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हम रोज अखबार पढ़ते हैं। कुछ खबरें अप्रत्याशित होती हैं तो कुछ रहस्यमयी। दुर्घटनाएं, घोटाले, राजनीति, धर्म, जाति, तथाकथित बुद्धिजीवियों के लेख (ये लेख केवल दूसरों के लिए होते हैं, लेकिन ये मत पूछिए कि इन्हें लिखने वाले अपने निजी जीवन में कितना फॉलो करते हैं) ऐसे समाचार और लेख रोज पढनेवाला मै एक समाचार पढकर हैरान था। खबर थी ‘मुंबई में दसवीं क्लास में एडमिशन न मिलने पर नौवीं पास छात्रा ने आत्महत्या कर ली’।

ये खबर पढ़कर तो नहीं, लेकिन उसकी आत्महत्या की वजह पढ़कर तो मैं सुन्न हो गया। इसकी वजह ये थी की, ठीक इसी विषय पर हाल ही में एक दोस्त से बातोंके दौरान चर्चा हुई थी।

विषय था अपने बेटे का स्कूल में एडमिशन कराना। बहुत ही सरल विषय लेकिन इसे हमें एक गहन प्रश्न कहना चाहिए। केवल दो साल का लड़का. और वह स्कूल में दाखिला पाने के लिए संघर्ष चल रहा था। मेरे दोस्त का परिवार एक शिक्षित, समृद्ध परिवार है। संक्षेप में कहें तो यह एक बिजनेसमैन का परिवार है।

बहुत अभिजात और समृध्द वर्गके लोगों में उनका उठना बैठना था। बच्चे के एडमिशन के लिए फरवरी, मार्च से आस लगाकर बैठे थे। मैंने उन्हें शहर के सभी बड़े स्कूलों के नाम बताए। उन्होंने कहा कि मेरा बेटा इस स्कूल में दाखिला नहीं लेना चाहता। मैं फिर चौंक गया, क्योंकि ये लोग किस स्कूल में एडमिशन लेंगे? मेरे सामने एक सवाल खडा हुआ!

उससे मैने कारण पूछा। उसपर उसका स्पष्टीकरण सुनकर मैं हैरान रह गया। क्योंकि इस सवाल का उन्होंने जो जवाब दिया, उसे हर किसी को अपने जहन में रेकॉर्ड कर रखना चाहिए। यदि हम ऐसा न करे तो हमें ऊपर उल्लिखित समाचार में प्रतिदिन दिखाई दे इसका आश्चर्य नही होना पडेगा।

वो पुणे में रहने वाली अपने ननद की बेटी की कहानी बता रही थी। वह बोल रही थी और मैं (सीधासाधा मध्यम वर्ग का प्रतिनिधि) हक्काबक्का होकर सुन रहा था। बच्ची की उम्र सात से आठ साल थी। वो दुसरी या तिसरी कक्षामें पढती थी। एक दिन उस लड़की, अपनी माँ से कहा, मुझे स्कूल जाने के लिए एक मर्सिडीज कार चाहिए। अपनी वैगनर किसी को दे दो और से डॅडाको बोलो तुम्हारे लिए एक नयी मर्सिडीज लाए। अब मुझे आपको ये बताने की जरूरत नहीं है कि ये डॅडा कौन हैं। यह उन तनावपूर्ण संबंधों का परिणाम है जो टीवी धारावाहिकों और तथाकथित अभिजात वर्ग की संस्कृति के कारण पैदा हुए हैं। माँ को मॅमा, पिताजी को डॅडा, भाई को ब्रो, बहन को सीस, दादा-दादी के लिए दुनिया में कोई जगह नहीं है। हालाँकि, कॉव्हेन्ट संस्कृति में पढे बच्चे आजकाल ऐसेही बुलाते है।

ओह, बात तो दूसरी तरफ चली गई। तो, लड़की की मर्सिडीज की डिमांड सुनकर मां तो एकदमसी चकरा गयी। शाम को जब उसके पिता कंपनी से घर आए तो बच्ची के माताजी ने यह बात उनके सामने रखी। उसके बाद जब वे लड़की से बात करने लगे तो लड़की ने कहा कि मेरी क्लास में सभी के पास बीएमडब्ल्यू, ऑडी, मर्सिडीज जैसी इम्पोर्टेड गाडिया हैं। मुझे हमारे पुराने वैगनर में स्कूल जाने में शर्म आती है। मैं नहीं चाहती कि माँ या दादाजी मुझे पहुँचाने आएँ। मुझे स्कूल तक छोड़ने और वापस लाने के लिए एक शोफर चाहिए। तभी मैं स्कूल जाऊँगी वरना नहीं जाऊँगी। दोनों पति-पत्नी बर्फ की तरह ठंडे हो गये। वे सोचने लगे कि उन्होंने इस लड़की को इतने बड़े स्कूल में भेजकर बहुत बड़ी गलती की है।

लड़की प्रतिदिन उन्हे पुछती थी कब लायेंगे मर्सिडीज? तंग होकर अंत में, पिता लड़की पर चिल्लाया और उसे कहा कि उसके पास पैसे नहीं हैं और वह मर्सिडीज नहीं खरीद सकता। दोबारा मेरे सामने मर्सिडीज का नाम मत लेना। जिस दिन ये बातचीत हुई उस दिन लड़की ने खाना नहीं खाया और स्कूल भी नहीं गई। माता पिताने उस बच्ची के इस बर्ताव पर अनदेखी की, माता-पिता बात करने को तैयार नहीं यह देखकर अब लड़की सोचमें पडी।

इस घटना को दो-तीन दिन हुए। लड़की भी स्कूल जाने लगी। माता-पिता को लगा कि सब कुछ सामान्य हो गया है। वे दोनों सब भूल गये। सात-आठ दिन के बाद लड़की ने अपने दादाजी से कहा, ‘दादाजी, मुझे एक चीज चाहिए, क्या आप मुझे दे दोगे?’ दादाजी बहुत सख्त थे क्योंकि उनका पालन-पोषण अनुशासन में हुआ था। उन्होंने कहा कि मुझे बताओ कि तुम्हें क्या चाहिए तब मैं तुम्हें बताऊंगा कि मैं दे सकता हूं या नहीं। फिर तय करेंगे कि क्या करना है। लड़की ने अपने दादा को जो बताया वह हैरान करने वाला था। उसने कहा, मेरे डॅडा के पास पैसे नहीं हैं, क्या आप उन्हें चालीस पचास लाख रुपये दे सकते हैं? ये सुनकर दादाजी को ग़लतफ़हमी हो गई। इतनी परेशानी के बावजूद मेरे बेटे ने मुझसे बात नहीं की, और अपनी बेटी को पैसे के लिए मेरे पास भेजता है? लेकिन फिर भी धीरज रखते हुए उन्होंने अपने पोती से कहा, उन्हें इतने पैसों की क्या जरूरत है? मर्सिडीज खरीदने के लिए लडकी बोली। अब हैरान होते हुये उन्होंने कहा, मर्सिडीज कार क्यों एक गाडी तो है? फिर उन्हें मर्सिडीज़ की आवश्यकता क्यों है?

मैं उनसे बात करता हूं, फिर देखता हूं क्या होता है.' उस लड़की ने तुरंत उन्हें मना कर दिया, मुझे मर्सिडीज चाहिए। स्कूल जाने के लिए। ये सुनकर चौंकने की बारी दादाजी की थी.

लड़की के पिता ने सारी कहानी उसके दादा को बतायी। सभी पारिवार चिंता में पड़ गया। चिंता तो होनी ही थी। इस विचारोत्तेजक घटना ने उन सभी को झकझोर कर रख दिया, वे सोचने लगे कि, हमारी आर्थिक स्थिती अच्छी न होते भी हमारे जैसे लोग इतने बड़े स्कूलों में बच्चों का दाखिला कराते है, ये गलत तो नही?

धीरे-धीरे दिन बढ़ते गए। स्कूल बदलने का तो सवाल ही नहीं उठता था। लेकिन माता-पिता को लड़की के व्यवहार में बदलाव महसूस हो रहा था। वह घर पर होते हुये भी अलगसी रहने लगी, खुद को अकेली महसूस कर रही थी। वह अपने मां, पापा, दादी, दादा से सिर्फ काम के लिए बात करती थी। वह अपने छोटे भाई के साथ नहीं खेलती थी। ऐसा लग रहा था मानो उसने अपने चारों ओर एक पिंजरा बना लिया हो और बाहर आने को तैयार नहीं हो। उसकी दैनिक गतिविधियाँ सुचारू रूप से चल रही थीं। खाना, पढ़ाई, स्कूल जाना।

लेकिन उनका बचपन मानो खो गया था। लड़की समय से पहले ही बड़ी हो गई थी। इस स्थिति के लिए कौन जिम्मेदार है? माता-पिता, छात्र, सामाजिक स्थितियाँ, स्कूल का माहौल या कुछ और? यह तो तय है कि इस सवाल का जवाब ढूंढ़ना मुश्किल नही नामुमकीन है।

मैं अकेला नहीं हूं जिसके सामने यह सवाल खडा है। हमें ऐसे सवालों पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। हमें अपने बच्चों और पोते-पोतियों के समय और संस्कृति पर ध्यान देना चाहिए, अन्यथा अगली पीढ़ी को सभ्य/सुसंस्कृत बनाने का सपना साकार करना हमारे लिए मुश्किल हो जाएगा!

हमें बच्चों का पालन-पोषण कैसे करना चाहिए? अगली पीढ़ी और उनके व्यवहार में क्या बदलाव होना चाहिए? ये सारे सवाल हमें आगे हमेशा महसूस होते रहेंगे।

अगर हमारे इस नई पीढ़ी के बच्चे तीन साल की उम्र में बोलना शुरू करें, कुछ काम करना शुरू करें तो हम उनकी सराहना करते हैं, ये स्वाभाविक है। यह पीढ़ी निश्चित रूप से बुद्धिमान है, जो विभिन्न प्रकार के प्रश्न पूछती है और हमसे समस्याओं का समाधान करा लेती है। लेकिन हमें उनकी बुद्धि को आकार देने और उन्हें दिशा देने की भूमिका बहुत ही सरलता से निभानी होगी।

इस समस्या का समाधान हैं लेकिन हमें इस बात की जानकारी होनी चाहिए कि वे इन बच्चोंके लिये इन समाधान की उपयोगिता कितनी हैं। हमें अभी इस घटना और ऐसी ही कई घटनाओं का सामना करना पड़ेगा। आज जो लोग पचास या उससे अधिक उम्र के हैं उन्होंने अपने दादा-दादी से कहानियाँ, कविताएँ और गीत अवश्य सुने होंगे। स्कूल जाने से पहले भी हम घर में सायंप्रार्थना करते थे, शुभंकरोति, रामरक्षा, यहां तक कि गांव में मारुति के मंदिर में जो हरिपाठ किया जाता था, वह सब हमारे कानों में बार-बार दोहराया जाता था। दुःख के साथ कहना पड़ता है कि आज अपवादस्वरूप भी वह चित्र हमें देखने को नहीं मिलता।

आज की पचास पार नाना-नानी और के दादा-दादी अपने पोते-पोतियों को खेलने के लिए मोबाइल फोन देते हैं। उनके आठ साल के बेटे ने रास्तेसे जा राही गाडी की कार कंपनी का नाम बताया तो दादा-दादी और माता-पिता दोनों को अपने बच्चे पर बहुत गर्व हो जाता है। जो भी आता है उससे कहते हैं, ‘अरे, मुझे तो मोबाइल फोन के बारे में कुछ नहीं पता, लेकिन हमारा आठ साल का मोनू, वह मोबाइल फोन के इस टेक्नोलॉजी से इतना मिल जुल गया है की पुछो मत’। वो अपने सामने किसी भी कार को तुरंत पहचान लेता है! बुद्धिमत्ता की सराहना करना स्वाभाविक है, लेकिन इसके पीछे बच्चे की मानसिकता कैसे बनती है, यह हमें पता नहीं होता। यह पचास के उमर की दादी नोकरी करती हैं। शाम को जब वो काम से घर आती है तो वह थकी हुई होती है। वह उस छोटे बच्चे को गोद में लेकर क्या कहानिया सुनाएगी? उसको खुद को भी रामायण महाभारत कथा कहां मालूम है? अगर वही आठ साल का पोता टीवी पर रामायण देखने के बाद उससे कोई सवाल पूछ ले तो उन दादा-दादी के पास उस सवाल का आसान सा जवाब भी नहीं होता ये आजकल की स्थिती है।

हमें ऐसे सवालों पर बहुत सावधानी से ध्यान देना होगा। अन्यथा हमें आगे क्या करना चाहिए? यह प्रश्न निश्चित रूप से हमेशा के लिए उग्र स्वरूप पकडेगा ये निश्चित है।

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