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रस्सी बंधकर तैयार थी। उसने एक बार फंदे को देखा। आंखों में दर्द था पीड़ा थी। पर चेहरा पत्थर। पल भर के लिए जो गया गुज़रा था फिर एक बार जीने के तब्दील होना चाहता था पर उसने चाबी नहीं लगाई। सन्दूक बन्द था। खड़खड़ की आवाज़ आ रही थी। मानो वह सब फटकर बाहर आ जाएगा पर उसने एक नज़र तक नहीं डाली। शायद डर उस गुज़रे हुए वक्त पर हावी हो गया था। डर की फिर से जीना पड़ेगा।'जीना पड़ेगा' उसने क्षणभर सोचा अंदर तक आग सी उठी। वही आग जो पल भर में सब खाक कर जाती है। जो सेर भर उम्मीदे होती हैं सब राख कर जाती है। 'फिर एक बार?' नहीं! अंदर से पुकार उठी। कुर्सी को आगे किया आंसू नहीं थे। उसकी नज़र न चाहते हुए भी दीवार से सटी टेबल पर गई जहां परिवार की एक तस्वीर थी। मुस्कान से भरी हुई। उसे अपने आप पर घिन आई। और यही घिन उसे निर्णय तक ले गई। आंखों में अब कोई भाव नहीं था बस यह था कि निर्णय पर बने रहना। देखते ही देखते कुर्सी पर चढ़ गई। फिर फंदा! कूद गई। पैर बेचारे ज़िंदा रहने की उम्मीद में कुर्सी को छूने की कोशिश कर रहे थे। पर कुर्सी यमदूत बनकर फिसलकर गिर गई। अब वहां कोई नहीं था जो उसकी जीने की उम्मीद को ज़िंदा रख पाता। फंदा और कसता जा रहा था। आंखे बाहर आने को हुई। जीभ लटक रही थी। माँ-बाप-भाई का चेहरा आंखों से हो गया। अभी का नहीं बाद का। माँ जो उसके कफ़न पर सर रख-रखकर उसे उठाने की नाकाम कोशिश कर रही थी। बाप जो मर्द होने का अभिनय करता था पर अब अपनी बेटी की लाश देख टूट के बिखर गया था। पछतावा था माँ बाप की आंखों में। दोनों की आंखों में। सवाल की क्यूँ? ज़्यादा की मांग क्यूँ की? सिर्फ पछतावा। और यह पछतावा अब उनसे उनकी जान ही मांग रहा था। अब यह पछतावा धीरे-धीरे उन्हें ज़िंदा लाश बना देगा। सब हाल-बेहाल। उठ जा उठ जा जो करना है जैसा करना है ब्ला ब्ला। हाय यह मरने के बाद वाला पछतावा। दोनों तरफ का-क्यूँ!

एकदम से, पता नहीं उस मुर्दा लाश में इतनी ताकत कहाँ से आई की ऐसा लग रहा था जैसे रस्सी नहीं छत टूटकर गिर जाएगी। पर नहीं छत कमज़ोर नहीं थी क्योंकि मौत ने अपना पंजा कस लिया था। छत टूटी तो क्या, ज़रा सी लकीर तक नहीं आई। सूखे कपड़े की भांति वह अब झूल रही थी। दरवाज़ा अब भी बन्द था। क्योंकि अभी तक वह उम्मीदों पर खरी नहीं उतर पाई थी। और यह दरवाज़ा वही दरवाज़ा था जो यहां आने से पहले परिवार ने समाज ने उसके साथ बांध दिया था। बन्द दरवाज़ा जिसकी चाबी 'IIT'नाम के असुर के पास थी। और इसी असुर ने नजाने कितनों को कच्चा निगल लिया था। बड़ा ज़ालिम होता है यह असुर सोने तक नहीं देता सो जाए तो किसी की आवाज़ बन कान में चिल्लाता है। शोर मचाता है बस चुप नहीं रहता। यही कारण है कि कुछ इस राक्षस से डरकर पीछे कदम ले पाते हैं तो कुछ हिल भी नहीं पाते। डरते हैं, राक्षस से नहीं 'बुज़दिल' कहलाए जाने से।

रेक्टर भाग आया। उसे चुपचाप नीचे उतारा। पीछे से एम्बुलेंस बुलाई। रेपुटेशन का मामला था। इसलिए किसी को कानोकान खबर नहीं होने दी। बस दो तीन लोग। उठाया और पीछे की ओर से एम्बुलेंस में भर दिया। व्यं वॉव.......करती एम्बुलेंस चली गई। दरवाज़े के सामने कितने ही माँ-बाप अपनी औलादों को लेकर खड़े थे असुर को सौंपने! आवाज़ सुनी तो सकपका गए बेचारे पूछा तो होस्टल वाले ने कहा पास के हॉस्टल का मामला है। आप फिक्र मत कीजिए हमारा होस्टल बड़ा एको फ़्रेंडली है। हमने पंखे रखे ही नहीं AC है। कहीं भी ऐसी चीज़ नहीं है जिसके सहारे रस्सी बांधी जाए। अरे रस्सी! अरे रस्सी तो क्या पास में जितनी भी दुकानें हैं उन सब को चुन्नी रखने से मना कर दिया है। धागा तक लाना हो तो तीस सेंटीमीटर से आगे नहीं और वह भी नायलॉन को नहीं कच्चा कॉटन। फिक्र नॉट आपका बच्चा कल का IITian रहेगा यह वादा है आप से!

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