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चुनाव आते ही देखा जाता है कि पूरे देश में एक पार्टी से दूसरी पार्टी या स्वतंत्र पार्टी में जाने का चलन बढ़ जाता है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से चाहे वह लोकसभा, विधानसभा चुनाव से संबंधित हो या फिर ग्राम पंचायत से संबंधित हो। चाहे नगर पालिका हो, नगर निगम हो या फिर कोई भी उपचुनाव, शुरू हुये तो बगावत की खबरें सुनने को मिलती हैं। हर दिन कुछ न कुछ नया सुनने को मिलता है आज इस पार्टी का विधायक उस पार्टी में चला गया। इस जाति के लोगों यानी नेताओं ने अपने का समर्थन इस पार्टी को दिया और कल उसी जाति के एक और बाहुबली नेता ने अपने समर्थकों के साथ दूसरी पार्टी का समर्थन किया।

इस तरह की कई खबरों से महाराष्ट्र ही नहीं पूरे देश का सियासी माहौल गरमाता नजर आ रहा है। पहले हमें हर पांच साल में ऐसी स्थिति देखने को मिलती थी लेकिन आजकल किसी न किसी चीज को लेकर चुनाव होते ही रहते हैं और हमें हमेशा यह तस्वीर देखने को मिलती है। सभी राजनीतिक दलों और उनके नेताओं को सोचने पर मजबूर करता है, वास्तव में उन्हें गलत आकलन करने पर मजबूर करता है, वह बहुत बड़े पैमाने पर सामने आता है: ये कारक है विद्रोहीनेता या बागी नेता।

एक बार जब इन चुनावों की घोषणा हो जाती है तो ये बागी ऐसा माहौल बना देते हैं कि पार्टी का नेता, विधायक, सांसद या कोई भी पद चाहने वाले उम्मीदवार, यहां तक कि जमीनी स्तर का कार्यकर्ता ही क्यों, इस दौरान अपने आप को मसीहा बताने वाले ज्योतिषियों की भी नींद उड़ गई है। ये लोग बागी क्यों होते हैं? ये एक बहुत बड़ा सवाल है। इन सब परिस्थिती का, बागी नेताओंकी, मनस्थिती आलेख सामने लाना ये इस लेखन का उद्देश्य है।

इस चर्चा का पहला बिंदु बागी क्या होता है? इसका शब्दकोशमी जो अर्थ है वो है गद्दार, विद्रोही या दंगाई है। लेकिन यहां इसका शब्दकोष में दिया अर्थ लेना उचित नहीं होगा। क्योंकि जो कोई अपने ही नेतृत्व को चुनौती देता है वह विद्रोही है बाग है! ऐसा ही अर्थ यहाँ अभिप्रेत है। दूसरा मुद्दा यह है कि बगावत या विद्रोह क्यों किया जाता है?

वास्तव में विद्रोह क्यों किया जाता है? एक व्यक्ति जो वर्षों से एक पार्टी में है, जो पार्टी के बल पर सत्ता के विभिन्न पदों पर रहा है, एक व्यक्ति जिसने पार्टी के कारण समाज में एक अलग पहचान बनाई है, यहां तक कि एक व्यक्ति जो अपने पिता के खिलाफ बागी बन खड़ा है, पूरे परिवार के ख़िलाफ़ इसने बगावत की है। ये बागी जो एक पल में सब कुछ छोड़ कर दूसरा घर बना लेते हैं या अपना दूसरा घर बसा लेते हैं। क्योंकि उन्हें टिकट नहीं मिला या निश्चित था कि उन्हें उसी पार्टी के खिलाफ चुनाव में टिकट नहीं मिलेगा। इस कारणसे वे जिससे वे बेहद प्यार करते थे उनसे बगावत करने के लिये क्यू राजी होते है? यही असली सवाल है।

यूं देखा जाए तो भारतीय राजनीति में बगावत कोई नई बात नहीं है। यदि हम शिवाजी महाराज के काल देखने गये तो उधर भी सूर्याजी पिसाल जैसे विद्रोही थे। लेकिन याद रखने वाली बात यह है कि वे देशद्रोही की श्रेणी में आ रहे थे।

अब हम चर्चा करेंगे कि विद्रोह या बगावत कैसे होती है? मुझे लगता है कि इसका इनमे से एक कारण तो निश्चित होना चाहिए। जैसे की, सिद्धांत पर टिके रहना, अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं, पार्टी की बदली हुई नीतियां, पार्टी के मुखिया से असहमति, पार्टी के भीतर गुटीय राजनीति, जाति, धर्म के आधार पर राजनीतिक गणना, पैसे की तुलना में सब कुछ फीका है ऐसी भावना, सीट की वजह से पार्टी बदलना जहां आप किसी अन्य पार्टी के लिए चुनाव लड़ना चाहते हैं, दो दलों के बीच गठबंधन में चलनेवाला सुप्त संघर्ष, दो परिवारों के बीच का राजनीतिक विवाद।

मुख्य रूप से ये और ऐसे ही कई कारण विद्रोह को जन्म देते हैं। इस तरह देखा जाए तो भारतीय सामाजिक व्यवस्था और भारतीय लोकतंत्र को दुनिया में अलग-अलग पैमाने पर मापा जाता है। दरअसल, हम देख सकते हैं कि कई देशों ने इस भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था आदर्श मानाहै। हालाँकि भारत की अर्थव्यवस्था वास्तव में कृषि प्रधान है, लेकिन यदि हम सामाजिक व्यवस्था और राजनीतिक व्यवस्था पर विचार करें, तो आज की तारीख में यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि यहाँ कई धर्म और जातियाँ सौहार्दपूर्वक रहती हैं।

क्योंकि भारतीय सामाजिक व्यवस्था तेजी से जातिवाद और धर्म पर आधारित राजनीतिक रूप को सुविधाजनक होती जा रही है। किसी विशेष समाज और उस पर निर्भर संबंधित व्यक्ति के प्रभाव क्षेत्र में अपना निजी हित साधने वाले लोगों को राजनीतिक लाभ होता है। ऐसी बहुत सी बातें हैं जिनके कारण हमारा देश विभिन्न जातियों और धर्मों के अलग-अलग क्षेत्रों में बंटता जा रहा है।

यह कहना गलत नहीं होगा कि इसके लिए सभी राजनीतिक दल जिम्मेदार हैं। क्योंकि पार्टी का प्यार अरबी के पत्ते के ऊपरके पानी की तरह हो गया है। पार्टी प्रमुखों के प्रती आदर सम्मान तो नही रहा, लेकीन पार्टी के प्रमुख का रौब भी कम होता जा रहा है।

पार्टी द्वारा जारी चुनावी घोषणापत्र महज कागजी पतंग नजर आ रहा है। जिस प्रकार संक्रांति के समय पतंग उड़ाई जाती है, उसी प्रकार इन घोषणापत्रों का उपयोग सभी पार्टियाँ केवल चुनाव के समय ही एक चुनावी उपकरण के रूप में करती हैं।

दरअसल, चुनावी घोषणा पत्र उस पार्टी का चेहरा होना चाहिए। पार्टी को इस घोषणापत्र में की गई घोषणा के अनुसार कार्य करना चाहिए, लेकिन कोई भी पार्टी ऐसा करती नहीं दिख रही है और कोई भी उन्हें जवाबदेह नहीं ठहरा रहा है।

चुनाव आयोग को इस घोषणापत्र पर सख्ती बरतनी चाहिए। यदि सत्तारूढ़ दल घोषणापत्र के अनुरूप कार्य नहीं करता है तो उसकी राजनीतिक मान्यता रद्द कर देनी चाहिए। ऐसा कानून बनना चाहिए। इस तरह से देखें तो लगता है कि घोषणापत्र का दस से बीस फीसदी तक क्रियान्वयन हो जाता है, लेकिन ये देखना भी सामान्य है, क्योंकि सरकार चलाते समय कुछ योजनाएं बनानी होती हैं और वो हिस्सा अपने आप दिखने लगता है। जिससे घोषणा पत्र पर काम हो जाता है। जब ऐसा है तो पार्टी के सभी नेताओं को इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि सभी कार्यकर्ता उनकी बात सुनेंगे। पार्टियों ने भी अपने राजनैतिक मिशन के लिये अपने पार्टी कें नीतियों में बदलाव करना शुरू कर दिया है। इसलिए सिद्धांतों पर आधारित राजनीति करने वाले लोग भी पार्टी छोड़ते नजर आ रहे हैं।

पार्टी के भीतर गुटीय राजनीति ने तबाही मचा दी है। यहां तक कि पार्टी के नेता भी अपनी पार्टी के भीतर प्रतिद्वंदी को बदनाम करने का रवैया अपनाने लगे हैं। मेरे पास बहुत पैसा है ऐसे मानकर चलनेवाले हमारे भारत में ऐसे अमीर राजनेता की कमी नहीं हैं जिन्हें लगता है कि मैं पैसे के बल पर चाहे किसी भी पार्टी में शामिल हो जाऊं, चुना ही जाऊंगा। ऐसे ही कुछ खास नाम भारत में बच्चा-बच्चा भी जानता है। ये लोग बड़े पैमाने पर विद्रोह भी करते हैं। चुनाव आयोग के नियमों के मुताबिक आरक्षण या ऐसे ही किसी कारण से उनकी सामान्य सीटें चली जाती हैं, लेकिन राजनीति में हम देखते हैं कि अच्छे-अच्छे लोग बगावत कर किसी भी स्थिति में अपना दबदबा बना लेते हैं।

यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि भारत में एकदलीय राजनीति के दिन ख़त्म हो गए हैं। हालांकि, सरकार बनाने के लिए कई पार्टियों को एक साथ आना होगा। भविष्य में किसी एक पार्टी की सरकार बनना मुश्किल के बजाय असंभव हो गया है ऐसा लागता था लेकीन पिछले दास वर्षोमें ये परिस्थितीमें भी बदलाव आया दिखता है। तब ऐसी स्थिति में न चाहते हुए भी दो या दो से अधिक दलों को मिल कर सत्ता हासिल करनी पड़ती है। इस गठबंधन में एक पार्टी अपनी सहयोगी पार्टी की ताकत को कम करने की कोशिश कर रही है। एक दूसरे पर लांछन लगाने की राजनीति में दोनों की हार होती है। लेकिन जब इस तरह की राजनीति समझ में आती है तो विद्रोह भड़क उठता है। यदि किसी समय इतना प्रचंड बहुमत प्राप्त भी हो जाए तो हिटलरवाद का जन्म हो जाने का भय भी रहता है।

पिछले दोतीन वर्षों में विद्रोह का एक नया रूप सामने आया है। सत्तारूढ़ दल प्रतिद्वंद्वी दलों को खत्म करने पर तुले हैं। पार्टी में कई विधायकों और सांसदों को तरह-तरह से प्रताड़ित और डराया-धमकाया जाने लगा है। पार्टी के दो टुकडे कर एक को सत्तापक्ष अपने फायदे देख रहा है। ये सब प्रचंड बहुमत के कारण हो रहा है। इसलिए किसी भी एक दल को प्रचंड बहुमत नहीं मिलना चाहिए। ऐसे बहुमत के बल पर जैसा हम चाहते हैं वैसा करने का तरीका एक आदर्श बन गया है। आज भले ही बहुसंख्यक लोगों को यह बात अच्छी लगे, लेकिन यह तिहरा सच है कि यह लोकतंत्र के लिए खतरनाक है।

हमारे भारत में आजादी से पहले संस्थान, राजा, सरदार, जागीरदार, सूबेदार जैसे कई सत्ता और धन से संपन्न परिवार थे और अब भी हैं। हालाँकि आज के तारीख मी भारत में ऐसी राजसत्ता नाही है, फिर भी शैक्षणिक संस्थाओं, चीनी मिलों, सहकारी प्रतिष्ठानों, उद्योग धंधों के माध्यम से अपना अलग साम्राज्य बनाने वाली आधुनिक संस्थानों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। ऐसी संस्थानों के बीच विवाद, दूसरे शब्दों में कहें तो ये राजनीतिक संस्थाए इस तरह का विद्रोह करती नजर आती हैं ताकि उनकी शक्ति, उनके साम्राज्य को झटका न लगे। हालाँकि, यह तीन गुना सच है कि यह विद्रोह तब तक इसी तरह जारी रहेगा जब तक सत्ता में बने रहने के लिए पार्टी, देश और परिवार के प्रति प्रेम को एक पल में ख़त्म कर देने वाले ऐसे बाहुबली है। आम जनता को याद रखना चाहिए कि जो लोग अपनी पार्टीके नही हुये, अपने नेता के नहीं हुये, वे हमारे कैसे होंगे?

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