तव में हिंदू महिलाओं को अंग्रेज़ विवाहित महिलाओं की तुलना में अधिक अधिकार होने के लिए कहा जा सकता है’ (६७)। यह संस्मरण रेचल स्टुरमैन के हालिया शोध प्रबंध ‘पारिवारिक मूल्य: औपनिवेशिक बॉम्बे प्रेसीडेंसी में संपत्ति और परिवार का नवीनीकरण, १८१८-१९३७’ (कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, डेविस, २००१) के निष्कर्ष की पुष्टि करता है, इस धारणा को चुनौती देकर कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने अयोग्य रूप से अधिकारों में सुधार किया। अंतत: यह उल्लेखनीय है कि पर्दानशीनों के लिए किये गए कॉर्नेलिया के अपरंपरागत पेशेवर कार्य ने उन्हें ब्रिटिश और भारतीय समकालीनों की तरह नारीवादी नहीं बनाया। ब्रिटेन में मताधिकार आंदोलन के विरोध में, कॉर्नेलिया ने तर्क दिया कि महिलाओं को सार्वजनिक राजनीतिक बहस में शामिल होने के बजाय सामाजिक सुधार कार्य पूरे करके समाज को प्रभावित करना चाहिए। उस संस्मरण का उपनिवेशवाद और आधुनिक भारत के इतिहास के अलावा नारीवाद के इतिहास में भी दिलचस्प योगदान है। कॉर्नेलिया ने आजीवन महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी और सैकड़ों महिलाओं को न्याय दिलाने में मदद की।
कॉलेज की डिग्री प्राप्त करने के बाद, कानून का अध्ययन करने के लिए इंग्लैंड जाने के लिए धन के प्रबंध के लिए कॉर्नेलिया ने इंग्लैंड में नेशनल इंडियन एसोसिएशन को लिखा। फ्लोरेंस नाइटिंगेल सहित उल्लेखनीय लोगों ने उदारता से योगदान दिया और कॉर्नेलिया की इच्छा पूरी हुई। उन्होंने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में अध्ययन किया और १८९२ में, कॉर्नेलिया ऑक्सफोर्ड में सर्वोच्च कानून परीक्षा ‘बैचलर ऑफ सिविल लॉ’ की परीक्षा देने वाली पहली महिला बनीं। वह भारत लौट आईं और सरकार को सूचित किया कि किसी ऐसी महिला की ज़रूरत है जो महिलाओं और बच्चों को कानूनी सलाह दे सके इसलिए कॉर्नेलिया को कानूनी सलाहकार नियुक्त किया गया। पर्दे में रहने वाली महिलाओं को अपना घर छोड़ने और पराए पुरुषों के साथ संवाद करने की अनुमति नहीं थी। इनमें से कई महिलाओं के पास काफी संपत्ति थी लेकिन कॉर्नेलिया से मिलने से पहले उन सबके पास ऐसा कोई नहीं था जिस पर वे भरोसा कर सकें और जो उन्हें सलाह दे सके कि अपनी संपत्ति का प्रबंधन करके धोखाधड़ी से बचाव कैसे किया जाए। कॉर्नेलिया ने ऐसी पर्दानशीनों की कानूनी मदद करने का बीड़ा उठाया। कॉर्नेलिया ने अगले बीस वर्षों में ऐसी लगभग ६०० महिलाओं की मदद की लेकिन महिलाओं को वकीलों के रूप में मान्यता नहीं मिलने की वजह से उन्हें अदालत में प्रैक्टिस करने की अनुमति नहीं थी।
भारत में १९२३ में वकालत पढ़ने और अदालती मामलों में बहस करने की महिलाओं को अनुमति दी गयी और कॉर्नेलिया का बैरिस्टर बनने का स्वप्न पूरा हुआ। कॉर्नेलिया ने विशेषाधिकार के तहत पथप्रदर्शिका के रूप में पेशेवर अवसर पैदा किए पर उनको भारतीय और ब्रिटिश समाज, दोनों ने आसानी से स्वीकार नहीं किया। पुरुषप्रधान समाज में उन्हें बहुत सारी समस्याओं का सामना करना पड़ा क्योंकि पुरुष वर्ग उन्हें वकील के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था। एक भारतीय महिला द्वारा लड़ी गई कानूनी लड़ाई में कॉर्नेलिया की विरासत आज भी जीवित है।
कॉर्नेलिया सामाजिक सुधार की कई गतिविधियों में शामिल रहीं। वह भारत में राष्ट्रीय महिला परिषद समाज सेवा संघ की बंगाल शाखा से सक्रिय रूप से जुड़ी थीं। उन्होंने सामाजिक कार्यों के लिए बंगाल, बिहार और असम का व्यापक दौरा किया। उनकी सेवाओं के लिए, कॉर्नेलिया को भारत सरकार द्वारा १९०७ में ‘कैसर-ए-हिंद’ स्वर्णपदक से सम्मानित किया गया। कॉर्नेलिया बढ़िया लेखिका भी थीं और उन्होंने कई किताबें, लघुकथाएं और पत्रिकाओं के लिए लेख लिखे। कॉर्नेलिया की प्रकाशित उल्लेखनीय किताबें हैं - ‘इंडिया कॉलिंग: द मेमोरीज़ ऑफ़ कॉर्नेलिया सोराबजी’, ‘इंडिया रिकॉल्ड’, ‘लव एंड लाइफ बिहाइंड द पर्दा’, ‘सन बेबीज़: स्टडीज़ इन द चाइल्ड-लाइफ ऑफ़ इंडिया’, ‘बिटवीन द ट्वाईलाइट्स’, ‘शुबाला : अ चाइल्ड मदर’ आदि। लंदन की प्रतिष्ठित नेशनल पोर्ट्रेट गैलरी में कॉर्नेलिया सोराबजी का आकर्षक चित्र लगा है। कॉर्नेलिया आजीवन अविवाहित रहीं, १९३१ में इंग्लैंड चली गईं और वहीं बस गईं जहां ६ जुलाई, १९५४ को उनकी मृत्यु हो गई।