Photo by Ashish Kumar Pandey: from pexels.com

भारतीय समाज की आस्था,
एकता का प्रतीक कुंभ मेला।
भारतीय संस्कृति का सर्वश्रेष्ठ, उदाहरण है कुंभ मेला।
संपूर्ण भारतवासी पिरोते,चमकती एक मुक्ता माला ।
अमृत स्नान करे संगम में,गंगा- जमुना-सरस्वती बहती धारा ।
प्रयाग धरातल में बहती,लुप्त सरस्वती नदी की धारा ।
स्नान कर करोड़ों श्रद्धालु,काटते पाप ,जीवन के सारा।
बारह साल में एक बार मनाते, सनातन धर्म का श्रेष्ठ मेला।
ग्रहों के स्थिति के मिलन से, आयोजित होता कुंभ मेला ।
आत्मा परमात्मा की एकाकर अनुभूति का,
अमृत बरसाता कुंभ मेला।
आध्यात्मिक और सांसारिक,गति को दर्शाता कुंभ मेला।

आध्यात्मिकता और सामाजिक समरसता

हमारे जीवन का अभिन्न अंग है "अध्यात्म"। हमारी आत्म चेतना को अमृत्व प्रदान करने का साधन है "कुंभ मेला"।

त्रिवेणी संगम में सदियों से चली आ रही इस प्रथा में,साधु-संत, महात्मा,नागा साधु सभी एकत्रित होते हैं ,भक्तजनों को आशीर्वाद देने, व अपनी तपस्या की ताकत को पुन: प्राप्त करने के लिए।

जैसे सूर्य ग्रहो में व चंद्रमा तारों में श्रेष्ठ है वैसे ही संगम को सभी तीर्थ का अधिपति माना गया है ।सात पुरियाँ इसकी रानियाँ कही जाती है। त्रिवेणी संगम होने के कारण इसे "यज्ञ वेदी" भी कहा जाता है।

गृहस्थी अपने पाप कर्मों से मुक्त होने व मोक्ष पाने संगम में स्नान करता है।कुछ खास तिथियों में स्नान करने से हमारे पूर्वजों को भी इस स्नान का फल मिल जाता है।इसी आस्था से हम पीढ़ी दर पीढ़ी जब कुंभ व महाकुंभ का मेला लगता है, अमृत स्नान करना चाहते हैं ताकि हमारे कुकर्मों का नाश हो व सत्कर्म की प्राप्ति हो।

हमारे शरीर के भीतर भी इला, पीङा-सुषुप्त नाङयों का त्रिवेणी संगम है।हमारी देवी चेतना कण-कण में व्याप्त है।हमारे ललाट के मध्य में इन तीनों नाङियों का संगम होता है ।जब हम ध्यान क्रिया में बैठते हैं तो ज्ञान गंगा का प्रकाश आज्ञा चक्र से उद्गम हमारे शरीर में प्रकाशित और प्रवाहित होता है ।

ज्ञान गंगा सत्संग है,साधन है। भारत की परंपरा में ये अक्षुण्ण पद्धति चली आ रही है जो हजारों वर्षों पहले और वर्तमान में भी हमारी श्रद्धा को कम नहीं कर सकती।आगे भविष्य में भी इसकी सर्वभौमिता बनी ही रहेगी।

स्थूल-सूक्ष्म-विराट सबका कुंभ मेले में समावेश होता है ।गंगा स्नान कर हमें चिंतन करना है कि शरीर नश्वर है। भस्म लगाने का अर्थ यही है कि शरीर का चमड़ा जलकर भस्म मयी हो जाना है ।

जीवन में सबको साथ लेकर चलना कुंभ मेला हमें सिखाता है।

विविधता में एकता से सजे हमारे पूरे देश में कुंभ की सी पवित्रता आ जाती है।अत: जो भौतिक रूप में कुंभ मेला नहीं पहुंच पाए उन्हें चिंता नहीं करना है ।कुंभ के पूरे अवसर पर स्मरण,ध्यान कर कहीं भी कुंभ का लाभ उठा सकते हैं।

वैसे प्रत्यक्ष में महाकुंभ में हम अनेक संतों के दर्शन का लाभ उठा सकते हैं ।त्रिवेणी में स्नान कर मोक्ष पा सकते हैं,पर किसी कारणवश न जा सके तो मानसिक स्नान कर हर दिन ही अमृत स्नान का लाभ उठा सकते हैं।

कुंभ मेले का मुख्य उद्देश्य आत्म शुद्धि और मोक्ष प्राप्ति है।

कुंभ मेले में पवित्र नदियों में स्नान करने से पापों से मुक्ति मिलती है।

कुंभ मेले में सामाजिक अनुष्ठान व धार्मिक गतिविधियां होती है।

पौराणिक कथा

महर्षि दुर्वासा के श्राप से, शापित हो गए देव गण ।
पदच्युत पीड़ा से पीड़ित देवता ,आए विष्णु की शरण ।
ऐश्वर्य, वैभव,प्रभाव देवों का,समुद्र तल में छुपा,बताये भगवन ।
देवता दैत्य मिलकर साथ मे, छोङ बैर ,करो समुद्र मंथन ।
अमृत निकलेगा मंथन से,पीकर हो जाओ अमर ।
बात उचित लगी सभी को,एकत्रित हो गए देव असुर ।
देवराज इंद्र और राजा बलि ने,समुद्र मंथन हेतु मिलाया हाथ।
वासुकी नाग की बनाई नेति, मंदराचल पर्वत ने दिया साथ।
प्रथम हलाहल विष ताप से,सृष्टि में मच गया हाहाकार।
कण्ठ में धारण किए शिव शंभू, नीलकण्ठ नाम लिया धार ।
द्वितीय में कामधेनु गाय,दिव्य, अलौकिक पयस्वनी।
यज्ञ सामग्री करती उत्पन्न, ब्रह्म ऋषियों को मिली तेजस्विनी।
तृतीय उच्चै:श्रवा अश्व,राजाबलि किये ग्रहण।
चतुर्थ ऐरावत हाथी,देवेन्द्र का बना वाहन।
पँचम कौस्तुभमणि को,विष्णु हृदय पर किये धारण।
षष्ठम कल्प दिव्य तरु देवों ने,किया स्वर्ग में स्थापन।
सप्तम ब्रह्माण्ड सुंदरी रंभा,चाल बड़ी मन लुभावनी।
निज इच्छा चली देवों संग,अप्सरा इच्छाचारिणी।
धन की देवी लक्ष्मी का,अष्टम में हुआ अवतरण।
ऋषि,देव,दैत्य छोड़,भगवान विष्णु को किया वरण।
समुद्र मंथन से नवम् रत्न,वारुणी की हुई उत्पत्ति ।
सहर्ष दैत्यों ने किया ग्रहण,नारायण की अनुमति ।
दशम रत्न चंद्र रूप में ,शिव जी ने किया शीश पर धारण ।
एकादश पारिजात वृक्ष, देवताओं का किया पारण ।
पाँचजन्य विजय प्रतीक शंख,द्वादश रत्न पाये विष्णु भगवन ।
अमृत कलश ले निकले धन्वन्तरि,औषधियों का अवतरण।
अमृत भरे कुंभ कलश कारण,सुर-असुर में छिङा संग्राम।
इंद्र आज्ञा से ले भागा पुत्र जयंत, तीव्र गति से स्थान-स्थान ।
जहाँ-जहाँ गया जयंत, दैत्य गण पीछे-पीछे भागे ।
अमृत बूँदे छलकी अमृत कलश से, धरा हुई पवित्र,भाग्य जागे।
प्रयागराज,हरिद्वार उज्जैन,नासिक,
अमृत बूंदो का किया रसास्वादन। चारों स्थान पर पावन पवित्र ,
कुंभ मेला का होता आयोजन ।
अमृत कलश प्राप्ति हेतु,बारह दिन युद्ध रहा जारी।
बारह दिन बारह वर्ष समान,
कुंभ मेले की आती पारी।

समुद्र मंथन और कुंभ की कथा

कुंभ का सही अर्थ है "कलश",जिसे हम घड़ा भी कहते हैं ।दरअसल कुंभ मेले की कहानी भी अमृत के घड़े से ही जुड़ी है ।

पुरानी कथानुसार दुर्वासा ऋषि के शाप से देवता कमजोर हो गए। देवताओं का राज्य,वैभव,धन सब छिन गया।राक्षसों से युद्ध में पराजित देवता,विष्णु भगवान की शरण में गए।भगवान ने बताया कि देवताओं का वैभव समुद्र तल में चला गया है, अतः समुद्र मंथन करना होगा। समुद्र मंथन से अमृत की प्राप्ति होगी, जिसे पीकर वह अमर हो जाएंगे।

समुद्र मंथन करना देवताओं के लिए एक सहज काम नहीं था,अतः राक्षसों से संधि करनी पड़ी ।देवेंद्र व राजा बलि समुद्र मंथन के लिए राजी हो गए ।

वासुकीनाग व मंदराचल पर्वत की सहायता से समुद्र मंथन शुरू हुआ। एक-एक कर समुद्र से चौदह रत्न निकले।जिसे विष्णु भगवान,साधु- संतों, देव -असुरों में बांट दिया गया।

प्रथम कालकूट विष निकला, जिसके तेज से सृष्टि में चारो ओर हाहाकार मच गया ।भगवान विष्णु की प्रार्थना से शिवजी ने सहर्ष जहर पीकर,कंठ में रख लिया। जहर के प्रभाव से कंठ नीला हो गया व भगवान शंकर नीलकंठ कहलाए ।

चौदहवाँ रत्न अमृत कलश लेकर वैद्य धनवंतरी आए।कलश देख, देवता-दैत्य लालायित हो ,छीना झपटी करने लगे ।कभी दैत्य व कभी देवता कलश को लेकर भागने लगे। इंद्र ने अपने बेटे जयंत को कलश ले भागने को कहा। दैत्य गुरु शुक्राचार्य के आदेश से राक्षसो ने कलश छीन लिया ।इस प्रकार बारह दिन भीषण युद्ध चला।

इसी दौरान कुंभ से अमृत की बूंदे पृथ्वी लोक की चार जगह पर जा गिरी ।पहली बूंद तीर्थराज प्रयाग में, दूसरी हरिद्वार में,तीसरी उज्जैन व चौथी नासिक में ।यही वजह है कि, कुंभ मेला का आयोजन इन्हीं चारों स्थान पर होता है।

मान्यता यह है कि जयंत बारह दिन बाद अमृत कलश लेकर स्वर्ग पहुंचा जो कि पृथ्वी लोक के बारह साल होते हैं।इसी कारण कुंभ मेले का आयोजन हर बारह साल के अंतराल बाद होता है।

पृथ्वी लोक में चार कुंभ,

व देवलोक में आठ कुंभों का आयोजन होता है। प्रयागराज में आयोजित महाकुंभ विश्व विख्यात है। जहाँ सिर्फ भारतवासी ही नहीं, विश्व के कई श्रद्धालु संगम में स्नान करने आते हैं।

भारतवर्ष का अनूठा मेला

भारत में यह अपने में एक अनूठा मेला होता है।इसमें विदेशी लोग पवित्र नदियों में स्नान करने आते हैं। अङतालीस दिन तक चलने वाले इस मेले में,साधु,संत,तपस्वी,तीर्थ यात्री, भक्तगण देश के कोने-कोने से आते हैं ।कुछ कल्पवास करते हैं,कुछ अमृत स्नान करते हैं,कुछ मेले की शोभा व साधुओं के दर्शन करने आते हैं।

चार तीर्थ स्थलों में होने वाला यह मेला उत्तराखंड में गंगा नदी पर हरिद्वार में, मध्य प्रदेश में शिप्रा नदी पर उज्जैन में ,महाराष्ट्र में गोदावरी नदी पर नासिक में,और उत्तर प्रदेश में त्रिवेणी संगम तीर्थराज प्रयाग में मनाया जाता है।

ग्रहों और राशियों पर होता है कुंभ मेला का आयोजन

कुंभ मेले में सूर्य और बृहस्पति का खास योगदान माना जाता है ।जब सूर्य व बृहस्पति एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करते हैं तभी इस मेले के आयोजन की तिथि निर्धारित होती है।

जब बृहस्पति वृषभ राशि में प्रवेश करते हैं और सूर्य मकर राशि में तब प्रयागराज में कुंभ मेला आयोजित होता है जिसे "मकरस्थ" कुंभ कहते हैं ।

जब सूर्य और गुरु सिंह राशि में प्रवेश करते हैं तब कुंभ नासिक में मनाया जाता है।जिसे "सिंहस्थ" कुंभ कहते हैं ।यह कुंभ भी बारह साल में एक बार आता है ।

जब सूर्य मेष राशि व बृहस्पति कुंभ राशि में प्रवेश करते हैं, तब हरिद्वार में आयोजन होता है।

जब बृहस्पति सिंह राशि में व सूर्य मेष राशि में प्रवेश करते हैं, तब उज्जैन में कुंभ मेला लगता है। यह कुंभ मेला भी "सिंहस्थ कुंभ" कहलाता है ।

कुंभ में सभी नौ ग्रहों में सूर्य,चंद्र, गुरु और शनि की महत्वपूर्ण भूमिका मानी जाती है ।जब अमृत को लेकर देवता दैत्य युद्ध कर रहे थे,तब अमृत को चंद्रमा ने बहने से बचाया था। बृहस्पति ने कलश छुपाया व सूर्य देव ने कलश को फूटने से बचाया शनि देव ने इंद्र के क्रोध से रक्षा की। इसीलिए इन ग्रहों का योग कुंभ मेले में महत्वपूर्ण माना जाता है।

कुंभ मेले के चार प्रकार

कुंभ मेला चार प्रकार का होता है-

  • महाकुंभ मेला- यह प्रयागराज में आयोजित किया जाता है,जो बारह पूर्ण कुंभ के बाद एक सौ चवाँलीस वर्षों बाद आता है। जो इस साल मनाया जा रहा है। प्रयागराज त्रिवेणी संगम में स्नान करने,अमृत स्नान कर मोक्ष प्राप्त करने, करोड़ों श्रद्धालु दूर-दूर से आकर, मेले का लाभ उठाते हैं।
  • पूर्ण कुंभ मेला- यह हर बारह वर्ष बाद प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक व उज्जैन में बारी-बारी से आयोजित किया जाता है।
  • अर्ध कुंभ मेला- यह हर छह साल बाद प्रयागराज में व हरिद्वार में मनाया जाता है।
  • मिनी कुंभ मेला- यह प्रतिवर्ष माघ महीने में प्रयागराज में मनाया जाता है।

कुंभ मेले का इतिहास

कुंभ मेले का पहला लिखित प्रमाण श्रीमद् भागवत पुराण में उल्लेखित है। समुद्र मंथन की कथा विष्णु पुराण,महाभारत और रामायण में भी लिखित पाई जाती है।

प्रसिद्ध चीनी बौद्ध भिक्षुक व्हेन सांग कुंभ मेले से बहुत प्रभावित हुए थे ।उनके अनुसार कुंभ मेले में लाखों लोग शामिल होते हैं। कुंभ मेले के दौरान साधु महात्मा देशकाल स्थिति के मुताबिक लोक कल्याण हेतु धर्म का प्रचार करने दूर-दूर से आते हैं ।आध्यात्मिक सामाजिक दृष्टि से इस मेले का बहुत महत्व है।

भगवान आदि शंकराचार्य जी के कुंभ प्रवर्तक होने के कारण ही आज भी कुंभ मेला मुख्यतः साधु संतों का माना जाता है ।

अखाड़ों की शाही (अमृत) स्नान की परंपरा आदि शंकराचार्य ने शुरू की थी।

भारत की संप्रभुता की झलक

कुंभ मेला संसार का सबसे बड़ा धार्मिक सम्मेलन है जिसे "धार्मिक तीर्थ यात्रियों की सबसे बड़ी मंडली" के रूप में जाना जाता है। गिरि- कन्दराओं से योगी,नागा साधु व सभी संप्रदायों के महापुरुष एक दूसरे से नदियों के संगम की तरह मिलने को आतुर हो कुंभ मेले में स्नान करने आते हैं ।एक सामाजिक समरसता की झाँकी यहाँ देखी जा सकती है ।यहाँ ना कोई जाति भेद है ना वर्ण भेद है ।सारी दूरियाँ सिमट जाती है ।

भारत की सम्प्रभुता की झलक कुंभ मेला दर्शाता है। भारत के धर्मो की विविधता यहाँ एकरूपता में दिखाई देती है ।

हमारी भाषाएँ अलग,विचार अलग, पूजा विधि अलग होते हुए भी कुंभ में सब एक रस,एक समान हो जाते हैं ।

कुंभ मेले की प्रमुख विशेषता साधुओं के शिविर,अखाड़े और जुलूस है ।कुल तेरह अखाङो में आनंद,जूना,आवाहन,अग्नि,अटल,महानिर्वाण, निरंजन यह सात शैव अखाड़ो में आते हैं ।सबके अपने-अपने आचार्य होते है।

निर्वाणी,दिगंबर और निर्मोही यह तीन वैष्णव अखाड़े में आते हैं ।

बड़ा पंचायती उदासीन, छोटा पंचायती उदासीन और निर्मल यह तीन सिक्ख में आते हैं ।

त्रिवेणी स्नान

आध्यात्मिक ज्ञान,सामाजिक समरसता ,संस्कृति का आदान-प्रदान ।
मोक्ष प्राप्त कर लेता प्राणी,त्रिवेणी संगम मे कर स्नान।
महाकुंभ पावन बेला में,त्रि दिवस करे त्रिवेणी मे स्नान,
सहस्त्र अश्वमेघ यज्ञ फल पाये, करें जो संगम मे अमृत स्नान ।
बारह साल में कुंभ मेला ,छह साल में अर्ध कुंभ मेला होता।
एक सौ चवाँलीस साल में ,महाकुंभ मेला आयोजित होता ।
सूर्य-चंद्र और बृहस्पति की,स्थिति पर अमृत स्नान होता ।
महाकुंभ मेले का आयोजन, प्रयागराज त्रिवेणी पर होता।
त्रिवेणी के संग में ,साधु-संत ,श्रृद्धालु करते स्नान ।
अमृत तिथियों की बेला में ,होती है अमृत स्नान।
अमृत स्नान प्रथम नागा साधु करते, बाद में सब की आती बारी ।
पितृ आत्मा मोक्ष पा जाते ,पाप कर्मों पर चलती आरी ।
कुंभ का अर्थ है कलश, अमृत मंथन से जुड़ी कथा।
मेला का मतलब मिलन,अमृत स्नान से मिटती व्यथा ।
पुरातन से नूतन काल तक,महाकुंभ में होता अमृत स्नान ।
तैतीस करोड़ देवी देवता साधु संत, करोड़ों श्रद्धालु करने आते त्रिवेणी मे स्नान।

कुंभ मेला-महत्व

हर बारह वर्ष बाद,कुम्भ का मेला आता है।
हरिद्वार,प्रयाग,उज्जैन,नासिक में, आयोजित किया जाता है।
भारतवर्ष के साधु सन्तों का लगता जहाँ ताँता है।
सन्तो की टोली का रेला,स्नान करने जाता है।
भारत माँ की संस्कृति के,मिलन का लगता मेला।
पूर्व-पश्चिम,उत्तर-दक्षिण,भाव पुनरावृत्ति की वेला।
अपने-अपने प्रान्त की,महिमा गाथा गाते हैं।
लोक अनुभूति और संस्कृति की, झाँकी को दर्शाते हैं।
आपसी वैमनस्य दूर भगाने का,मौका देता है मेला।
चारों दिशाओं से जुड़ता नाता, भ्राँतियाँ मिटाता है मेला।
गाँव,कस्बों और शहरों में,कभी-कभी मेला लगता।
मेले में मिल जाती है,विभिन्नताओं में एकता।
रंग-बिरंगे फूलों सी वाटिका,मन मोह जाती है।
बालक,युवा,वृद्ध,नर-नारी,सबके मन को लुभाती है ।
अपनी-अपनी विशेषताओं की,छटा बिखराता है मेला ।
सकारात्मक सोच हो जाती,प्राणी नहीं रहता अकेला।
संसार रंग मंच का मेला,जहाँ प्राणी जीवन पाता है।
अपनी पारी खेल कर,प्रभु धाम को जाता है।

.    .    .

Discus