जब सब कुछ ख़त्म करने को उठता होगा हाथ,
क्या मन आख़िरी बार सवाल करता होगा?
क्या वो बीते लम्हों को टटोलता होगा,
या आगे के अंधेरे में शांति खोजता होगा?
क्या कभी ये ख्याल आता होगा
"अगर एक दिन और सह लूं,
शायद कोई समझ जाए,
शायद कोई रोक ले,
शायद कोई कह दे—मत जा!"
पर फिर मन दूसरा जवाब देता होगा
"तूने जितना झेला, उतना कोई नहीं समझेगा,
तेरी तकलीफ किसी के शब्दों से हल्की नहीं होगी,
तू अकेला आया था, अकेला ही जाएगा।"
क्या शरीर कांपता होगा उस अंतिम क्षण में?
या भीतर कोई आवाज़ आती होगी
"ये सही नहीं है, रुक जा!"
पर क्या वो आवाज़ इतनी हल्की होती होगी
कि दुनिया के शोर में खो जाती होगी?
क्या कोई बीती हंसी चुभती होगी,
या किसी अधूरे सपने की किरचें आँखों में उतरती होंगी?
क्या माँ के हाथों का स्पर्श याद आता होगा,
या वो लम्हा जब किसी ने 'तुम ज़रूरी हो' कहा था?
पर शायद तब तक बहुत देर हो चुकी होती है,
शायद मन और तर्कों से परे जा चुका होता है,
शायद वो बस चाहता है—शांति।
पर क्या ये सच में शांति होती है,
या बस एक अनंत सन्नाटा?