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बारिशों की बौछार में झूमता शहर ,
मानव के जड़ते आंसुओं का खामोश कहर।
बारिशों के इंतजार में कई किसान सो न पाए ,
इंसानों की आंखों में राज़ है गुमशुदा कि उस रात वो आंसू क्यों थे आए।थामती बुंदे धूप को अपने गिरने पर , देती सहारा अश्कों को छुपने का।काली रातों का सन्नाटा मिटा ,
ये आई भूले मलाल याद दिलाने को।
ज़ख्म जल रहे उन बुंदों से और मेरा दिल अब रो रहा ,
उन कहरती बादलों की छवियों से निकला झरना तेज़ है , मेरा ग़म अब इसमें खो रहा।
मैं रोई हर दिन की शाम की धूप के बाद ,
रोया आसमान भी सुनके मेरे बिखरने के हालात।
बारिशें , अपने आने का संकेत तो गुमशुदा सा देती है ,
हँसाकार नादान बच्चों को ये जवानी बहुत रुलाती है।
ठंडी हवा से हिलते पत्ते , कुछ ओस की बुंदों से चमक उठे ,
ज़ख्मी आंखे और दिलों के हालात ,
आसमान के रोने पर फिर यूही दमक पड़े।
मैने मेरे आंसू छुपा रखे दिन होने पर , आंखे बह गई चीखते आसमान और बादलों के रोने पर।
ये बारिश रुला गई अपने रोने पर , या रो गई मेरे ज़ख्मी होने पर ?
समा गई ज़मीन की बाहों में ,
मैं रो रही उन टूटी बिखरी हर राहों में।
बारिशें ,
बारिशों की बौछार में झूमता शहर ,
मानव के जड़ते आंसुओं का खामोश कहर।
बारिशें,
ठंडी हवा का कोमल सहारा , बुंदों का सुरीला राग , निकली ठंडी बुंदे , अश्कों से मिलने पर लगती आग।
बारिशें ,
मानव की स्थिति देख रो रही मैं ए इंसान,
जिंदा तेरी आंखों में कैद है न जाने कितने शमशान।
मुझे अपने आंसुओं पर है अब भी उतना ही गुमान ,
तेरी बाहों में सिमट के उन बुंदों में आज चुप्पी से चीख रही मैं अपने वो हालात।

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