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हे सुख!शांति!तुम हो कहाँ?
तुम्हें ढूँढ रहे हम यहाँ-वहाँ?

मंदिर गए,पूजा पाठ किया,
गंगा तट गए,स्नान किया।

सागर तट किये बहुत विचार,
मन हो खुश,ना मिला उपचार।

सत्संग गयी, संतों से मिली,
उदास मन की कली ना खिली।

धर्म सम्प्रदाय की कथा निराली,
अपनी डफली,अपनी है ताली।

मैं जाऊँ किधर बता भगवन!
रास्ता तू दिखा भगवन!

चंचल मन है बड़ा उदास,
विज्ञान कर रहा सबका नाश।

शिक्षित प्राणी बड़ा है पीड़ित,
मन सबका हो गया है कुंठित।

दर्द बाँटने हो रहे संकुचित,
अपने पेट को कर रहे पल्लवित।

ईश्वर ध्यान में दिखते मगन,
हृदय पटल में पैसों की अगन।

होडा होडी का आ गया दौर,
जीवन को मिला न शान्ति ठौर।

सोचा,पहाड़ों पर चली जाऊँ,
मन मे थोड़ी शांति पाऊँ।

वहाँ प्रकृति के बदले डौल,
बादल फटना,भूस्खलन का दौर।

शिक्षा प्राप्त कर आगे बढ़ जाऊँ,
कहीं तो मन में शांति पाऊँ।

शिक्षा की दौड़ में जब भागे,
एक को गिरा,दूजा बढ़ता आगे।

कमाई के साधन नए-नए ,
श्रेष्ठ वही,जिसने पैसे दिए।

जुआ,चरस,भांग और गांजा ,
एक दूजे के मामा भांजा।

पीकर होने लगे मतवाले,
जीने के पड़ जाते लाले।

स्वान्त:सुखाय जीवन की आस में,
प्रेम पुजारी के गया पास में।

मीरा सा मतवाला मन,
कृष्ण ध्यान की लगी लगन।

ना चिंता ना कोई फिकर,
मस्त घूमता इधर-उधर।

जो मिल जाता वह पा जाता,
कभी-कभी भूखा रह जाता।

ना रहने का कोई ठिकाना,
दो पग जमीन,ओढना बिछौना।

हाथ नही पैसा और माला,
मयूर सा मन नाचे मतवाला।

कल की न चिन्ता,मन आनंदित,
किसी बात को न करता खंडित।

उसे देख मन मेरा बोला ,
तू भी बन जा,ऐसा भोला।

अपनी मस्ती की ले मस्ती,
सब बातों को कर दे सस्ती।

हृदय में रख राम और सीता,
मन की जीत तो जग जीता।

जीवन की राह मे मतलब के साथी,
चल मस्त बन गजराज हाथी।

मन चंगा तो कठौती में गंगा,
क्यों नाच रहा मन हो नंगा?

छोड़ दिखावे की माला,
मुँह पर लगा ले ताला।

मौन व्रत को अपना ले,
सच्चा सुख-शांति पाले।

पढ़ लिखकर सब करते तर्क,
बडे-छोटे का रहा न फर्क।

शर्म लाज का नही बसेरा,
बेशर्मी ने सबको घेरा।

सब अपने मतलब में समझदार,
दूजो का है नहीं विचार।

ऐसा कलयुग आया भाई,
सच्ची शांति है मन के माही।

कपाट ह्रदय के तूँ खोल,
मूर्ख मानव ना इत-उत डोल!!

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