लंकाकांड ( काव्य प्रस्तुति) प्रभु प्रभुता हृदय कर धारण अंगद शीश नवा करे प्रभु चरण वंदन, प्रभु प्रताप स्वयंसिद्ध कारज करे सो बडभागी तन पुलकित, मन हर्षित चले रणबांकुरे बाली नंदन। (रामायण का एक प्रसंग है जिसमें की बालिपुत्र अंगद प्रभु श्री राम के दूत बनकर संधि प्रस्ताव लेकर रावन के पास जाते है तो उनके और लंकापति रावण के बीच होने वाली वार्ता को मैने अपने शब्दों में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है । आशा है आप सभी को पसंद आए। तो जब अंगद लंका जाते है तो वहां का दृश्य कुछ इस प्रकार है...)
भयभीत लगा मुंह पे चुप करता कोई असल बात नही मार्ग न देखे भागन लागे गले से निकले पुकार नही. लंका नगरी कोलाहल मची निशाचर डर से कांपे थर थर थर, लंका दहन करने वाला लौट आया है वानर भयंकर.. (सभी भयभीत है और ऐसा समझ रहे है की वानरस्रेष्ठ हनुमान वापिस आ गए है...) आतंकित सभी यों बिन पूछे मार्ग बताते है दृष्टि भर बस देखे अंगद राक्षस भय से सूखे जाते है धीर वीर बलराशी अंगद द्वार सभा रावण की आए. मृग सम सभीत सभा मध्य सब अंगद सिंह सम शान दिखाए कहे हंसत दशानन दूतन से , त्रसित प्रजा एक मर्कट से. है आदेश उसे कहो आए अंदर मैं भी देखूं है कहा का बन्दर. भुजा वृक्ष ,शीश शैल शिखर, समान बालिसूत अंगद वानर में लागे गज समान तन मानो काजर का पर्वत, नाक कान मर कट के पर्वत गुफा समान। गए सभा मध्य तनिक न झीझके अति आतुर अंगद अति बलवान।।
(अंगद को देखकर सभसद भय से अपने अपने आसन से उठ कर खड़े हो जाते है जिसे देख रावन बहुत क्रोधित हो जाता है और वानर से परिचय पूछता है... तब खुद को रघुपति दूत बताते हुए अंगद कहते है) मित्र थे तेरे तात मेरे चाहु बस कल्याण तुम्हारा, संग सेना स्वयं रघुनाथ खड़े, स्वीनय निवेदन सुनो हमारा। ऋषि पुलस्त का पौत्र हुआ उत्तम कुल का वंशज तू दिग्विजयी,तू विश्व विजेता, ब्रह्मा, शिव का भक्त तू राजमद में चूर हुआ, अज्ञानी अभिमानी तू जगदीश्वर को न पहचान सका हर लाया जगजननी जानकी भवानी तू संग तेरी सब स्त्रियां और माता जानकी अग्र हो , राम शरण जा पश्चाताप कर, कृपासिंधु कोशल्यानंदन शरणागत के रक्षक वो, पाप क्षमा कर देंगे सब अधिक न तू अब व्यग्र हो. मूर्ख कपि जिव्हा को दे विश्राम, गरजा दशानन, असुरत्व से हो अनजान कैसे समझे तु मित्र मुझे, बता अपने तात का नाम। अंगद जनक नाम बाली बताए, सुन दशानन मन में सकुचाय। कहे, कपि कुल्हंता कुलघातक तू पिता हत्यारे को कृपालु बताए. अंगद कुल्हंता ,क्या दशकंध कुलपालक है. कहे अंगद श्रोत हीन, चक्षु हीन सब ज्ञानी दशमुख कुल का विनाशक है. ब्रह्मा शंकर देव मुनि आदि सब ही पूजे चरण रघुनाथ की. ऐसे स्वामी का सेवक हूं दशग्रिव नहीं मैं कुल्हनता मैं तो कुल का गौरव हूं। कहे लंकेश मैं धर्मज्ञाता, हूं मैं नीतिवान अस चुप सुन रहा दूत तेरे वचन शूल समान। ठिठोली कर अब बोले अंगद रावण हास्य करो ना मुझसे मैं जानू तुम्हारे सब धर्म कृत चोर, तू चुराए पर नार धृस्ट दूत रक्षण का क्या धर्म निभाया गाथा वह भी मैं सुन कर आया। अस धर्म व्रत के धारणकर्ता। चुल्लू भर पानी में डूब के मर जा। पर पुरुष पर मोहित भगिनी नाक कान कटवा आई भाग्यवान मैं हुए दर्शन तेरे जगजाहिर तेरी प्रभुताई। आर्तनाद कर दशानन गरजा अरे मुरख तू अति बड़बोला। भुजा दशानन काल राहु सम , सुशोभित जा पर कैलाश संग शिव शंभू स्वयं। कवन योद्धा भिड़े दशकंधर, सेना तेरी सारे तुच्छ बन्दर स्वामी तेरा स्त्री मोह में बलहीन हुआ. दुख से उसका, दुखी बंधु बल उसका भी क्षीण हुआ। तू संग सुग्रीव तट वृक्ष हुआ। जामवंत भी अब वृद्ध हुआ। विक्षुब्ध अनुज विभीषण है, नल नील शिल्पकला में उत्तम है। योद्धा न दिखे कोई सेना सुग्रीव क्या अब शिल्पकारों से लड़े दसग्रीव। हां लंका दहन करने वाला, मरकट माना बलशाली है। बाकी तो फिर वानर सेना मात्र उछल कूद मचाने वाली है। बस इतना सुन अंगद बोले रावण मुझको सत्य बताना, लंकेश नगरी तुच्छ कपि जलाए, बात यह मैं मिथ्या जाना। मात्र सुग्रीव का दूत बना, योद्धा कह तुम सराहो जिसे, वानर वह कोई वीर नही। दश्मुख वचन सब सत्य तुम्हारे तुमसे समर में शोभा पाए हमारी सेना मध्य ऐसा कोई शूर नही। प्रणव द्रोह योग्य वही जो हो पराक्रम तुल्य सिंह यदि मेढक को मारे उस शौर्य का क्या है मूल्य,। यधपी प्रभु संहारे तुझे होगि कोई बड़ बात नहीं ब्रह्म हत्या का लगेगा दोष, किंतु तुम्हारी कुशल को समझाता हुं सुनो दशानन क्षत्रिय जाति क्रोध बड़ा कठोर। वाचकला में निपुण अंगद, शत्रु हृदय, शब्द बाण से भेदे जाए, प्रत्युत्तर दे दसमुख व्यथित , हीय एक एक शूल निकाले जाए। उपहास कर कपि से बोले बंदर गुण यही विशेष है लाज धर्म तज नाचे जहां तह मालिक हित ही बस उद्देश्य है। स्वामिभक्त जाति तेरी गुण कैसे न तू बखान करे, निष्ठा तेरी खरा सोना , दशानन भी सम्मान करे। वाद वीवाद, उत्तर प्रत्युत्तर अंगद दशमुख संग उपहास करे। हे रावण हमने सून रखी कहानी तुम बलि संग द्वंद करने पाताल गए, बालकगण जिसको बांध घुड़साल में खेलखेल बुरा हाल किए दया लगी तो बलि बचाए सस्त्रबाहू विचत्र जंतु समझ कोतुहाल वश जिसको भवन ले जाए मुनि पुलस्ति तब उसको छुड़ाए, क्या तुम वही रावण जिसने बाली की कांख में रह कर जाने कितने दिवस बिताए कुपित दशानन गरज कर बोला, मैं वह रावण जाकी भुजा बल गिरि कैलाश पहचाने। पुष्प कमल सम शीश चढ़ाया, हठ मेरा शिव शम्भू भी जाने। चलत दशानन डोले अवनि चढ़े गज जल मध्य तारिणी सम । तुच्छ मानव संग तुलना न कर दिग्गज दिकपाल जाने मेरा पराक्रम , अब क्रोध में अंगद आए, बोले सकोप, मुंह संभारी बोल दशानन तुझको तनिक नही है क्षोभ क्षत्रिय विहीन पृथ्वी करने वाले जाकी दर्शन कर गर्वहीन हुए स्वयं भगवान परूशुराम उन स्वामी को तू मनुष्य बताए, अरे दशानन मत कर इतना अभिमान कामदेव धनुर्धर नही , गंगा न नदी कहाए कामधेनु क्या पशु , कल्पवृक्ष न पेड़ जनाय, अन्न क्या कोई दान हुआ , अमृत क्या कोई रस बताए। कौन कहे पक्षी गरुड़, शेषनाग को सर्प कहे चिंतामणि न पत्थर है बैकुंठ को क्या कोई लोक कहे। अखंड भक्त श्री रघुनाथ का दूजा सम कोई और नहीं। अशोक वाटिका उजाड़ किया लंका दहन वह हनुमान क्या बंदर है, रि दुष्ट तू तज कपट पहचान अवतार स्वयं शिव शंकर है। भज ले कृपासिंधु कोशल्यान्नदन को हे दशानन रघुपति द्रोही का स्वयं शिव ब्रह्मा भी करते नही रक्षण है. सुनो दशशिष व्यर्थ न अब हाँको डींग, शीश विहीन न कर जाए तुझे , रघुपति कोप है परम तीक्ष्ण। गरिमा आप ही बखान करे. दशानन स्वयं ही यश गान करे। इंद्रजीत जहां पुत्र मेघनाथ कुंभकर्ण मेरा भाई है. समुद्र तो पंछी भी लांघे, इसमें क्या बहुत बड़ाई है, दूत भेजे कवन योद्धा, शत्रु संग प्रीति आए न लज्जा। देख दशानन का भुजबल, तब न बखानोगे, निज स्वामी का बल । लेख मिटाया ब्रह्मा का, शिव को चढ़ाया शीश कमल,। अंगद बोले मुरख तू, एक ही गाथा सौ बार कहे शीश चढ़ाया,शीश चढ़ाया, उस घटना को ही बस तूने चित्त चढ़ाया। सस्त्रबाहू बलि बाली को क्यों भूल गया, जिनके समक्ष तेरा पराक्रम झूल गया। अरे मंदमति, इंद्रजाल रचनाकार भी क्या कोई वीर है। निज हाथ से ही काटे अपना शरीर है। अग्नि स्नान करे पतंग, बोझ लदे चले गधों का झुंड, इससे नहीं वो शूरवीर कहलाते, सुनो रावण अब नही बात बढ़ाते, चाहु जो ले जाऊं जानकी मैया अभी। संहार तुझे संग तेरी भी स्त्रियां सभी। मगर सिंह मारे सियार, तो क्या कोई यश मिलेगा। मरे को मारा तो क्या मारा , मुझे तो बस कलंक मिलेगा।कुटिल, कृपण, काहिल, कामी, क्रोधी लोभी, विष्णु विमुख, वृद्ध, जड़, सठ, संत विरोधी। संग चेतन भी शव सम ये प्राणी। अस विचार तुझे छोड़ा है कुमार्गगामी। अंगद मुख सुन वचन कठोर, रावण क्रोध का रहा न ठौर... श्री रघुपति को कहे अपशब्द.. गुणहीन ,मानहीन, बलहीन, बुद्धिहीन, निस्काशित ,और वनवासी अभिशप्त। शिव विष्णु निंदा श्रवण । पाप सम है गौ भक्षण । प्रभु निंदा अंगद सह न पाए, भुज प्रहार कर धरती कंपाय । बाहुबली सभी आसान पे टिक न पाए, दसशीश दसमुकुट भी भूमि पर आए।
चुन चुन रावण शीश संवारे, मुकुट फेंक अंगद श्री राम चरण पवारे..... रावन मन हुआ आवेग अधीर.. किया आदेश मृत्यदंड , करो धरती शीघ्र ही वनारहीन.. स्मरण रघुपति प्रताप कर अंगद भूमि पग रोपे.. हुंकार भरी, ललकार करी, चरण हटा तो मानू हार, बिन सीता मैया ही लौटेंगे राम..... मेघमाथ संग कई बलवान , किए जतन पर टला नही हो गया अंगद चरण पाषाण.. राक्षस विषय कुयोगी मानो, उखड़े न चरण मोह वृक्ष समान.. ज्यों संत मन न त्यागे नीति , चाहे आए विघ्न अपार, त्यों अंगद चरण न छोड़े धरा, करते प्रयास निशाचर बारंबार.. हिय से हारे हुए लज्जित सब, रावण उठा आजमाने निज बल.. अंगद बोले व्यंग वाणी, मेरे चरण पकड़ने से क्या लाभ श्री राम चरण में शीश रख.. श्री राम विमुख का हश्र यही, दशानन विराजे सिंहासन दसों शीश झुकाए, प्रभु की भृकुटी विलासा काफी है।. तृण को वज्र , वज्र को तृण , और पत्थर को नारी बनाती है... बालिसूत अंगद दूत उन्ही के .. उनका प्रण कैसे टल जाए...!! प्रभु सुयश गान करे नीति अनेकों सुनाए.. विनाश काले विपरीत बुद्धि.. दशानन कुलनाशक दुरबुधि हठ न उससे त्यागा जाए... चूर हुआ शत्रु का मद... सफल हुआ अंगद का प्रण... शत्रु को उनकी औकात दिखा.. श्री राम चरणों में लौटे अंगद.. रोगी, दरिद्र, निंदक , देख अंगद उठ गए सभासद छोड़ के आसन आया क्रोध कपि सम्मान देख रावण को भीषण।। वानर परिचय जब पूछे दशानन रघुपति दूत मैं कहे बालिनंदन।