अज्ञानता की नींद से जागा प्रबुद्ध व्यक्ति,जिसने दुखों से मुक्ति पाली है, वह बुद्ध कहलाता है।
गौतम बुद्ध का असली नाम सिद्धार्थ गौतम था जो एक महान दार्शनिक, शिक्षक और बौद्ध धर्म के संस्थापक थे। उन्होंने जीवन के दुख और उसके अंत का मार्ग खोजा,जिसे उन्होंने बौद्ध धर्म के रूप में स्थापित किया।
भगवान बुद्ध का जन्म लुंबिनी में हुआ था,जो कपिलवस्तु के पास गंगा नदी बेसिन के उत्तरी किनारे पर है,जो उत्तर भारत की सभ्यता की परिधि पर स्थित एक क्षेत्र है,जो आज दक्षिणी नेपाल में है ।
मध्य गंगा बेसिन को लगभग सोलह राज्यों में संगठित किया गया था।जिन पर राजाओं का शासन था।
बुद्ध का जन्म शाक्य वंश के मुखिया राजा शुद्धोदन के घर लगभग 563 ईसा पूर्व में हुआ था। माता महामाया का देहांत,जब गौतम सिद्धार्थ मात्र सात दिन के थे,तभी हो गया था।इनको मासी प्रजापति गौतमी ने पाल पोष कर बड़ा किया था।
गौतम बुद्ध बड़े प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी थे ।
ऐसा कहा जाता है कि उनके जन्म के बारह साल पहले ही ब्राह्मणों द्वारा भविष्यवाणी की गई थी कि,या तो यह बहुत बड़े सम्राट बनेंगे या बहुत बड़े महान ऋषि!
उन्हें सन्यासी बनने से रोकने के लिए राजा शुद्धोदन द्वारा महल की चारदीवारी में ही राजसी ठाठ-बाट की सर्वोच्चित व्यवस्था कर दी गयी थी।
राजसी विलासिता में पले बढे,बाहरी दुनियाँ से दूर,ब्राह्मणों द्वारा महल मे ही ज्ञान प्राप्त किया।
महल के अंदर ही तीरंदाजी,तलवारबाजी,कुश्ती,तैरा की और दौड़ में प्रशिक्षित हुए ।
वेद,उपनिषद का ज्ञान, राजकाज और युद्ध विद्या गुरु विश्वामित्र से प्राप्त की।
सोलह वर्ष की उम्र में सिद्धार्थ का कन्या यशोधरा से विवाह हो गया। पिता द्वारा ऋतुओं के अनुरूप बनाए गए वैभवशाली और समस्त भोगों से युक्त महल में यशोधरा संग सिद्धार्थ आराम से रहने लगे ।उनके पुत्र हुआ जिसका नाम रखा गया राहुल।
बाल्यकाल से ही सिद्धार्थ का मन करुणा व दया का स्रोत था।
घुडदौड़ में जब घोड़े दौड़ते तो उनके मुख से झाग निकलता तो सिद्धार्थ घोडे को थका जानकर,जीती हुई बाजी हार जाते ।
खेल में भी सिद्धार्थ खुद हार जाना पसंद करते क्योंकि किसी को हराकर दुख देना उन्हें उचित नहीं लगता ।
अपने चचेरे भाई देवदत्त द्वारा मारे गये तीर से, घायल हंस की रक्षा की। घाव का इलाज किया व उस मूक पक्षी के प्राणों को बचाया।
राजा शुद्धोदन द्वारा दी गयी भोग विलासिता,नाच गाना और मनोरंजन की सब सामग्री सिद्धार्थ के मन को बांधकर नहीं रख सकी।
हालांकि तीनों ऋतुओं के तीन महल चार दीवारी के अंदर थे,फिर भी एक दिन बसंत ऋतु में सिद्धार्थ बगीचे की सैर के लिए निकले।
उन्हें सड़क पर एक बूढ़ा आदमी दिखाई दिया। दाँत टूटे हुए, हाथ में लाठी,शरीर टेढ़ा और बाल सफेद। धीरे-धीरे सड़क किनारे काँपता हुआ जा रहा था ।
दूसरी बार जब वह बगीचे की और जा रहे थे तो उन्हे एक रोगी दिखाई दिया।जिसकी साँस तेज चल रही थी ।बाँहे सूख गई। पेट फूल गया व चेहरा पीला पड़ गया। वह दूसरों के सहारे बड़ी मुश्किल से चल पा रहा था ।यह देख उनका कोमल मन भावुक हो गया।
तीसरी बार सिद्धार्थ ने एक अर्थी को देखा।चार आदमी कंधे पर उठाए, कुछ लोग पीछे-पीछे छाती पीटते, रोते हुए जा रहे थे ।कोई अपने बाल नोच रहा था ।यह दृश्य देख सिद्धार्थ विचलित होकर सोचने लगे ,क्या यही जीवन का अन्त है?
क्या जीवन में बीमारी,बुढ़ापा व मौत ऐसे ही चलता रहेगा ?
चौथी बार कुमार जब घूमने निकले तो उन्हें एक संन्यासी दिखाई दिया। संसार की सारी भावनाओं और कामनाओं से मुक्त प्रसन्नचित्त संन्यासी ने सिद्धार्थ को अपनी ओर आकृष्ट किया ।
यशोधरा, दूध मुँहे पुत्र राहुल और कपिलवस्तु जैसे राज्य को त्याग कर सिद्धार्थ मात्र उनतीस वर्ष की आयु में जरा-मरण व दुखो से मुक्ति दिलाने के मार्ग एवं सत्य दिव्य ज्ञान की खोज में रात्रि में महल से निकल पड़े ।
उन्होंने राजगृह जाकर भिक्षा मांगी। घूमते घूमते सिद्धार्थ आलार कालम और राम पुत्र के पास रहकर योग साधना सीखने लगे।
बुद्ध के प्रथम गुरु आलार कालम थे। जिनसे उन्होंने सन्यास काल मे शिक्षा प्राप्त की। राम पुत्र उद्रक से समाधि लगाना सीखे,पर समाधि लगाने से उन्हें संतोष नही हुआ। उरुविला जाकर विभिन्न प्रकार से कठोर तपस्या करने लगे।
सिद्धार्थ पहले तो केवल तिल और चावल खाकर तपस्या किये। बाद में आहार बंद कर दिया। शरीर सूखकर काँटा हो गया।छह साल तपस्या के बाद भी उन्हें सफलता नहीं मिली।
एक दिन कुछ औरतें किसी नगर से लौटती हुई वहाँ से निकली जहाँ सिद्धार्थ तपस्या कर रहे थे। उनका एक गीत "वीणा के तारों को ढीला मत छोड़ो,ढीला छोड़ने से सुरीला स्वर नहीं निकलेगा व तारो को इतना भी मत कसो कि वह टूट जाए ।"सिद्धार्थ के कानों में पड़ा।
यह बात उनके मन को जँच गई ।वह मान गए कि नियमित आहार विहार से ही योग सिद्धि प्राप्त होती है ।"अति सर्वत्र वर्जिते"
पैतीस वर्ष की आयु में,वैसाखी पूर्णिमा के दिन,सिद्धार्थ पीपल (बोधि) वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ थे।
जब बुद्ध बोध गया में निरंजना नदी के तट पर तपस्या मे लीन थे। सुजाता नामक लड़की के हाथों खीर खाकर उपवास तोड़ा।
दरअसल सुजाता के पुत्र हुआ।वह बेटे के लिए एक पीपल वृक्ष में मन्नत पूरी करने के लिए,सोने के थाल में,गाय के दूध से बनी खीर लाई थी। ध्यानास्थ सिद्धार्थ को देख ,सुजाता को लगा, वृक्ष देवता ही साक्षात् शरीर धारण कर बैठे हैं ।बड़े आदर से खीर भेट कर बोली,"जैसे मेरी मनोकामना पूर्ण हुई ,इस तरह आपकी भी हो। "
उसी रात ध्यान लगाने पर सिद्धार्थ की साधना सफल हुई ।उन्हें जीवन का सच्चा बोध हुआ । तब से सिद्धार्थ बुद्ध कहलाए ।जिस पीपल वृक्ष के नीचे बोध मिला वह "बोधि" वृक्ष कहलाया। गया का समीपवर्ती वह स्थान बोध गया नाम से प्रसिद्ध हुआ।
35 वर्ष से 80 वर्ष तक गौतम बुद्ध अपने धर्म का प्रचार संस्कृत भाषा की जगह लोक भाषा पाली में करने लगे।उनके सीधे सरल धर्म की लोकप्रियता तेजी से बढी।
चार से छह सप्ताह तक बोधि वृक्ष के नीचे धर्म के स्वरूप का चिंतन करने के बाद,बुद्ध धर्म का उपदेश करने के लिए निकले।
सर्वप्रथम धर्मोपदेश काशी के पास सारनाथ मे किया। प्रथम पांच मित्रों को अपना अनुयायी बनाया। महा प्रजापति गौतमी सर्वप्रथम बौद्ध संघ की सदस्या बनी। आनन्द बुद्ध का प्रिय शिष्य था,जिसको संबोधित कर उपदेश देते थे।
पाली सिद्धांत के महापरिनिर्वाण सूत्र के अनुसार 80 वर्ष की आयु में बुद्ध ने घोषणा की, कि अब वह जल्दी ही परिनिर्वण के लिए रवाना होंगे ।बुद्ध ने अपना आखिरी भोजन,जिसे उन्होंने कुण्डा नामक एक लोहार से भेंट स्वरूप में मिला, ग्रहण किया था ।भोजन उपरांत बुद्ध गंभीर रूप से बीमार हो गए।
बुद्ध ने आनन्द को निर्देश दिया कि कुण्डा को समझाये कि उसकी कोई गलती नहीं थी।
बुद्ध का निधन 486 ईसा पूर्व कुशीनगर में हुआ था।उनकी मृत्योपरान्त उनके सिद्धांतों को, उनके अनुयायियों ने विश्व भर में फैलाया।
बौद्ध धर्म आज भी दुनियाँ के सब धर्मो में से एक है।जिसकी प्रमुख शिक्षाएँ हैं _
चार आर्य सत्य_दु:ख,दु:ख का कारण, दु:ख का निवारण व दु:ख का निवारण मार्ग।
प्रमुख सीख
अहिंसा,शांति,प्रेम और करुणा
बुद्ध के अनुयायियों का विभाजन
भगवान बुद्ध के अनुयायी चार भागों में विभाजित है ।
(1) हीनयान- इन लोगों के विचार से बुद्ध एक महापुरुष थे। भगवान जैसी कोई वस्तु होती ही नहीं।भारत,लंका व थाईलैंड में इस विचारधारा के लोग प्रमुखता से बसे हैं ।यह जीवन को कष्टमयी,क्षण भंगुर मानते हैं ।
कष्टो से छुटकारा पाने व्यक्ति को स्वयं अपनी सहायता करनी होगी ।इनका मानना है कि, ना ईश्वर है ना देवी और नहीं देवता। बुद्ध की उपासना करना भी विरुद्ध कर्म है ।इन का आधार मार्ग अष्टांगिक है।
(2) महायान- चीन,जापान, कोरिया आदि में बसे लोग बुद्ध को भगवान मानते हैं। दूसरा कोई बुद्ध नहीं बन सकता। दुखों से बहुत सहज तरीके से छुटकारा पाया जा सकता है। पूजा पाठ से ज्यादा प्रार्थना में शक्ति है और सामूहिक रूप से की गई प्रार्थना से कष्ट दूर होते हैं ।
बुद्ध को ईश्वर तुल्य मानने वाले महा यानी का कहना है कि, सभी प्राणी बुद्धत्व प्राप्त कर सकते हैं।
(3) वज्रयान- तिब्बत,नेपाल, भूटान, वर्मा आदि देशों के लोग इस विचारधारा को मानते हैं, जिसमें जादू टोना आता है।रेकी विद्या इन्हीं लोगों से विकसित हुई ।इन्हीं लोगों ने ही ऐसी शक्तियां बचाई है ।
(4) भीमयान- डॉ आंबेडकर के विचारों से प्रभावित लोगों ने बौद्ध धर्म को अपनाया ,वह भीमयानी कहलाते हैं ।भारत में यह लोग पाए जाते हैं ।उनके विचार औरों के विचारों से सरल है।
भगवान बुद्ध के मृत शरीर के अवशेषों को आठ भागों में बांटा गया। इन भागों को राजाओं और राज्यों के बीच वितरित किया गया। जिन्हें आठ पत्थरों के ताबूत में रखा गया।
बौद्ध धर्म में इन अवशेषों को बहुत पवित्र व महत्वपूर्ण माना जाता है। इनको बौद्ध मंदिर व मठो में रखा जाता है और उन्हें पूजा जाता है।
सम्राट अशोक ने इन अवशेषों के माध्यम से बौद्ध धर्म का प्रसार करने का दृष्टिकोण अपनाया। पत्थरो के ताबूतों में भगवान बुद्ध के अवशेषों जैसे बाल, नाखून और हड्डियाँ सुरक्षित रूप से संरक्षित की गई थी। सम्राट अशोक के समय में उन्हें भारतीय उपमहाद्वीप में स्थित स्तूपों में विभाजित और पुनर्वितरित किया गया।उनमें एक सांची का महान स्तूप था ।सांची के स्तूप की मूर्तियाँ बुद्ध की मृत्यु के तुरंत बाद की घटनाओं को दर्शाती है ।
2500 साल पहले कुशीनगर से बुद्ध के दाह संस्कार के अवशेषों को दुनिया भर के स्थान पर भेजा गया। जो आज बौद्ध तीर्थ स्थल बन गए हैं।
अमरावती में बौद्ध स्तूप जिसे "महाचैत्य" नाम से जाना जाता है,एक विशाल संरचना थ।जिसकी खोज 1797 में कालीन मैकेर्जी ने की थी। अंधाधुंध खुदाई,पत्थरो और ईंटों का पुन: उपयोग करने स्थानीय जमीदार वासी रेडी वेंकटाद्रि नायडू ने उसको नष्ट कर दिया।अब एक खंडहर स्तूप रह गया है जो कि प्राचीन भारत में सबसे बड़े और महत्वपूर्ण स्मारकों में से एक था।
बौद्ध धर्म के प्रमुख स्थल
सारनाथ- जहां बुद्ध ने अपना पहला उपदेश दिया।
बोधगया-जहां बुद्धि वृक्ष के नीचे बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ।
बुद्ध के उपदेश तीन पिटकों में संकलित है ।(1)सुत्त पिटक ,(2)विनय पिटक और (3)अभि धम्म पिटक।
बौद्ध धर्म के तीन रत्न
बुद्धम शरणम गच्छामि- मैं अपनी बुद्धि के शरण में जाता हूँ। मैं अपना बुरा-भला करने वाला स्वयं हूँ। सही दिशा की ओर आगे बढ़ना, गलत दिशाओं से पीछे हटना ही "बुध्दम् शरणम गच्छामि" का अर्थ है।
धम्मम् शरणम गच्छामि -धम्म
अपने आप में एक नियम है जो प्रकृति के अनुसार चलते है। जब हम इस धम्म के नियमानुसार चलते हैं तो हमे सुख और शांति मिलती है।
संघम् शरणम गच्छामि- बौद्ध धर्म के अनुयायी, जिन्हें बौद्ध धर्म में संघ कहा जाता है ,भिक्षु,भिक्षुणी, और आम लोग जो बुद्ध की शिक्षाओं और जीवन के तरीकों का पालन करते हैं। हम जीवन में उन लोगों की संगति करेंगे जो सही मार्ग पर चलने वाले,शीलवान व सदाचारी व्यक्ति है।
बुद्ध के अनुयायी स्वयं को "सौगत"या "शाक्य" भी कहते हैं।
विश्व भर में बौद्ध धर्म के अनुयायियों की संख्या 45 करोड़ से 50 करोड़ तक है ।
प्रमुख अनुयायी आनंद-बुद्ध के चचेरे भाई और निजी सेवक ,जिन्होंने बुद्ध की शिक्षाओं को संरक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
कश्यप ओर क्षेम-बुद्ध के अन्य मुख्य अनुयायी ।
अशोक- मौर्य शासक अशोक जिन्होंने कलिंग युद्ध के बाद बौद्ध धर्म अपनाया और धम्म की अवधारणा विकसित की।
भगवान विष्णु के दस अवतारों में नवा अवतार और चौबीस अवतारों में तेईसवा अवतार बुद्ध का माना जाता है ।
हरिवंश पर्व,विष्णु पुराण,भागवत पुराण,गरुड़ पुराण,अग्नि पुराण, नारद पुराण,लिंग पुराण व पद्म पुराण,सभी में बुद्ध का उल्लेख है।
वैष्णव परंपरा में बुद्ध को भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है। जबकि बौद्ध धर्म में बुद्ध को एक महान शिक्षक और मार्गदर्शक के रूप में देखा जाता है।
शाक्य वंश के राजा शुद्धोधन,पुत्र का नाम रखा गौतम सिद्धार्थ।
जीवन का सार अर्थ पहचाने, सार्थक हुआ उनका नामार्थ।
सात दिनों के शिशु की, माता महामाया का हो गया देहांत।
धात्री बनी मासी गौतमी ,जीवन के सिखाए सिद्धांत।
राजसी विलासता में पले बढे,बाहरी दुनिया से आक्रांत।
मनोरंजन के सर्वसाधन, पर चित्त उनका न रहता शांत।
जन्म पूर्व भविष्यवाणी संतों की,बालक बनेगा महान सम्राट या ऋषि।
संन्यासी ना बन जाए पुत्र,यह सोच राजा मन में दु:खी।
चारदीवारी महलों की,सुख विलासितापूर्ण सब साधन।
बाहरी दुनियाँ से दूर गौतम,नित ज्ञान सुनाते ब्राह्मण।
तीरंदाजी,तलवारबाजी,कुश्ती,तैराकी मे प्रशिक्षित।
यशोधरा संग शादी रचाई,राहुल पुत्र पाकर हुए हर्षित।
सब साधन थे फिर भी,मन में खुशी ना थी पर्याप्त।
सारथी संग निकले महल से,एक दिन पौ फटते प्रभात।
कपिलवस्तु की गलियों में ,घूमे सिद्धार्थ सुबह से शाम।
बीमार व वृद्ध व्यक्ति को देख,मन विचलित ना मिला आराम।
बेचैनी बढ़ने लगी देख,श्मशान जा रही एक लाश।
जीवन की यह गति देख,गौतम हृदय का हुआ ह्लास।
शांति से चलते देख तपस्वी को,पाये समस्या का समाधान।
शांत चित्त लौटे महल, त्यागे पत्नी, पुत्र ,राजसी परिधान।
लंबे केश काटे तलवार से,तपस्वी से पहने साधारण वस्त्र।
मुक्ति की खोज में निकले सिद्धार्थ, हाथ में न अस्त्र-शस्त्र।
जन्म,मृत्यु,जवानी,बुढ़ापा,दर्द बीमारी से जुड़े सवाल।
खोज में निकल पड़े अर्धरात्रि, सोचे मन यशोधरा,राहुल के हाल।
हे यशोधरे! विचलित मन मेरा, उज्जवल भविष्य की लिए चाहत।
दृढ़ निश्चय कर किया संकल्प ,छोड़ मोह माया चुना वैराग्य पंथ।
काली रात घोर अँधियारा,तुम हो निद्रा मे मगन।
ज्ञान का तेज उजियाला पाने, छोड़ रहा हूँ मैं सदन।
हे यशोधरा! तुम यश की धारा बन, राहुल को देना उच्च ज्ञान।
शांति राह जब मैं पाऊँगा, तुमको भी मिलेगा सम्मान।
प्रश्नों के उत्तर पाने गौतम, ध्यान तपस्या में हो गए तल्लीन।
छह वर्ष की घोर तपस्या,पर भूख प्यास के थे आधीन।
भोजन पाने की तलाश में,एक गाँव में भोजन किये ग्रहण।
पीपल पेड़ नीचे की प्रतिज्ञा,सत्य जाने बिना न छोड़ेंगे आसन।
सारी रात सत्य की खोज में,झपकाए ना पलक एक क्षण।
वैसाख पूर्णिमा, पौ फटी शुभ वेला, ज्ञानबोध प्राप्त कर हुए निर्वण।
पैतीस वर्ष की अल्पायु में, सिद्धार्थ बन गए गौतम बुद्ध।
शाक्य मुनि रूप में जाने गए, जीवन में ना चाहते युद्ध।
मुक्ति की स्वतंत्रता के बोध का,सात सप्ताह तक लिए आनंद।
ब्रह्माजी की आज्ञा मान ज्ञान बाँटे , भक्तों को मिला परमानंद।
उत्तर प्रदेश नगर वाराणसी,सारनाथ में प्रथम धर्मोपदेश।
अहिंसा,दया और सत्य का,मित्रों को दिया उपदेश।
क्रोध,लोभ,अंहकार त्याग,जीवन में पाए शांति।
बौद्ध धर्म के अनुयायी, विश्व भर में लाये क्रांति।